गुरुवार, अगस्त 12, 2010

वह अपने जीवन काल में ही ब्रह्म स्वरूप हो जाता है ।



मृत्युलोक में जन्म लेने वाले प्राणी की मृत्यु निश्चित है । मरे हुये प्राणी के मुख से जीवात्मा वायु का सूक्ष्म रूप धारण करके निकल जाता है । लोगों के नेत्र कान नाक आदि नौ द्वारों तथा तालु रन्ध्र से भी जीवात्मा
अंतिम गति के अनुसार बाहर जाता है । नरक को प्राप्त होने वालों का जीवात्मा गुदा मार्ग से निकलता है । प्राण्वायु के निकलते ही शरीर कटे पेड के समान निराधार होकर गिर जाता है । और उसके तत्व अपने
अपने तत्व में जाकर मिल जाते हैं । काम क्रोध आदि विकार और पांच इन्द्रियों का समूह शरीर में चोर के समान रहता है । इसी शरीर में अहंकार युक्त मन भी रहता है । वही सबका नायक या नेता है । तब विभिन्न पाप पुन्य से संयुक्त होने पर काल उसको मार डालता है । संसार में भोग के लिये शरीर का निर्माण जीव के कर्म अनुसार होता है । मनुष्य अपने सतकर्म और दुष्कर्म के अनुसार ही दूसरे शरीर को प्राप्त होता है । शरीर में विधमान धातुयें माता पिता से प्राप्त होती हैं । इन्हीं से निर्मित ये शरीर षाटकोशिक यानी छह कोशो। से निर्मित त्वचा रक्त । मांस । मेदा । मज्जा । अस्थि । होता है । शरीर में सभी प्रकार के वायु रहते हैं । मूत्र । पुरीष तथा उन्हीं के योग से उत्पन्न अन्य व्याधियां भी रहती हैं । पुरुष का शरीर छोटी बडी नसों से बंधा हुआ एक स्तम्भ के समान है । जिसके नीचे पैर रूपी दो अन्य स्तम्भ होते हैं । पांच इन्द्रियों सहित इसमें नौ द्वार हैं । सांसारिक विषयों से युक्त काम क्रोध से घिरा हुआ बैचेन जीव इस शरीर में रहता है । राग द्वेष से व्याप्त यह शरीर तृष्णा का दुस्तर किला है । अनेकों लोभ से भरे हुये जीव का यह शरीर पुर है । इसी शरीर में सभी देवता और चौदह लोक स्थित हैं । इसी तरह के सब शरीर हैं । जो लोग अपने को इस तरह से नहीं जान पाते । वे निसंदेह पशु के समान ही हैं । इस संसार में तीन अग्नि । तीन लोक । तीन वेद । तीन देवता । तीन काल । तीन संधिया । तीन वर्ण । तथा तीन शक्तियां मानी गयी हैं । मनुष्य के शरीर में पैर से ऊपर कमर तक ब्रह्मा का निवास है । नाभि से गर्दन तक हरि या विष्णु का वास है ।
मुख से मस्तक तक महादेव का वास है । इस संसार में जो प्राणी आत्मा के अधीन होकर रहता है । वह निश्चित ही सब प्रकार से सुखी है । शब्द स्पर्श रूप रस गन्ध ये पांच विषय हैं । इनके वश में रहने वाला सदैव दुखी रहता है । हिरन शब्द । हाथी स्पर्श । पतंगा रूप । भंवरा गन्ध । मछली रस ।
ये जीव एक ही विषय के सेवन से मारे जाते हैं । तो मनुष्य को तो ये पांचों एक साथ लगे हुये हैं । मनुष्य बाल अवस्था में माता पिता के अधीन । युवावस्था में स्त्री के अधीन । और बुडापा या अन्त समय पुत्र पौत्र के मोह अधीन हो जाता है । और वह मूर्ख किसी भी अवस्था में आत्मा के अधीन नहीं रहता और अन्त में दुर्गति को प्राप्त
होता है । प्राणी मृत्यु के बाद तुरन्त भी दूसरे शरीर में प्रविष्ट हो सकता है और बिलम्ब से भी हो सकता
है । शरीर के अन्दर जो धुंआ रहित ज्योति के समान ( जिसको अक्षर पुरुष कहते हैं यही सभी शरीरों को धारण करता है । सारे शरीर इसी ज्योति पर बनते हैं । ) जीवात्मा विधमान रहता है । वह मृत्यु के तुरन्त बाद वायवीय शरीर धारण कर लेता है । उस एक शरीर में प्रविष्ट होते हुये प्राणी के कालक्रम भोजन या गुण संक्रमण की जो स्थित है । उसे मूर्ख नहीं अपितु ग्यानी व्यक्ति ही देख पाते हैं । विद्वान इसको अतिवाहक वायवीय शरीर कहते हैं । भूत प्रेत पिशाचों का शरीर तथा मनुष्यों का पिन्डज शरीर भी ऐसा ही होता है । पुत्र आदि के द्वारा जो पिन्डदान दिया जाता है । उस पिन्डज शरीर से वायवीय शरीर एकाकार हो जाते हैं । इसके अलावा कोई कोई जीवात्मा बिलम्ब से भी दूसरा शरीर प्राप्त करता है । क्योंकि मृत्यु के बाद वह अपने कर्म अनुसार यमलोक को जाता है । और चित्रगुप्त के आदेश अनुसार नरक भोगता है । वहां की यातनाओं को भोगने के बाद उसे पशु पक्षी आदि की योनि प्राप्त होती है । जीव जिस शरीर को पाता है । उसी शरीर से मोह ममता करने लगता है । लेकिन सतकर्म से जिसने अपने कालुष्य को नष्ट कर दिया है । और जो भक्ति में लगा रहता है । जो शब्द रूप रस आदि विषयों का त्याग कर देता है ।
जो राग द्वेष छोडकर विरक्त सेवाभाव वाला । और जैसा भी भोजन मिले उससे संतुष्ट रहता है । जिसका मन वाणी शरीर संयमित है । जो वैरागी सा नित ध्यान योग में अधिक तत्पर रहता है । जो अहंकार बल दर्प काम क्रोध परिग्रह इन छह विकारों का त्याग करके निर्भय और शान्त हो जाता है । वह अपने जीवन काल में ही ब्रह्म स्वरूप हो जाता है । और इसके बाद उस श्रेष्ठ मनुष्य के लिये कुछ भी करना शेष नहीं रहता । क्या इसमें कोई संशय है ? अर्थात इसमें कोई संशय नहीं है ।

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