कुएं का जल । वट वृक्ष की छाया । सर्दी में गरम । तथा गरमी में शीतल होते है । तैल मर्दन और सुन्दर भोजन ये शरीर में बल का संचार करते हैं । किन्तु मार्ग गमन । सम्भोग । और ज्वर ये सधः पुरुष का भी
बल हर लेते हैं । गन्दे कपडे पहनने वाला । दांत साफ़ न करने वाला । अधिक भोजन करने वाला । कठोर वचन बोलने वाला । सूर्योदय तथा सूर्यास्त के समय सोने वाला । लक्ष्मी इनका शीघ्र साथ छोड देती हैं ।
नाखून से तिनका छेदने वाला । प्रथ्वी पर लिखने वाला । पैर न धोने वाला । नग्न होकर सोने वाला ।
अधिक परिहास करने वाला । अपने अंग ( शरीर ) पर या आसन पर बाजा बजाने वाला । इनको लक्ष्मी त्याग देती है । लेकिन सिर को धोकर स्वच्छ रखने वाला । अपने चरणों को धोने वाला । अल्प भोजन करने वाला । नग्न शयन न करने वाला । पर्व रहित दिवसों में ही स्त्री सम्भोग करने वाला । वैश्या गमन से दूर रहने वाला । इनकी चिरकाल से नष्ट हुयी लक्ष्मी भी शीघ्र लौट आती है । बाल सूर्य का तेज । चिता का धुंआ । वृद्ध स्त्री । बासी दही । और झाडू की धूल का सेवन लम्बी आयु की इच्छा रखने वाले को नहीं करना चाहिये । सूप फ़टकने से निकली वायु । नाखून का जल । स्नान आदि के बाद वस्त्र से निचोडा गया जल । बालों से गिरता हुआ जल । तथा झाडू की धूल मनुष्य के पूर्व जन्म के अर्जित पुण्य को भी नष्ट कर देते हैं । स्त्री । राजा । अग्नि । सर्प । स्वाध्याय । शत्रु की सेवा । भोग और आस्वाद में कौन ऐसा बुद्धिमान होगा । जो विश्वास करेगा । अविश्वसनीय पर विश्वास । और विश्वस्त प्राणी पर अधिक विश्वास । नहीं करना चाहिये । क्योकि विश्वास से जो भय उत्पन्न होता है । वह मनुष्य को समूल नष्ट कर देता है । प्राणी को अत्यन्त सरल अथवा अत्यन्त कठोर भी नही होना चाहिये । क्योंकि सरल स्वभाव से सरल और कठोर स्वभाव से कठोर शत्रु को नष्ट किया जा सकता है । अत्यन्त सरल तथा कोमल नहीं होना चाहिये । सरल अर्थात सीधे वृक्ष ही काटे जाते हैं । टेडे तो आराम से खडे रहते हैं । फ़ल से परिपूर्ण वृक्ष एवं गुण्वान व्यक्ति विनम्र हो जाते हैं । किन्तु सूखे वृक्ष और मूर्ख मनुष्य टूट तो सकते हैं पर झुक नहीं सकते । जिस प्रकार दुख बिना मांगे जीवन में आते हैं और चले जाते हैं । उसी प्रकार सुख की भी यही स्थिति है । छह कानों तक पहुंची हुयी गुप्त मन्त्रणा भी नष्ट हो जाती है । अतः मन्त्रणा को चार कानों तक ही सीमित करना चाहिये ।
दो कानों तक रहने वाली मन्त्रणा को तो ब्रह्मा भी जानने में समर्थ नही होता । मनुष्य को पांच वर्ष तक पुत्र का पालन प्यार से करना चाहिये । दस वर्ष तक उसे अनुशासित करना चाहिये । तथा सोलह वरस की आयु में उससे मित्रवत व्यवहार करना चाहिये । कुछ बाघ हिरन के समान मुंह वाले होते हैं । कुछ हिरन बाघ के समान मुंह वाले होते हैं । उनके वास्तविक स्वरूप पर अविश्वास ही बना रहता है । इसलिये बाह्य आकृति से व्यक्ति की अन्तः प्रवृति को नहीं जानना चाहिये । क्षमाशील व्यक्ति में एक ही दोष है । उसमें दूसरा दोष नहीं होता । दोष ये है । जो क्षमाशील होते हैं । मनुष्य उनको अशक्त या असमर्थ मानता है ।
कम शक्तिशाली वस्तुओं का संगठन भी अत्यधिक शक्ति सम्पन्न हो जाता है । जिस प्रकार तिनकों से बटकर
बनायी गयी रस्सी से शक्तिशाली हाथी बांध लिया जाता है । मनुष्य को भूलकर भी दुष्ट एवं छोटे शत्रु की
भी अपेक्षा नहीं करनी चाहिये । क्योंकि भली प्रकार से न बुझायी आग संसार को भस्म कर सकती है ।
जो नयी उमर अथवा युवावस्था में शान्त रहता है । वही वास्तव मे शान्त है । क्योकि धातु क्षय और
सब प्रकार की शक्तियां समाप्त हो जाने पर तो सभी स्वत शान्त हो जाते हैं ।
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