हम पृथ्वी से केवल लेते हैं । उसे वापस कुछ नहीं लौटाते । प्रकृति 1 पूर्ण चक्र है । 1 हाथ से लो । तो दूसरे हाथ से दो । इस वर्तुल को तोड़ना ठीक नहीं है । लेकिन हम यही कर रहे हैं । सिर्फ लिये चले जा रहे हैं । इसीलिए सारे स्त्रोत सूखते जा रहे हैं । धरती विषाक्त होती जा रही है । नदियां प्रदूषित हो रही हैं । तालाब मर रहे हैं । हम पृथ्वी से अपना रिश्ता इस तरह से बिगाड़ रहे हैं कि future में इस पर रह नहीं पाएंगे । आधुनिक science का रवैया जीतने वाला है । वह सोचता है कि धरती और आकाश से दोस्ती कैसी । उस पर तो बस फतह हासिल करनी है । हमने कुदरत का 1 करिश्मा तोड़ा । किसी नदी का मुहाना मोड़ दिया । किसी पहाड़ का कुछ हिस्सा काट लिया । किसी प्रयोगशाला में 2-4 बूँद पानी बना लिया । और बस प्रकृति पर विजय हासिल कर ली । जैसे प्लास्टिक को देखो । उसे बनाकर सोचा । प्रकृति पर विजय हासिल कर ली । कमाल है । न जलता है । न गीला होता है । न जंग लगती है । महान उपलब्धि है । उपयोग के बाद उसे फेंक देना । कितना सुविधाजनक है । लेकिन मिट्टी प्लास्टिक को आत्मसात नहीं करती । 1 वृक्ष जमीन से उगता है । मनुष्य जमीन से उगता है । तुम वृक्ष को या मनुष्य को वापस जमीन में डाल दो । तो वह अपने मूलतत्वों में विलीन हो जाते हैं । लेकिन प्लास्टिक को आदमी ने बनाया है । उसे जमीन में गाड़ दो । और बरसों बाद खोदो । तो वैसा का वैसा ही पाओगे ।
america के आसपास समुद्र का पूरा तट प्लास्टिक के कचरों से भरा पड़ा है । और उससे लाखों मछलियां मर जाती हैं । उसने पानी को जहरीला कर दिया है । पानी की सजीवता मर गई । और यह खतरा बढ़ता जा रहा है कि दिन ब दिन और अधिक प्लास्टिक फेंका जाएगा । और पूरा जीवन मर जाएगा । पर्यावरण का अर्थ है । संपूर्ण का विचार करना । भारतीय मनीषा हमेशा पूर्ण का विचार करती है । पूर्णता का अहसास ही पर्यावरण है । सीमित दृष्टि पूर्णता का विचार नहीं कर सकती । 1 बढ़ई सिर्फ पेड़ के बारे में सोचता है । उसे लकड़ी की जानकारी है । पेड़ की और कोई उपयोगिता मालूम नहीं है । वे किस तरह बादलों को और बारिश को आकर्षित करते हैं । वे किस तरह मिट्टी को बांधकर रखते हैं । उसे तो अपनी लकड़ी से मतलब है । वैसी ही सीमित सोच लेकर हम अपने जंगलों को काटते चले गए । और अब भुगत रहे हैं । अब oxygen की कमी महसूस हो रही है । वृक्ष न होने से पूरा वातावरण ही अस्त व्यस्त होता जा रहा है । मौसम का क्रम बदलने लगा है । और फेफड़ों की बीमारियाँ बढ़ती जा रही हैं ।
सुना है कि पुराने जमाने में प्रशिया के राजा फ्रेडरिक ने 1 दिन देखा कि खेत खलिहानों में पक्षी आते हैं । और अनाज खा जाते हैं । वह सोचने लगा कि ये अदना से पंछी पूरे राज्य में लाखों दाने खा जाते होंगे । इसे रोकना होगा । तो उसने राज्य में ऐलान कर दिया कि जो भी पक्षियों को मारेगा । उसे इनाम दिया जाएगा । बस प्रशिया के सारे नागरिक शिकारी हो गए । और देखते ही देखते पूरा देश पक्षी विहीन हो गया । राजा बड़ा प्रसन्न हुआ । उत्सव मनाया उन्होंने प्रकृति पर विजय पा ली ।
पर अगले ही वर्ष गेहूँ की फसल नदारद थी । क्योंकि मिट्टी में जो कीड़े थे । और जो टिड्डियां थीं । उन्हें वे पक्षी खाते थे । और अनाज की रक्षा करते थे । इस बार उन्हें खाने वाले पंछी नहीं थे । सो उन्होंने पूरी फसल खा डाली । उसके बाद राजा को विदेशों से चिडि़याएँ मंगानी पड़ीं । यह सृष्टि परस्पर निर्भर है । उसे किसी भी चीज से खाली करने की कोशिश खतरनाक है । न हम निरंकुश स्वतंत्र हैं । और न परतंत्र हैं । यहाँ सब 1 दूसरे पर निर्भर हैं । पृथ्वी पर जो कुछ भी है । वह हमारे लिए सहोदर के समान है । हमें उन सबके साथ जीने का सलीका सीखना होगा । हम वस्तुओं के जगत में रहते हैं । न तो हम पदार्थ के जगत में रहते हैं । और न हम स्वर्ग के चेतना के जगत में रहते हैं । हम वस्तुओं के जगत में रहते हैं । इसे ठीक से अपने आसपास थोड़ी नजर फेंककर देखेंगे । तो समझ में आ सकेगा । हम वस्तुओं के जगत में रहते हैं । we live in things । ऐसा नहीं कि आपके घर में फर्नीचर है । इसलिए आप वस्तुओं में रहते हैं । मकान है । इसलिए वस्तुओं में रहते हैं । धन है । इसलिए वस्तुओं में रहते हैं । नहीं । फर्नीचर । मकान । और धन । और दरवाजे । और दीवारें । ये तो वस्तुएं हैं ही । लेकिन इन दीवार दरवाजों । इस फर्नीचर और वस्तुओं के बीच में जो लोग रहते हैं । वे भी करीब करीब वस्तुएं हो जाते हैं । मैं किसी को प्रेम करता हूं । तो चाहता हूं कि कल भी मेरा प्रेम कायम रहे । तो चाहता हूं कि - जिसने मुझे आज प्रेम दिया । वह कल भी मुझे प्रेम दे । अब कल का भरोसा सिर्फ वस्तु का किया जा सकता है । व्यक्ति का नहीं किया जा सकता । कल का भरोसा वस्तु का किया जा सकता है । कुर्सी मैंने जहां रखी थी । अपने कमरे में । कल भी वहीं मिल सकती है । प्रेडिक्टेबल है । उसकी भविष्यवाणी हो सकती है । और रिलायबल है । उस पर निर्भर रहा जा सकता है । क्योंकि मुर्दा कुर्सी की । अपनी कोई चेतना । अपनी कोई स्वतंत्रता नहीं है । लेकिन जिसे मैंने आज प्रेम किया । कल भी उसका प्रेम मुझे ऐसा ही मिलेगा । अगर व्यक्ति जीवंत है । और चेतना है । तो पक्का नहीं हुआ जा सकता । हो भी सकता है । न भी हो । लेकिन मैं चाहता हूं कि नहीं । कल भी यही हो । जो आज हुआ था । तो फिर मुझे कोशिश करनी पड़ेगी कि यह व्यक्ति को मिटाकर मैं वस्तु बना लूं । तो फिर रिलायबल हो जाएगा । तो फिर मैं अपने प्रेमी को पति बना लूं । या प्रेयसी को पत्नी बना लूं । कानून का समाज का सहारा ले लूं । और कल सुबह । जब मैं प्रेम की मांग करूं । तो वह पत्नी या वह पति इनकार न कर पाएगा । क्योंकि वादे तय हो गए हैं । समझौता हो गया है । सब सुनिश्चित हो गया है । अब मुझे इनकार करना । मुझे धोखा देना है । वह कर्तव्य से च्युत होना है । तो जिसे मैंने कल के प्रेम में बांधा । उसे मैंने वस्तु बनाया । और अगर उसने जरा सी भी चेतना दिखाई । और व्यक्तित्व दिखाया । तो अड़चन होगी । तो संघर्ष होगा । तो कलह होगी । इसलिए हमारे सारे संबंध कलह बन जाते हैं । क्योंकि हम व्यक्तियों से वस्तुओं जैसी अपेक्षा करते हैं । बहुत कोशिश करके भी कोई व्यक्ति वस्तु नहीं हो पाता । बहुत कोशिश करके भी नहीं हो पाता । हां कोशिश करता है । उससे जड़ होता चला जाता है । फिर भी नहीं हो पाता । थोड़ी चेतना भीतर जगती रहती है । वह उपद्रव करती रहती है । फिर सारा जीवन उस चेतना को दबाने । और उस पदार्थ को लादने की चेष्टा बनती है । और जिस व्यक्ति को भी मैंने दबाकर वस्तु बना दिया । या किसी ने दबाकर मुझे वस्तु बना दिया । तो 1 दूसरी दुर्घटना घटती है कि अगर सच में ही कोई बिलकुल वस्तु बन जाए । तो उससे प्रेम करने का अर्थ ही खो जाता है । कुर्सी से प्रेम करने का कोई अर्थ तो नहीं है । आनंद तो यही था कि वहां चैतन्य था । अब यह मनुष्य का डाइलेमा है । यह मनुष्य का द्वंद्व है कि वह चाहता है । व्यक्ति से ऐसा प्रेम । जैसा वस्तुओं से ही मिल सकता है । और वस्तुओं से प्रेम नहीं चाहता । क्योंकि वस्तुओं के प्रेम का क्या मतलब है ? 1 ऐसी ही असंभव संभावना । हमारे मन में दौड़ती रहती है कि व्यक्ति से ऐसा प्रेम मिले । जैसा वस्तु से मिलता है । यह असंभव है । अगर वह व्यक्ति व्यक्ति रहे । तो प्रेम असंभव हो जाएगा । और अगर वह व्यक्ति वस्तु बन जाए । तो हमारा रस खो जाएगा । दोनों ही स्थितियों में सिवा फ्रस्ट्रेशन और विषाद के कुछ हाथ न लगेगा । और हम सब एक दूसरे को वस्तु बनाने में लगे रहते हैं । हम जिसको परिवार कहते हैं । समाज कहते हैं । वह व्यक्तियों का समूह कम । वस्तुओं का संग्रह ज्यादा है । यह जो हमारी स्थिति है । इसके पीछे अगर हम खोजने जाएं । तो लाओत्से जो कहता है । वही घटना मिलेगी । असल में जहां है नाम । वहां व्यक्ति विलीन हो जाएगा । चेतना खो जाएगी । और वस्तु रह जाएगी । अगर मैंने किसी से इतना भी कहा कि मैं तुम्हारा प्रेमी हूं । तो मैं वस्तु बन गया । मैंने नाम दे दिया । एक जीवंत घटना को । जो अभी बढ़ती । और बड़ी होती । फैलती और नई होती । और पता नहीं । कैसी होती । कल क्या होता । नहीं कहा जा सकता था । मैंने दिया नाम । अब मैंने सीमा बांधी । अब मैं कल रोकूंगा । उससे अन्यथा न होने दूंगा । जो मैंने नाम दिया है । कल सुबह जब मेरे ऊपर क्रोध आएगा । तो मैं कहूंगा । मैं प्रेमी हूं । मुझे क्रोध नहीं करना चाहिए । तो मैं क्रोध को दबाऊंगा । और जब क्रोध आया हो । और क्रोध दबाया गया हो । तो जो प्रेम किया जाएगा । वह झूठा और थोथा हो जाएगा । और जो प्रेमी क्रोध करने में समर्थ नहीं है । वह प्रेम करने में असमर्थ हो जाएगा । क्योंकि जिसको मैं इतना अपना नहीं मान सकता कि उस पर क्रोध कर सकूं । उसको इतना भी कभी अपना न मान पाऊंगा कि उसे प्रेम कर सकूं । लेकिन मैंने कहा । मैं प्रेमी हूं । तो कल जो सुबह क्रोध आएगा । उसका क्या होगा अब ? उस वक्त मुझे धोखा देना पड़ेगा । या तो मैं क्रोध को पी जाऊं । दबा जाऊं । छिपा जाऊं । और ऊपर प्रेम को दिखलाए चला जाऊं । वह प्रेम झूठा होगा । क्रोध असली होगा । असली भीतर दबेगा । नकली ऊपर इकट्ठा होता चला जाएगा । तब फिर मैं एक झूठी वस्तु हो जाऊंगा । 1 व्यक्ति नहीं । और यह जो भीतर दबा हुआ क्रोध है । यह बदला लेगा । यह रोज रोज धक्के देगा । यह रोज रोज टूटकर बाहर आना चाहेगा । और तब स्वभावतः । जिसे प्रेम किया है । उससे ही घृणा निर्मित होगी । और जिसे चाहा है । उससे ही बचने की चेष्टा चलने लगेगी ।
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