सोमवार, नवंबर 21, 2011

व्यवस्था सिखा रही है कि घृणा ईर्ष्या करो



मेरी दृष्टि में कोई भी व्यक्ति ठीक अर्थों में शिक्षक तभी हो सकता है । जब उसमें विद्रोह की एक अत्यंत ज्वलंत अग्नि हो । जिस शिक्षक के भीतर विद्रोह की अग्नि नहीं है । वह केवल किसी न किसी निहित स्वार्थ का । चाहे समाज । चाहे धर्म । चाहे राजनीति । उसका एजेंट होगा । शिक्षक के भीतर एक ज्वलंत अग्नि होनी चाहिए । विद्रोह की । चिंतन की । सोचने की । लेकिन क्या हममें सोचने की अग्नि है । और अगर नहीं है । तो आप भी एक दुकानदार हैं । शिक्षक होना बड़ी और बात है । शिक्षक होने का मतलब क्या है ? क्या हम सोचते हैं । आप बच्चों को सिखाते होंगे । सारी दुनिया में सिखाया जाता है । बच्चों को । बच्चों को सिखाया जाता है । प्रेम करो । लेकिन कभी आपने विचार किया है कि आपकी पूरी शिक्षा की व्यवस्था प्रेम पर नहीं । प्रतियोगिता पर आधारित है । किताब में सिखाते हैं । प्रेम करो । और आपकी पूरी व्यवस्था । पूरा इंतजाम प्रतियोगिता का है ।
जहां प्रतियोगिता है । वहां प्रेम कैसे हो सकता है । जहां काम्पिटीशन है । प्रतिस्पर्धा है । वहां प्रेम कैसे हो सकता है । प्रतिस्पर्धा तो ईर्ष्या का रूप है । जलन का रूप है । पूरी व्यवस्था तो जलन सिखाती है । एक बच्चा प्रथम आ जाता है । तो दूसरे बच्चों से कहते हैं कि देखो तुम पीछे रह गए । और यह पहले आ गया । आप क्या सिखा रहे हैं ? आप सिखा रहे हैं कि इससे ईर्ष्या करो । प्रतिस्पर्धा करो । इसको पीछे करो । तुम आगे आओ । आप क्या सिखा रहे हैं ? आप अहंकार सिखा रहे हैं कि जो आगे है । वह बड़ा है । जो पीछे है । वह छोटा है । लेकिन किताबों में आप कह रहे हैं कि विनीत बनो । और किताबों में आप समझा रहे हैं कि प्रेम करो । और आपकी पूरी व्यवस्था सिखा रही है कि घृणा करो । ईर्ष्या करो । आगे निकलो । दूसरे को पीछे हटाओ । और आपकी पूरी व्यवस्था उनको पुरस्कृत कर रही है । जो आगे आ रहे हैं । उनको गोल्ड मेडल दे रही है । उनको सर्टिफिकेट दे रही है । उनके गलों में मालाएं पहना रही है । उनके फोटो छाप रही है । और जो पीछे खड़े हैं । उनको अपमानित कर रही है । तो जब आप पीछे खड़े आदमी को अपमानित करते हैं । तो क्या आप उसके अहंकार को चोट नहीं पहुंचाते कि वह आगे हो जाए ? और जब आगे खड़े आदमी को आप सम्मानित करते हैं । तो क्या आप उसके अहंकार को प्रबल नहीं करते हैं ? क्या आप उसके अहंकार को नहीं फुसलाते । और बड़ा करते हैं ? और जब ये बच्चे इस भांति अहंकार में । ईर्ष्या में । प्रतिस्पर्धा में पाले जाते हैं । तो यह कैसे प्रेम कर सकते हैं । प्रेम का हमेशा मतलब होता है कि जिसे हम प्रेम करते हैं । उसे आगे जाने दें । प्रेम का हमेशा मतलब है । पीछे खड़े हो जाना ।
एक छोटी सी कहानी कहूं । उससे खयाल में आए । तीन सूफी फकीरों को फांसी दी जा रही थी । और दुनिया में हमेशा धार्मिक आदमी संतों के खिलाफ रहे हैं । तो धार्मिक लोग उन फकीरों को फांसी दे रहे थे । तीन फकीर बैठे हुए थे । कतार में । जल्लाद एक एक का नाम बुलाएगा । और उनको काट देगा । उसने चिल्लाया कि - नूरी कौन है । उठकर आ जाए । लेकिन नूरी नाम का आदमी तो नहीं उठा । एक दूसरा युवक उठा । और वह बोला कि - मैं तैयार हूं । मुझे काट देंगे । उसने कहा । लेकिन तेरा तो नाम यह नहीं है । इतनी मरने की क्या जल्दी है ? उसने कहा । मैंने प्रेम किया । और जाना कि जब मरना हो । तो आगे हो जाओ । और जब जीना हो । तो पीछे हो जाओ । मेरा मित्र मरे । उसके पहले मुझे मर जाना चाहिए । और अगर जीने का सवाल हो । तो मेरा मित्र जीए । उसके पीछे मुझे जीना चाहिए ।
प्रेम तो यही कहता है । लेकिन प्रतियोगिता क्या कहती है ? प्रतियोगिता कहती है । मरने वाले के पीछे हो जाना । और जीने वाले के आगे हो जाना । और हमारी शिक्षा क्या सिखाती है ? प्रेम सिखाती है । या प्रतियोगिता सिखाती है ? और जब सारी दुनिया में प्रतियोगिता सिखाई जाती हो । और बच्चों के दिमाग में काम्पिटीशन और एंबीशन का जहर भरा जाता हो । तो क्या दुनिया अच्छी हो सकती है ? जब हर बच्चा हर दूसरे बच्चे से आगे निकलने के लिए प्रयत्नशील हो । और जब हर बच्चा हर बच्चे को पीछे छोड़ने के लिए उत्सुक हो । 20 साल की शिक्षा के बाद जिंदगी में वह क्या करेगा ? यही करेगा । जो सीखेगा । वही करेगा । हर आदमी हर दूसरे आदमी को खींच रहा है कि पीछे आ जाओ । नीचे के चपरासी से लेकर ऊपर के राष्ट्रपति तक । हर आदमी एक दूसरे को खींच रहा है कि पीछे आ जाओ । और जब कोई खींचते खींचते चपरासी राष्ट्रपति हो जाता है । तो हम कहते हैं । बड़ी गौरव की बात हो गई । हालांकि किसी को पीछे करके आगे होने से बड़ा हीनता का । हिंसा का कोई काम नहीं है । लेकिन यह वायलेंस हम सिखा रहे हैं । यह हिंसा हम सिखा रहे हैं । और इसको हम कहते हैं । यह शिक्षा है । अगर इस शिक्षा पर आधारित दुनिया में युद्ध होते हों । तो आश्चर्य कैसा । अगर इस शिक्षा पर आधारित दुनिया में रोज लड़ाई होती हो । रोज हत्या होती हो । तो आश्चर्य कैसा । अगर इस शिक्षा पर आधारित दुनिया में झोपड़ों के करीब बड़े महल खड़े होते हों । और उन झोपड़ों में मरते लोगों के करीब भी लोग अपने महलों में खुश रहते हों । तो आश्चर्य कैसा । इस दुनिया में भूखे लोग हों । और ऐसे लोग हों । जिनके पास इतना है कि क्या करें । उनकी समझ में नहीं आता । यह इस शिक्षा की बदौलत है । यह इस शिक्षा का परिणाम है । यह दुनिया इस शिक्षा से पैदा हो रही है । और शिक्षक इसके लिए जिम्मेवार है । और शिक्षक की नासमझी इसके लिए जिम्मेवार है । वह शोषण का हथियार बना हुआ है । वह हजार तरह के स्वार्थों का हथियार बना हुआ है । इस नाम पर कि वह शिक्षा दे रहा है । बच्चों को शिक्षा दे रहा है । अगर यही शिक्षा है । तो भगवान करे कि सारी शिक्षा बंद हो जाए । तो भी आदमी इससे बेहतर हो सकता है । जंगली आदमी शिक्षित आदमी से बेहतर है । उसमें ज्यादा प्रेम है । और कम प्रतिस्पर्धा है । उसमें ज्यादा हृदय है । और कम मस्तिष्क है । लेकिन इससे बेहतर वह आदमी है । लेकिन हम इसको शिक्षा कह रहे हैं । और हम करीब करीब जिन जिन बातों को कहते हैं कि तुम यह करना । उनसे उलटी बातें हम । पूरा सरंजाम हमारा । उलटी बातें सिखाता है ।
ज्ञान के लिए पिपासा है । कितनी प्यास है ? प्रत्येक में देखता हूं । कुछ भीतर प्रज्ज्वलित है । जो शांत होना चाहता है । और मनुष्य कितनी दिशाओं में खोजता है । शायद अनंत जन्मों से । उसकी यह खोज चली आ रही है । पर हर चरण पर निराशा के अतिरिक्त और कुछ भी हाथ नहीं आता है । कोई रास्ता पहुंचता हुआ नहीं दिखता है । क्या रास्ते कहीं भी नहीं ले जाते हैं ? इस प्रश्न का उत्तर नहीं देना है । जीवन स्वयं इसका उत्तर है । क्या अनंत मार्गो और दिशाओं में चलकर उत्तर नहीं मिल गया है ? बौद्धिक उत्तर खोजने में । उसके धुएं में । वास्तविक उत्तर खो जाता है । बुद्धि चुप हो । तो अनुभूति बोलती है । विचार मौन हों । तो विवेक जाग्रत होता है । वस्तुत: जीवन के आधारभूत प्रश्नों के उत्तर नहीं होते हैं । समस्याएं हल नहीं होती हैं । गिर जाती हैं । केवल पूछने और शून्य हो जाने की बात है । बुद्धि केवल पूछ सकती है । समाधान उससे नहीं शून्य से आता है । समाधान शून्य से आता है ।  इसी सत्य को जानते ही एक नये आयाम पर जीवन का उद्घाटन प्रारंभ हो जाता है । चित्त की इसी स्थिति का नाम समाधि है । पूछें । और चुप हो जाएं । बिलकुल चुप । और समाधान को आने दें । उसे फलने दें । चित्त की इस निस्तरंग स्थिति में दर्शन होता है । उसका जो है । जो मैं हूं । स्वयं को जाने बिना ज्ञान की प्यास नहीं मिटती है । सब मार्ग छोड़कर स्वयं पर पहुंचना होता है । चित्त जब किसी मार्ग पर नहीं है । तब स्वयं में है । और स्वयं को जानना ज्ञान है । शेष सब जानकारी है । क्योंकि परोक्ष है । विज्ञान ज्ञान नहीं है । वह सत्य को नहीं । केवल उपयोगिता को जानना है । सत्य केवल अपरोक्ष ही जाना जा सकता है । और ऐसी सत्ता केवल स्वयं की ही है । जो कि अपरोक्ष जानी जा सकती है । चित्त जिस क्षण खोज की व्यर्थता को जानकर चुप और थिर रह जाता है । उसी क्षण अनंत के द्वार खुल जाते हैं । दिशा शून्य चेतना । प्रभु में विराजमान हो जाती है । और ज्ञान की प्यास का अंत केवल प्रभु में ही है ।

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