ये दोनों यात्राएं समान नहीं हैं । क्योंकि ऊपर जाने में तुम्हें बदलना पड़ेगा । क्योंकि ऊपर जाना है । तो ऊपर जाने के योग्य होना पड़ेगा । प्रतिपल तुम्हारे चेतना के तल को ऊपर उठना पड़ेगा । तभी तुम सीढ़ी पार कर सकोगे । नीचे गिरने में तो कुछ भी नहीं करना पड़ता ।
मुल्ला नसरुद्दीन अपने बेटों के लिए एक साइकिल खरीद लाया था । दो बेटे । तो उसने कहा कि दोनों आधा आधा साइकिल से खेलना । कोई झगड़ा खड़ा न हो । एक दिन उसने देखा कि बड़ा बेटा बारबार ऊपर टेकरी पर जाता है । और वहां से साइकिल पर बैठकर नीचे आता है । कई बार उसे टेकरी से साइकिल पर बैठे हुए देखा । तो उसने बुलाकर कहा कि मैंने कहा था । छोटे बेटे को भी आधा आधा । उसने कहा । आधा ही आधा कर रहे हैं । छोटा बेटा ऊपर की तरफ ले जाता है साइकिल । हम ऊपर से नीचे की तरफ लाते हैं । आधा आधा । अब पहाड़ी पर साइकिल को ले जाना । चढ़ने का तो सवाल ही नहीं । किसी तरह हांफता हुआ छोटा बेटा ऊपर तक पहुंचा देता है । और बड़ा बेटा उस पर बैठकर नीचे की यात्रा कर लेता है । समान नहीं है । आधी आधी नहीं है यात्रा । नीचे की यात्रा यात्रा ही नहीं है । गिरना है । पतन है । तुम जहां थे । वहां से भी नीचे उतरना है ।
तो जो व्यक्ति प्रेम को ईर्ष्या । आधिपत्य । पजेशन बना लेगा । वह जल्दी ही पाएगा । प्रेम तो खो गया आग तो खो गई । प्रेम की आंखों को अंधा करने वाला धुआं छूट गया है । घाटी के अंधकार में जीने लगा । पहाड़ की ऊंचाई तो खो गई । और पहाड़ की ऊंचाई से दिखने वाले सूर्योदय सूर्यास्त सब खो गए । अंधी घाटी है । और रोज अंधी होती चली जाती है । तुम्हारे भीतर का पशु प्रकट हो जाता है । सरलता से । उसके लिए कोई साधना नहीं करनी पड़ती । जिसको प्रेम को ऊपर ले जाना है । उसे प्रेम को तो वैसे ही साधना होगा । जैसे कोई योग को साधता है । क्योंकि दोनों ऊपर जा रहे हैं । तब साधना शुरू हो जाती है । प्रेम तप है । जैसे कोई तप को साधता है । वैसे ही प्रेम की तपश्चर्या है । और तप इतना बड़ा तप नहीं है । क्योंकि तुम अकेले होते हो । प्रेम और भी बड़ा तप है । क्योंकि एक दूसरा व्यक्ति भी साथ होता है । तुम्हें अकेले ही ऊपर नहीं जाना है । एक दूसरे व्यक्ति को भी हाथ का सहारा देना है । ऊपर ले जाना है । कई बार दूसरा बोझिल मालूम पड़ेगा । कई बार दूसरा ऊपर जाने को आतुर न होगा । इनकार करेगा । कई बार दूसरा नीचे उतर जाने की आकांक्षा करेगा । लेकिन अगर हृदय में प्रेम है । तो तुम दूसरे को भी सहारा दोगे । सम्हालोगे । उसे नीचे न गिरने दोगे । तुम्हारा हाथ करुणा न खोएगा । तुम्हारा प्रेम जल्दी ही क्रोध में न बदलेगा । कई बार तुम्हें धीमे भी चलना पड़ेगा । क्योंकि दूसरा साथ चल रहा है । तुम दौड़ न सकोगे । इसलिए मैं कहता हूं । तप इतना बड़ा तप नहीं है । क्योंकि तप में तो तुम अकेले हो । जब चाहो । दौड़ सकते हो । प्रेम और भी बड़ा तप है ।
लेकिन प्रेम के द्वार पर तो । तुम ऐसे पहुंच जाते हो । जैसे तुम तैयार ही हो । यहीं भूल हो जाती है । दुनिया में हर आदमी को यह खयाल है कि प्रेम करने के योग्य तो वह है ही । यहीं भूल हो जाती है । और सब तो तुम सीखते हो । छोटी छोटी चीजों को सीखने में बड़े जीवन का समय गंवाते हो । प्रेम को तुमने कभी सीखा ? प्रेम को कभी तुमने सोचा ? प्रेम को कभी तुमने ध्यान दिया ? प्रेम क्या है ? तुम ऐसा मान कर बैठे हो कि जैसे प्रेम को तुम जानते ही हो । तुम्हारी ऐसी मान्यता तुम्हें नीचे उतार देगी । तुम्हें नरक की तरफ ले जाएगी । प्रेम सबसे बड़ी कला है । उससे बड़ा कोई ज्ञान नहीं है । सब ज्ञान उससे छोटे हैं । क्योंकि और सब ज्ञान से तो तुम जान सकते हो । बाहर बाहर से । प्रेम में ही तुम अंतर्गृह में प्रवेश करते हो । और परमात्मा अगर कहीं छिपा है । तो परिधि पर नहीं । केंद्र में छिपा है ।
और एक बार जब तुम । एक व्यक्ति के अंतर्गृह में । प्रवेश कर जाते हो । तो तुम्हारे हाथ में कला आ जाती है । वही कला सारे अस्तित्व के अंतर्गृह में प्रवेश करने के काम आती है । तुमने अगर एक को प्रेम करना सीख लिया । तो तुम उस एक के द्वारा प्रेम करने की कला सीख गए । वही तुम्हें एक दिन परमात्मा तक पहुंचा देगी ।
इसलिए मैं कहता हूं कि प्रेम मंदिर है । लेकिन तैयार मंदिर नहीं है । एक एक कदम तुम्हें तैयार करना पड़ेगा । रास्ता पहले से पटा पटाया तैयार नहीं है । कोई राजपथ है नहीं कि तुम चल जाओ । चलोगे एक एक कदम । और चल चलकर रास्ता बनेगा । पगडंडी जैसा । खुद ही बनाओगे । खुद ही चलोगे । इसलिए मैं प्रेम के विरोध में नहीं हूं । मैं प्रेम के पक्ष में हूं । और तुमसे मैं कहना चाहूंगा कि अगर प्रेम ने तुम्हें दुख में उतार दिया हो । तो अपनी भूल स्वीकार करना । प्रेम की नहीं । क्योंकि बड़ा खतरा है । अगर तुमने प्रेम की भूल स्वीकार कर ली । तो यह मैं जानता हूं कि तुम साधु संतों की बातों में पड़कर छोड़ दे सकते हो । प्रेम का मार्ग । क्योंकि वहां तुमने दुख पाया है । तुम थोड़े सुखी भी हो जाओगे । लेकिन आनंद की वर्षा तुम पर फिर कभी न हो पाएगी । कैसे तुम चढ़ोगे ? तुम सीढ़ी ही छोड़ आए । गिरने के डर से तुम सीढ़ी से ही उतर आए । चढ़ोगे कैसे ? गिरोगे नहीं । यह तो पक्का है ।
जिसको हम सांसारिक कहते हैं । गृहस्थ कहते हैं । वह गिरता है सीढ़ी से । जिसको हम संन्यासी कहते हैं । पुरानी परंपरा धारणा से । वह सीढ़ी छोड़कर भाग गया । मैं उसको संन्यासी कहता हूं । जिसने सीढ़ी को नहीं छोड़ा । अपने को बदलना शुरू किया । और जिसने प्रेम से ही । प्रेम की घाटी से ही । धीरे धीरे प्रेम के शिखर की तरफ यात्रा शुरू की ।
कठिन है । जीवन की संपदा मुफ्त नहीं मिलती । कुछ चुकाना पड़ेगा । अपने से ही पूरा चुकाना पड़ेगा । अपने को ही दांव पर लगाना पड़ेगा । और प्रेम जितनी कसौटी मांगता है । कोई चीज कसौटी नहीं मांगती । इसलिए कमजोर भाग जाते हैं । और भाग कर कोई कहीं नहीं पहुंचता । प्रेम के द्वार से गुजरना ही होगा । हां । उसके पार जाना है । वहीं रुक नहीं जाना है । वह सिर्फ द्वार है । जापान में एक मंदिर है । वैसे ही सब मंदिर होने चाहिए । वह मंदिर सिर्फ एक द्वार है । उसमें कोई दीवाल नहीं है । और भीतर कुछ भी नहीं है । सिर्फ एक द्वार है ।
मंदिर एक द्वार है । किसी अज्ञात लोक की तरफ खुलता है । अतीत पीछे छूट जाता है । भविष्य की तरफ खुलता है । समय पीछे छूट जाता है । कालातीत की तरफ खुलता है । क्षुद्र । क्षण भंगुर पीछे छूट जाता है । शाश्वत के प्रति खुलता है । लेकिन सिर्फ एक द्वार है । जो मंदिर में रुक गया । वह नासमझ है । मंदिर कोई रुकने की जगह नहीं । पड़ाव कर लेना । रात भर के लिए विश्राम कर लेना । लेकिन सुबह यात्रा पर निकल जाना है ।
प्रेम को कैसे मंदिर बनाओगे ? आधिपत्य मत करना । जिससे प्रेम करो । जिससे प्रेम करो । उस प्रेम के आसपास ईष्या को खड़े मत होने देना । जिसको प्रेम करो । उससे अपेक्षा मत करना । कुछ दे सको । देना मांगना मत । और तुम पाओगे । प्रेम रोज गहरा होता है । रोज ऊपर उठता है । और तुम पाओगे कि धीरे धीरे धीरे धीरे नये पंख उगने लगे । तुम्हारे जीवन में । चेतना नयी यात्रा पर जाने के लिए समर्थ होने लगी । लेकिन इन भूलों के प्रति सजग रहना । ये भूलें बिलकुल सामान्य हैं । और तुम प्रेम में पड़ते भी नहीं कि ये भूलें शुरू हो जाती हैं । तुम अपेक्षा शुरू कर देते हो । जहां अपेक्षा की । वहां सौदा शुरू हो गया । प्रेम न रहा ।
तुम जिसको प्रेम करो । उसे स्वयं होने की पूरी स्वतंत्रता देना । कई बार मौके होंगे । बहुत सी बातें होंगी । जो तुम न चाहोगे । लेकिन तुम्हारी चाह का सवाल क्या है ? दूसरा व्यक्ति पूरा व्यक्ति है । अपनी निजता में । तुम हो कौन ? वह जैसा है । तुम उसे प्रेम करने के अधिकारी हो । लेकिन तुम उसे काट छांट मत करना । तुम यह मत कहना कि तू ऐसा हो जा । तब हम तुझे प्रेम करेंगे । एक महिला मेरे पास आती है । प्रेम विवाह किया था । लेकिन एक छोटी सी बात पर । सब नष्ट हो गया कि पति सिगरेट पीते हैं । वह यह बरदाश्त नहीं कर सकती । उनके मुंह से बास आती है । रात उनके साथ सो नहीं सकती । दूसरे कमरे में पति सोते हैं । बीस साल इस छोटी सी बात की कलह में बीत गए हैं कि पति पर जिद है कि वह सिगरेट छोड़े । पति की भी जिद है कि पत्नी चाहे छूट जाए । सिगरेट नहीं छूट सकती । और दोनों प्रेम में थे । और मां बाप के विरोध में शादी की थी । शादी बड़ी मुश्किल थी । दोनों अलग अलग जाति के हैं । अलग धर्मों के हैं । दोनों के परिवार विरोध में थे । सब दांव पर लगाकर शादी की थी । और सब दांव सिगरेट पर लग गया । मैंने उन्हें कहा । तुम कभी यह भी तो सोचो कि तुमने किस छोटी सी बात के लिए सब खो दिया है । लेकिन अहंकार प्रबल है । और पत्नी कहती है कि मैं अपनी शर्त से नीचे उतरने को राजी नहीं हूं । बीस साल गए । और जिंदगी चली जाएगी ।
लेकिन जब तुम किसी एक व्यक्ति को प्रेम करते हो । समझ लो । उसे पायरिया हो जाए । तो क्या करोगे ? उसके मुंह से थोड़ी बास आने लगे । तो क्या करोगे ? क्या प्रेम इतना छोटा है कि उतनी सी बास न झेल सकेगा ? समझो कि कल वह आदमी बीमार हो जाए । लंगड़ा । लूला हो जाए । बिस्तर से लग जाए । तो तुम क्या करोगे ? कल बूढ़ा होगा । शरीर कमजोर होगा । तो तुम क्या करोगे ? प्रेम बेशर्त है । प्रेम सभी सीमाओं को पार करके मौजूद रहेगा । सुख में । दुख में । जवानी में । बुढ़ापे में ।
सिगरेट को पत्नी नहीं झेल पाती । प्रेम सिगरेट से छोटा मालूम पड़ता है । सिगरेट बड़ी मालूम पड़ती है । उसके लिए प्रेम खोने को राजी है । लेकिन प्रेम के लिए सिगरेट की बास झेलने को राजी नहीं है । पति पत्नी से दूर रहने को राजी है । लेकिन सिगरेट छोड़ने को राजी नहीं है । धुआं बाहर भीतर लेना ज्यादा मूल्यवान मालूम पड़ता है । पत्नी कौड़ी की मालूम पड़ती है । यह कैसा प्रेम है ? लेकिन अक्सर सभी प्रेम इसी जगह अटके हैं । सिगरेट की जगह दूसरे बहाने होंगे । दूसरी खूंटियां होंगी । लेकिन अटके हैं ।
अगर तुमने चाहा कि दूसरा ऐसा व्यवहार करें । जैसा मैं चाहता हूं । बस तुमने प्रेम के जीवन में विष डालना शुरू कर दिया । और जैसे ही तुम यह चाहोगे । दूसरा भी अपेक्षाएं शुरू कर देगा । तब तुम एक दूसरे को सुधारने में लग गए । प्रेम किसी को सुधारता नहीं । यद्यपि प्रेम के माध्यम से आत्मक्रांति हो जाती है । लेकिन प्रेम किसी को सुधारने की चेष्टा नहीं करता । सुधार घटता है । सुधार अपने से होता है । जब तुम किसी को आपूर प्रेम करते हो । इतना प्रेम करते हो । जितना कि तुम्हारे प्राण कर सकते हैं । रत्ती भर बाकी नहीं रखते । तो क्या प्रेमी में इतनी समझ न आ सकेगी । तुम्हारे इतने प्रेम के बाद भी कि सिगरेट छोड़ दे ? इतनी समझ न आ सकेगी । इतने बड़े प्रेम के बाद ? तब तो प्रेम बहुत नपुंसक है । और प्रेम नपुंसक नहीं है । प्रेम से बड़ी कोई शक्ति नहीं है । तुम्हारा प्रेम ही छुड़ा देगा । लेकिन अपेक्षा मत करना । अपेक्षा की कि घाटी की तरफ तुम उतरने लगे । अपेक्षा की और सुधारना चाहा कि बस मुसीबत हो गई ।
छोटे छोटे बच्चे तुम्हारे घर में पैदा होंगे । उनको तुम प्रेम करते हो । लेकिन प्रेम से ज्यादा उनकी सुधार की चिंता बनी रहती है । बस उसी सुधार में तुम्हारा प्रेम मर जाता है । कोई बच्चा अपने मां बाप को कभी माफ नहीं कर पाता । नाराजगी आखिर तक रहती है । पैर भी छू लेता है । क्योंकि उपचार है । छूना पड़ता है । लेकिन भीतर ? भीतर मां बाप दुश्मन ही मालूम होते रहते हैं । क्योंकि ऐसी छोटी छोटी चीजों पर उन्होंने बच्चे को सुधारने की कोशिश की । बच्चे को क्या समझ में आता है ? उसे समझ में आता है कि जैसा मैं हूं । वैसा प्रेम के योग्य नहीं । जैसा मैं हूं । उतना काफी नहीं । जैसा मैं हूं । उसको काटना पीटना बनाना पड़ेगा । तब प्रेम के योग्य हो पाऊंगा । बच्चे को इसमें निंदा का स्वर मालूम पड़ता है । निंदा का स्वर है ।
ध्यान रखना । प्रेम सिर्फ प्रेम करता है । किसी को सुधारना नहीं चाहता । और प्रेम बड़े सुधार पैदा करता है । प्रेम की छाया में बड़ी क्रांतियां घटती हैं । अगर मां बाप ने बच्चे को सच में प्रेम किया है । बस काफी है । बस काफी है । उतना प्रेम ही उसे सम्हालेगा । उतना प्रेम ही उसे गलत जाने से रोकेगा । उतना प्रेम ही जब भी वह राह से नीचे उतरने लगेगा । मार्ग में बाधा बन जाएगा । याद आएगी मां की । पिता की । उनके प्रेम की । और उनके बेशर्त प्रेम की । बच्चे के पैर पीछे लौट आएंगे ।
लेकिन तुम प्रेम नहीं करते । तुम सुधारते हो । जब तुम सुधारते हो । तब तुम्हारे सुधारने की आकांक्षा ही बच्चे के पैरों को गलत मार्ग पर जाने का आकर्षण बन जाती है । बच्चे झूठ बोलेंगे । सिगरेट पीएंगे । गालियां बकेंगे । अभद्रता करेंगे । सिर्फ इसलिए कि तुम सुधारना चाहते हो । तुम उनके अहंकार को चोट पहुंचा रहे हो । वे भी अहंकार से उत्तर देंगे । एक संघर्ष शुरू हो गया । और संघर्ष बड़ा मूल्यवान है । क्योंकि मां बाप से बच्चों को पहली दफा प्रेम की खबर मिलती थी । वह विषाक्त हो गई ।
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