गुरुवार, अगस्त 12, 2010

अनात्मा में आत्मा का और असत में सत का दर्शन होता है ।




जिस तरह गाय के शरीर में घी होता है । पर वह घी गाय को किसी प्रकार का लाभ नहीं देता । परन्तु उसी घी को दूध आदि क्रिया द्वारा निकाल लेने पर विधपूर्वक प्रयोग करने पर वह घी महा बल देने वाला हो जाता है । उसी प्रकार परमात्मा हर घट में है । लेकिन उसको जाने बिना कोई लाभ होने वाला नहीं हैं । हर घट तेरा सांईया सेज न सूनी कोय । बलिहारी उन घटन की जिन घट परगट होय । इसलिये जो योग रूपी फ़ल को प्राप्त करना चाहते हैं । उनके लिये कर्म ग्यान आवश्यक है । किन्तु जो इस मार्ग पर आगे बड चुके हैं । उनके लिये त्याग वैराग्य और ग्यान ही महत्वपूर्ण है । लेकिन जो शब्द रूप रस आदि विषयों को जानने का इच्छुक है । उसमें राग द्वेष आदि विकार उत्पन्न हो जाते है । और फ़िर वह जीव काम क्रोध लोभ मोह के वशीभूत होकर पापाचार करने लगता है । और कालपाश में जकडता जाता है । जिसके हाथ । उपस्थ ( लिंग ) उदर । और वाणी ये चार संयमित हो गये हैं । उसको ब्राह्मण कहा जाता है । जो दूसरों का धन नहीं लेता । हिंसा नहीं करता । जुआ आदि निन्दित कर्म नही करता । उसके हाथ संयत हैं । जो अन्य स्त्रियों के प्रति किसी भी प्रकार की काम भावना नही रखता । उसका लिंग संयम है । जो शरीर पूर्ति हेतु उचित भोजन करते हैं । उनका उदर संयत हैं । जो सत्य और दूसरों के हित के लिये सीमित बोलते हैं । उनकी वाणी संयमित है । मन बुद्धि और इन्द्रियों की एकता होकर सदा ध्येय तत्व में लगे रहना ध्यान कहलाता है ।
यह ध्यान दो प्रकार का होता है । पहला सबीज और दूसरा निर्बीज । चिन्तन की मूल ताकत बुद्धि दोनों भोंहों के बीच में रहती है । यदि जीव बुद्धि को संसार के विषय में लगाये रहता है । तो ये जाग्रत अवस्था या मनुष्य का जागना ( सामान्य ) कहलाता है । लेकिन जब इन्द्रियां निचेष्ट हो जाती हैं । और केवल मन की चंचलता ही शेष रहती है । और जीव बाहरी और आन्तरिक विषयों को केवल स्वप्न में देखता है । इसको स्वप्न अवस्था कहते हैं । तीसरी सुषुप्ति की स्थिति में मन ह्रदय में स्थित होकर तमोगुण से मोहित हुआ कुछ भी याद नहीं कर पाता । उसको ही सोना कहते हैं । यहीं पर और इसी स्थिति में जो जागना जान जाता है । उसको योगी या तुरीयातीत कहते हैं । जिसने अपनी इन्द्रियों मन आदि को वश में कर लिया है । वह शरीर की जाग्रत अवस्था में भी योगी ही है । अर्थात उस पर मोह लोभ आदि का प्रभाव नहीं होता और तब वह रूप रस गन्ध आदि पांच विषयों में आसक्त भी नहीं होता ।
योगी इन्द्रियों और मन को विषयों से खींचकर । बुद्धि के द्वारा अहंकार को । और प्रकृति के द्वारा बुद्धि को संयत कर के । चित्त शक्ति के द्वारा प्रकृति को भी संयत करके । केवल आत्म स्वरूप में स्थित हो जाता है और खुद को आत्मा ही जानता हुआ । आत्मा को ही देखता है । जीव का अतिम लक्ष्य केवल मुक्ति ही है । यह मुक्ति उसे तभी प्राप्त होती है । जब वह पुष्ट देने वाली तीन गुण वाली प्रकृति का भी त्याग कर देता है । कहिय तात सो परम वैरागी । तृण सम सिद्ध तीन गुन त्यागी । यह प्रकृति पुर्यष्टक कमल रूप माना गया है । संसार की अवस्था में जीव इसी कमल की कर्णिका में स्थित रहता है । इस कमल के आठ पत्ते शब्द रूप रस गन्ध स्पर्श सत रज तम हैं । चित्त की अस्थिरता । भ्रान्ति । दौर्मनस्य । प्रमाद ये योगियों के दोष कहे गये हैं । मुक्त होने पर अनात्मा में आत्मा का और असत में सत का दर्शन होता है । क्या इसमें कोई संशय है ? अर्थात इसमे कोई संशय नहीं है ।

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