शनिवार, मई 15, 2010

आदमी को उङाने वाली अंगूठी




आज इन तीन पंक्तियों के रहस्य की बात करते हैं ये तीन पंक्तियां प्राय हरेक ने ही सुनी होगी..पर ये देखें इनका वही अर्थ है जो आप अभी तक जानते रहे या अन्य ही है .
प्रभु मुद्रिका मेल मुख माहीं जलधि लांघ गयो अचरज नांही .
धारा तो बह रही है राधा नाम की . गोविंद जय जय गोपाल जय जय . राधा रमण हरि गोविंद जय जय
प्रभु मुद्रिका..हनुमान जी जब पहली बार विशाल सागर लांघकर सीता के पास पहुँचे तो सीता ने उन पर संशय किया कि ये रावण की कोई चाल न हो..उन्होने कहा कि माना यदि तुम राम के दूत हो भी..तो एक तो तुम्हारा छोटा सा शरीर है दूसरे तुम वानर हो..इस तरह तुमने लंका आने हेतु यह विशाल सागर किस तरह पार किया क्योंकि सीता की नजर में यह असंभव कार्य था तब हनुमान जी ने कहा कि प्रभु मुद्रिका मेल....अब देखिये आम तौर पर इसका ये अर्थ प्रचलन में है
कि राम के द्वारा सीता के लिये दी हुयी मुद्रिका या अंगूठी का ये कमाल था..जरा गौर करें ??
अगर अंगूठी से ही कोई उङकर आ सकता था तो फ़िर जो घंटो चयन हुआ कि कौन जाय कौन न जाय उसकी क्या आवश्यकता थी..दूसरी बात ये कमाल अगर अंगूठी का था तो अंगूठी तो हनुमान जी ने सीता को दे दी थी फ़िर वे वापस क्या श्रीलंका एयरवेज की फ़्लायट से आये थे ?
और गौर करें हनुमान जी ने कहा.. मेरे मुख में मुद्रिका..यहाँ किसी का भी संभावित तर्क हो सकता है कि वानर होने की वजह से " टेक केयर " उन्होनें मुद्रिका मुँह में रख ली कि खो न जाय जिस तरह आपने देखा होगा कि वानर अपने मुँह में चने आदि रख लेते हैं ..जरा ठहरें जो हनुमान जी कुछ ही देर में विशाल शरीर करके लंका को तहस नहस कर देते हैं उन्हें इस तरह मुद्रिका की हिफ़ाजत की आवश्यकता ही न थी..और सबसे बङी बात ये है कि उनके सागर पार जाने मेंउस अंगूठी का कोई रोल था ही नहीं..मगर मुद्रिका थी.
.दरअसल..हँस (की) ग्यान में पाँच मुद्रिकाएं होती है जिनके नाम चाचरी..खीचरी ..भूचरी..अगोचरी..आदि हैं ये इनमें से एक थी . ये मुद्रिकाएं सिद्ध हो जाने पर हवा में उङना ..शरीर का आकार छोटा ..बङा करना आदि..इस तरह की सिद्धि साधक में समा जाती है..पाँच अन्य मुद्रिकाएं परमहंसो की है
जिनके जिक्र का कोई लाभ नहीं..क्योंकि हंस ग्यान को प्राप्त करना भी बच्चों का खेल नहीं है धारा तो बह रही है राधा...प्राय इसका जो अर्थ प्रचलित है वो भगवान श्रीकृष्ण की प्रेयसी राधा के भक्तिभाव को दरशाता है..राधास्वामी मत के लोग राधा शब्द का अर्थ बखूबी जानते हैं वास्तव में राधा सुरति को कहते हैं ..र अक्षर के बारे में जिन्होनें मेरा लेख पढा होगा उन्हें यहाँ बात जल्दी समझ में आयेगी हाँ नये लोगों को उलझन होगी.. र चेतन है यह सकल ब्रह्माण्डों में गति का हेतुक है और इस तरह र्र्र्र्र्र्र्र्र्र्र्र्र्र्र्र्र्र्र्र्र्र्र्र्र्र्र्र्र्र्र्र्र्र्र्र्र्र्र का है
हम में आप में या कहीं कोई कैसी भी गति है इसी का करेंट है अ जीव भाव का मिथ्या परदा है इस तरह ये रा हो गया अगर आप शब्दों का धातु ग्यान जानते हैं तो धा में जो भी मिश्रण है वो दौङता है..इस तरह ये राधा हो गया...धारा तो बह रही है..का सीधा साधा अर्थ है ही..राधा का अर्थ मैंने बता दिया..अब धारा तो बह रही है राधा..
यहाँ तक की बात क्लियर हो गयी..नाम की..ये "नाम" ही वो परम शक्ति है जिसकी सत्ता सर्वत्र है यानी इससे बङी कोई शक्ति है ही नहीं...शंकर जी क्या कह रहें हैं सुनें
उमा कहउँ में अनुभव अपना सत हरि नाम जगत सब सपना..अब यहाँ ये मत समझ लेना कि वे विष्णु जी (हरि नाम ) की बात कर रहे हैं विष्णु जी तो उनके सगे मंझले भाई हैं सबसे बङे ब्रह्मा फ़िर विष्णु सबसे छोटे शंकर जी .वे उस "नामसत्ता" की बात कर रहे हैं जो इन नाम रूप सबसे परे है और सबका मालिक है..और वही सब है उसके अतिरिक्त और कोई है ही नहीं . ये स्वतः गुंजारित नाम आपके अन्दर भी है...अत सिद्ध हुआ" धारा तो बह रही है राधा नाम की.." इसका वास्तविक अर्थ है कि उस परम नाम की धारा सर्वत्र बह रही है और राधा याने सुरती उसमें रमण कर रही है .
अब गोविंद जय जय गोपाल जय जय . राधा रमण हरि गोविंद जय जय इसका अर्थ देखते हैं ..गोबिंद...गो याने इंद्रियां बिंद यानी बिंधा या बँधा हुआ..इंद्रियों से बिंधा या बँधा हुआ कौन है हमारा शरीर .तो गोबिंद का सही अर्थ शरीर हुआ..जय जय से क्या आशय है...अब जरा ध्यान से समझें.. शरीर तो मृतक अवस्था में भी होता है पर अर्थहीन होता है मिट्टी कहलाता है..तो जो इसमें बैठा है उसकी ही तो जय जय हो रही है...उससे ही शरीर का अर्थ है इसीलिये गोबिंद जय जय हो रही है..अब गोपाल जय जय..गो का अर्थ वही इंद्रियां पाल का अर्थ पालक (सब्जी न
समझ लेना ) या पालने वाला...जाहिर है जो बैठा है वही इंद्रियों को पाल रहा है ...राधा वही ऊपर बता चुका सुरती..रमण...याने रमना या गति करना या किसी भी तरह की स्फ़ुरणा कह सकते हैं स्फ़ुरणा का वास्तविक अर्थ बेहद रहस्यमय है ये केवल उच्च ग्यानियों के समझने का विषय है . अब हरि का अर्थ लें...साधारण अवस्था में हरि शब्द का अर्थ भगवान विष्णु से है और विष्णु की जिम्मेवारी जीवों के पालन पोषण आदि की व्यवस्था संभालना है..पर आत्मा के टेक्नीकल अध्ययन में हरि का अर्थ हरा भरा करने वाला है..बात एक ही है...एक प्रतीक है...दूसरा
क्रियात्मक घटक है..और समझें एक डी. एम. का नाम मान लो रामप्रसाद है..अब आप बात इस तरह कहतें हैं कि रामप्रसाद से काम कराया तो ये व्यक्ति बोधक हुआ..आप कहतें हैं कि डी. एम. से काम कराया तो ये उस पद या क्रिया का बोध कराता है जो उस समय रामप्रसाद के द्वारा हुयी . अब क्योंकि भगवान के डी. एम. या मिनिस्टर कोई हों वे जुदा जुदा नामों के नहीं हो सकते...विष्णु की कुर्सी पर बैठने वाला चाहे वह रामप्रसाद हो या प्यारेलाल उसकी
अपनी एक ही पहचान होगी विष्णु . तो हरि तक का अर्थ स्पष्ट हो गया..फ़िर शेष रहा गोबिंद जय जय..उसका अर्थ में बता ही चुका हूँ .
तो इस तरह आप " गोबिंद जय जय गोपाल जय जय राधा रमण हरि गोबिंद जय जय का वास्तविक अर्थ समझें..एक रूपक है..दूसरा आंतरिक या तकनीकी है..पर बात एक ही है . लेकिन आंतरिक को जानने से भेद भेद नहीं रहते हैं . इतना फ़र्क है .

1 टिप्पणी:

Balsadhvi Aruna devi ने कहा…

मैंने प्रायः यह देखा है कि ब्लागर्स भाई अथवा अन्य पाठक
अक्सर नई पोस्ट पढने में ही रुचि लेते हैं पर इस सम्बन्ध
में मैं एक बात कहना चाहता हूँ कोई महत्वपूर्ण पुरानी पोस्ट
जो आपने पढी नहीं आपके लिये नयी ही है और हो सकता
है उसमें वही विषयवस्तु हो जो आप खोज रहें हों इसलिये
किसी भी ब्लाग पर एक निगाह सभी शीर्षकों पर डालेंगे
तो हो सकता है आपको कोई दुर्लभ जानकारी मिल ही जाय
satguru-satykikhoj.blogspot.com

आपका स्वागत है

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सहज सरस मधुर मनोहर भावपूर्ण कथा कार्यक्रम हेतु सम्पर्क करें। ------------- बालसाध्वी सुश्री अरुणा देवी (देवीजी) (सरस कथावाचक, भागवताचार्य) आश्रम श्रीधाम, वृन्दावन (उत्तर प्रदेश) भारत सम्पर्क न. - 78953 91377 -------------------- Baalsadhvi Sushri Aruna Devi (Devi ji) (Saras Kathavachak, Bhagvatacharya) Aashram Shridham vrindavan (u. p) India Contact no - 78953 91377