गुरुवार, अगस्त 12, 2010

आत्मा ही सबका जानने वाला है ।




मैं ही ब्रह्म हूं । इस बात का सही ग्यान होने से मनुष्य को मोक्ष की प्राप्ति होती है । मैं और ब्रह्म इन दोनोंपदों ( स्थित ) का सही अर्थ पता चलने पर सत्य बोध होता है । एक अहम शब्द ( मैं ) से शरीर और दूसरे से आत्मा का बोध करना है । इन दोनो का एक हो जाना ही खुद को जानना है । ग्यान से अग्यान की निवृति होती है । उस निवृति या स्थिति के बाद प्राणी की जो परम लक्ष्य से एकता की स्थिति बनती है । वही मुक्ति है । यह तो निश्चित है कि परमात्मा है । बस उसको जानना ही है । उसी परमात्मा से आकाश । आकाश से वायु । वायु से अग्नि । अग्नि से जल । जल से प्रथ्वी की उत्पत्ति हुयी है । जो इस जगत का हेतु कारक है । इसके बाद सत्रह तत्व उत्पन्न हुये । हाथ पैर वाणी लिंग गुदा ये पांच कर्म इन्द्रियां हैं । आंख कान नाक त्वचा तथा जीभ ये पांच ग्यान इन्द्रियां हैं । प्राण अपान समान उदान व्यान नाम के पांच वायु होते हैं । मन बुद्धि चित्त अहम ये चार मिलकर अंतःकरण होता है । जिसमें मन संदेही होता है । बुद्धि निश्चयात्मक होती है । इसका स्वरूप सूक्ष्म होता है । आत्मा के रूप में भगवान हिरण्यगर्भ अंतकरण में रहते हैं । वही जीवात्मा हैं । इस प्रकार इस समस्त प्रपंच से परे उस परमात्मा के द्वारा पांच महाभूतों से बने शरीर की उत्पत्ति होती है । उन्ही महाभूतों से ब्रह्माण्ड की रचना भी हुयी । जिस शरीर को हम जानते हैं । इसको स्थूल शरीर कहते है ।यह आवरण है पांच तत्वों से बना दूसरा सूक्ष्म शरीर है ।
जिस प्रकार जल मे सूर्य की छाया पडती है । उस तरह से बेर के समान उसकी आकृति होती है । तब जीव स्वरूप होकर वह ब्रह्म प्राण आदि से संयुक्त होकर शरीर तत्वों को धारण करता है । जाग्रति । सुषुप्ति । स्वप्न अवस्था के
कार्यों को जानने वाला तथा साक्षी हुआ जो है । उसको जीव माना गया है । इस तुरीया से हटकर वह ब्रह्म अपने निर्गुण स्वभाव में रहता है । इस क्रियाशील शरीर के साथ रहने अथवा न रहने पर भी वह हमेशा शुद्ध स्वभाव वाला है । उसमें कैसा भी विकार नहीं होता । जागना सोना और स्वप्न इन तीन अवस्थाओं के कारण ही परमात्मा को तीन प्रकार का मान लिया जाता है । वह अंतकरण में स्थित रहता है और तुरीया की इन तीन अवस्थाओं में इन्द्रियों की क्रियाओं को देखता हुआ विकारयुक्त हो जाता है । इन्द्रियों के द्वारा शब्द रूप रस गन्ध स्पर्श इन पांच विषयों का जब मनुष्य को सत्य रूप ग्यान होता है । उसे जागना कहते हैं ।
सोना और स्वप्न की स्थिति में विषय की अपेक्षा में कार्य हेतु साधन की चिंता में बुद्धि एकाग्र हो जाती है । इसके आगे कारण अवस्था में ब्रह्म की स्थिति है । इस प्रकार यह आत्मा काल के वश में होने के कारण जीवात्मा बनकर शरीर स्वरूप होकर रहता है । किसी भी साधक को समाधि आदि ग्यान आरम्भ करने से पूर्व उस परम लक्ष्य की धारणा चित्त में बनानी होगी । इसके बाद मोक्ष के इच्छुक साधु को पंच तत्वों के शरीर में फ़ंसे उस क्षेत्रग्य जीवात्मा को शरीर से अलग ही मानना चाहिये । क्योंकि आत्मतत्व को शरीर से अलग न मानने पर ब्रह्म तत्व से साक्षात्कार करने में अनेक बाधायें होती हैं । अतः उन बाधाओ को दूर करना ही होता है । जो संसार की विषय वासनाओं से उत्पन्न हैं । उस स्थित में समस्त को शून्य कर देना होता है । यह पांच तत्वों का शरीर घडे के समान है । इसको घट कहा गया है । जैसे घट के अन्दर जो आकाश है । उसे घटाकाश कहा जाता है । किन्तु उस भ्रम को हटा दिया जाय । तो वह समग्र दिखाई देता है ।
यही उदाहरण जीवात्मा के मोक्ष मार्ग पर लागू होता है । मोक्ष की साधना में उसे शरीर से ( खुद को ) अलग की धारणा करनी ही होती है । जिससे वह बंधा हुआ है । उसे ग्यान द्वारा भ्रम को खत्म करना होता है । यही सत्य है । अष्टांग योग से समाधि के द्वारा या संत मत के सुरती शब्द योग द्वारा मनुष्य के लिये आत्म कल्याण सम्भव है । स्वयं का आत्म कल्याण कर लेना ही परम कल्याण है । इस ग्यान से बडा और बेहतर फ़िर कुछ भी नहीं है । आत्मा देह रहित रूप रहित इन्द्रियों से परे है । ये आत्मा स्वयं प्रकाशित है । आंख कान आदि इन्द्रियां स्वयं को भी नहीं जान सकती । परन्तु आत्मा ही सबका जानने वाला है । जब आत्मा योग ध्यान के द्वारा विकार रहित होकर ह्रदय पटल पर प्रकाशित होता है । तो जीव के सारे पापकर्म नष्ट हो जाते हैं । और ग्यान उत्पन्न होता है । जैसे दर्पण में निगाह डालने पर अपने को देख पाते हैं ।
वैसे ही आत्मा को देखने पर इन्द्रियों । इन्द्रियों के विषय । पांच महाभूत । आदि समस्त को आराम से देखा जा सकता है । जिस तरह हम दृष्य जगत को देखते हैं । मन बुद्धि चित्त अहंकार और अव्यक्त पुरुष अथवा चेतन । इन सभी का ग्यान करके संसार बंधन से मुक्त हुआ जा सकता है । सभी इन्द्रियो को मन में स्थापित करें । मन को अहम में । अहम को बुद्धि में । बुद्धि को प्रकृति में । प्रकृति को पुरुष में । और पुरुष को पारब्रह्म में विलीन किया जाता है । इस प्रकार ग्यान ज्योति का प्रकाश होता है । और वह मनुष्य मुक्त हो जाता है । इस प्रकार जो अपने को आंतरिक शरीर रूप और आत्मा से जान लेता है । वही श्रेष्ठ है । उसी ने जीवन का वास्तविक लक्ष्य पा लिया ।

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