शनिवार, मई 15, 2010

बालकाण्ड 3

tulasi das .. Ram Charit Manas..ramayan
story of the lord rama..king of ayodhya
बिष्नु जो सुर हित नरतनु धारी । सोउ सर्बग्य जथा त्रिपुरारी ॥
खोजइ सो कि अग्य इव नारी । ग्यानधाम श्रीपति असुरारी ॥
संभुगिरा पुनि मृषा न होई । सिव सर्बग्य जान सबु कोई ॥
अस संसय मन भयउ अपारा । होई न हृदय प्रबोध प्रचारा ॥
जद्यपि प्रगट न कहेउ भवानी । हर अंतरजामी सब जानी ॥
सुनहि सती तव नारि सुभाऊ । संसय अस न धरिअ उर काऊ
जासु कथा कुभंज रिषि गाई । भगति जासु मैं मुनिहि सुनाई ॥
सोउ मम इष्टदेव रघुबीरा । सेवत जाहि सदा मुनि धीरा ॥
राजीव कुमार कुलश्रेष्ठ
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मुनि धीर जोगी सिद्ध संतत बिमल मन जेहि ध्यावहीं ।
कहि नेति निगम पुरान आगम जासु कीरति गावहीं ॥
सोइ रामु ब्यापक ब्रह्म भुवन निकाय पति माया धनी ।
अवतरेउ अपने भगत हित निजतंत्र नित रघुकुलमनि ॥
लाग न उर उपदेसु जदपि कहेउ सिव बार बहु ।
बोले बिहसि महेसु हरिमाया बलु जानि जिय ॥
राजीव कुमार कुलश्रेष्ठ
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जो तुम्हरे मन अति संदेहू । तो किन जाइ परीछा लेहू ॥
तब लगि बैठ अहउ बटछाहिं । जब लगि तुम्ह ऐहहु मोहि पाहीं
जैसे जाइ मोह भ्रम भारी । करेहु सो जतनु बिबेक बिचारी ॥
चली सती सिव आयसु पाई । करहिं बिचारु करों का भाई ॥
इहाँ संभु अस मन अनुमाना । दच्छसुता कहुं नहिं कल्याना ॥
मोरेहु कहें न संसय जाहीं । बिधि बिपरीत भलाई नाहीं ॥
होइहि सोइ जो राम रचि राखा । को करि तर्क बढ़ावे साखा ॥
अस कहि लगे जपन हरिनामा । गई सती जहँ प्रभु सुखधामा ॥
पुनि पुनि हृदय विचारु करि धरि सीता कर रुप ।
आगे होइ चलि पंथ तेहि जेहिं आवत नरभूप ॥
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लछिमन दीख उमाकृत बेषा। चकित भए भ्रम हृदय बिसेषा॥
कहि न सकत कछु अति गंभीरा। प्रभु प्रभाउ जानत मतिधीरा॥
सती कपटु जानेउ सुरस्वामी। सबदरसी सब अंतरजामी॥
सुमिरत जाहि मिटइ अग्याना। सोइ सरबग्य रामु भगवाना॥
सती कीन्ह चह तहंहु दुराऊ। देखहु नारि सुभाव प्रभाऊ॥
निज माया बलु हृदय बखानी। बोले बिहसि रामु मृदु बानी॥
जोरि पानि प्रभु कीन्ह प्रनामू। पिता समेत लीन्ह निज नामू॥
कहेउ बहोरि कहाँ बृषकेतू। बिपिन अकेलि फिरहु केहि हेतू॥
राम बचन मृदु गूढ़ सुनि उपजा अति संकोचु।
सती सभीत महेस पहिं चलीं हृदय बड़ सोचु॥
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मैं संकर कर कहा न माना। निज अग्यानु राम पर आना॥
जाइ उतरु अब देहउ काहा। उर उपजा अति दारुन दाहा॥
जाना राम सती दुखु पावा। निज प्रभाउ कछु प्रगटि जनावा॥
सती दीख कौतुकु मग जाता। आगे रामु सहित श्री भ्राता॥
फिरि चितवा पाछे प्रभु देखा। सहित बंधु सिय सुंदर वेषा॥
जहं चितवहिं तहं प्रभु आसीना। सेवहिं सिद्ध मुनीस प्रबीना॥
देखे सिव बिधि बिष्नु अनेका। अमित प्रभाउ एक तें एका॥
बंदत चरन करत प्रभु सेवा। बिबिध बेष देखे सब देवा॥
सती बिधात्री इंदिरा देखीं अमित अनूप।
जेहिं जेहिं बेष अजादि सुर तेहि तेहि तन अनुरूप॥
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देखे जहँ तहँ रघुपति जेते। सक्तिन्ह सहित सकल सुर तेते॥
जीव चराचर जो संसारा। देखे सकल अनेक प्रकारा॥
पूजहिं प्रभुहि देव बहु बेषा। राम रूप दूसर नहिं देखा॥
अवलोके रघुपति बहुतेरे। सीता सहित न बेष घनेरे॥
सोइ रघुबर सोइ लछिमनु सीता। देखि सती अति भई सभीता॥
हृदय कंप तन सुधि कछु नाहीं। नयन मूदि बैठीं मग माहीं॥
बहुरि बिलोकेउ नयन उघारी। कछु न दीख तहँ दच्छकुमारी॥
पुनि पुनि नाइ राम पद सीसा। चलीं तहाँ जहँ रहे गिरीसा॥
गई समीप महेस तब हंसि पूछी कुसलात।
लीन्हि परीछा कवन बिधि कहहु सत्य सब बात॥
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मासपारायण, दूसरा विश्राम
सती समुझि रघुबीर प्रभाऊ। भय बस सिव सन कीन्ह दुराऊ॥
कछु न परीछा लीन्हि गोसाईं। कीन्ह प्रनामु तुम्हारिहि नाईं॥
जो तुम्ह कहा सो मृषा न होई। मोरे मन प्रतीति अति सोई॥
तब संकर देखेउ धरि ध्याना। सती जो कीन्ह चरित सबु जाना॥
बहुरि राममायहि सिरु नावा। प्रेरि सतिहि जेहिं झूठ कहावा॥
हरि इच्छा भावी बलवाना। हृदय बिचारत संभु सुजाना॥
सती कीन्ह सीता कर बेषा। सिव उर भयउ बिषाद बिसेषा॥
जो अब करउं सती सन प्रीती। मिटइ भगति पथु होइ अनीती॥
परम पुनीत न जाइ तजि किए प्रेम बड़ पापु ।
प्रगटि न कहत महेसु कछु हृदय अधिक संतापु ॥
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तब संकर प्रभु पद सिरु नावा। सुमिरत रामु हृदय अस आवा॥
एहिं तन सतिहि भेट मोहि नाहीं। सिव संकल्पु कीन्ह मन माहीं॥
अस बिचारि संकरु मतिधीरा। चले भवन सुमिरत रघुबीरा॥
चलत गगन भै गिरा सुहाई। जय महेस भलि भगति दृढ़ाई॥
अस पन तुम्ह बिनु करइ को आना। रामभगत समरथ भगवाना॥
सुनि नभगिरा सती उर सोचा। पूछा सिवहि समेत सकोचा॥
कीन्ह कवन पन कहहु कृपाला। सत्यधाम प्रभु दीनदयाला॥
जदपि सती पूछा बहु भांती। तदपि न कहेउ त्रिपुर आराती॥
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सती हृदय अनुमान किय सबु जानेउ सर्बग्य।
कीन्ह कपटु मैं संभु सन नारि सहज जड़ अग्य ॥
जलु पय सरिस बिकाइ देखहु प्रीति कि रीति भलि ।
बिलग होइ रसु जाइ कपट खटाई परत पुनि ॥
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हृदय सोचु समुझत निज करनी। चिंता अमित जाइ नहि बरनी॥
कृपासिंधु सिव परम अगाधा। प्रगट न कहेउ मोर अपराधा॥
संकर रुख अवलोकि भवानी। प्रभु मोहि तजेउ हृदय अकुलानी॥
निज अघ समुझि न कछु कहि जाई। तपइ अवां इव उर अधिकाई॥
सतिहि ससोच जानि बृषकेतू। कहीं कथा सुंदर सुख हेतू॥
बरनत पंथ बिबिध इतिहासा। बिस्वनाथ पहुँचे कैलासा॥
तहँ पुनि संभु समुझि पन आपन। बैठे बट तर करि कमलासन॥
संकर सहज सरुप सम्हारा। लागि समाधि अखंड अपारा
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सती बसहि कैलास तब अधिक सोचु मन माहिं।
मरमु न कोऊ जान कछु जुग सम दिवस सिराहिं॥
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नित नव सोचु सती उर भारा। कब जैहउ दुख सागर पारा॥
मैं जो कीन्ह रघुपति अपमाना। पुनि पतिबचनु मृषा करि जाना॥
सो फलु मोहि बिधाता दीन्हा। जो कछु उचित रहा सोइ कीन्हा॥
अब बिधि अस बूझिअ नहिं तोही। संकर बिमुख जिआवसि मोही॥
कहि न जाई कछु हृदय गलानी। मन महुं रामहि सुमिर सयानी॥
जो प्रभु दीनदयालु कहावा। आरति हरन बेद जसु गावा॥
तो मैं बिनय करउ कर जोरी। छूटउ बेगि देह यह मोरी॥
जो मोरे सिव चरन सनेहू। मन क्रम बचन सत्य ब्रतु एहू॥
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तो सबदरसी सुनिअ प्रभु करउ सो बेगि उपाइ।
होइ मरनु जेहि बिनहिं श्रम दुसह बिपत्ति बिहाइ॥
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एहि बिधि दुखित प्रजेसकुमारी। अकथनीय दारुन दुखु भारी॥
बीते संबत सहस सतासी। तजी समाधि संभु अबिनासी॥
राम नाम सिव सुमिरन लागे। जानेउ सती जगतपति जागे॥
जाइ संभु पद बंदनु कीन्हा। सनमुख संकर आसनु दीन्हा॥
लगे कहन हरिकथा रसाला। दच्छ प्रजेस भए तेहि काला॥
देखा बिधि बिचारि सब लायक। दच्छहि कीन्ह प्रजापति नायक॥
बड़ अधिकार दच्छ जब पावा। अति अभिमानु हृदय तब आवा॥
नहिं कोउ अस जनमा जग माहीं। प्रभुता पाइ जाहि मद नाहीं॥
दच्छ लिए मुनि बोलि सब करन लगे बड़ जाग।
नेवते सादर सकल सुर जे पावत मख भाग॥
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किंनर नाग सिद्ध गंधर्बा। बधुन्ह समेत चले सुर सर्बा॥
बिष्नु बिरंचि महेसु बिहाई। चले सकल सुर जान बनाई॥
सती बिलोके ब्योम बिमाना। जात चले सुंदर बिधि नाना॥
सुर सुंदरी करहिं कल गाना। सुनत श्रवन छूटहिं मुनि ध्याना॥
पूछेउ तब सिव कहेउ बखानी। पिता जग्य सुनि कछु हरषानी॥
जो महेसु मोहि आयसु देही। कछु दिन जाइ रहों मिस एही॥
पति परित्याग हृदय दुखु भारी। कहइ न निज अपराध बिचारी॥
बोली सती मनोहर बानी। भय संकोच प्रेम रस सानी॥
पिता भवन उत्सव परम जो प्रभु आयसु होइ।
तो मै जांउ कृपायतन सादर देखन सोइ॥
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कहेहु नीक मोरेहु मन भावा। यह अनुचित नहिं नेवत पठावा॥
दच्छ सकल निज सुता बोलाईं। हमरें बयर तुम्हउ बिसराईं॥
ब्रह्मसभा हम सन दुखु माना। तेहि तें अजहु करहिं अपमाना॥
जो बिनु बोले जाहु भवानी। रहइ न सीलु सनेहु न कानी॥
जदपि मित्र प्रभु पितु गुर गेहा। जाइअ बिनु बोलेहु न संदेहा॥
तदपि बिरोध मान जहं कोई। तहां गए कल्यानु न होई॥
भांति अनेक संभु समुझावा। भावी बस न ग्यानु उर आवा॥
कह प्रभु जाहु जो बिनहिं बोलाए। नहिं भलि बात हमारे भाए॥
कहि देखा हर जतन बहु रहइ न दच्छकुमारि।
दिए मुख्य गन संग तब बिदा कीन्ह त्रिपुरारि॥
राजीव कुमार कुलश्रेष्ठ
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पिता भवन जब गई भवानी। दच्छ त्रास काहु न सनमानी॥
सादर भलेहि मिली एक माता। भगिनी मिली बहुत मुसुकाता॥
दच्छ न कछु पूछी कुसलाता। सतिहि बिलोकि जरे सब गाता॥
सती जाइ देखेउ तब जागा। कतहु न दीख संभु कर भागा॥
तब चित चढ़ेउ जो संकर कहेऊ। प्रभु अपमानु समुझि उर दहेऊ॥
पाछिल दुखु न हृदय अस ब्यापा। जस यह भयउ महा परितापा॥
जद्यपि जग दारुन दुख नाना। सब ते कठिन जाति अवमाना॥
समुझि सो सतिहि भयउ अति क्रोधा। बहु बिधि जननी कीन्ह प्रबोधा॥
सिव अपमानु न जाइ सहि हृदय न होइ प्रबोध।
सकल सभहि हठि हटकि तब बोलीं बचन सक्रोध॥
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सुनहु सभासद सकल मुनिंदा। कही सुनी जिन्ह संकर निंदा॥
सो फलु तुरत लहब सब काहू। भली भांति पछिताब पिताहू॥
संत संभु श्रीपति अपबादा। सुनिअ जहां तहं असि मरजादा॥
काटिअ तासु जीभ जो बसाई। श्रवन मूदि न त चलिअ पराई॥
जगदातमा महेसु पुरारी। जगत जनक सब के हितकारी॥
पिता मंदमति निंदत तेही। दच्छ सुक्र संभव यह देही॥
तजिहउ तुरत देह तेहि हेतू। उर धरि चंद्रमौलि बृषकेतू॥
अस कहि जोग अगिनि तनु जारा। भयउ सकल मख हाहाकारा॥
सती मरनु सुनि संभु गन लगे करन मख खीस।
जग्य बिधंस बिलोकि भृगु रच्छा कीन्हि मुनीस॥
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समाचार सब संकर पाए। बीरभद्रु करि कोप पठाए॥
जग्य बिधंस जाइ तिन्ह कीन्हा। सकल सुरन्ह बिधिवत फलु दीन्हा॥
भे जगबिदित दच्छ गति सोई। जसि कछु संभु बिमुख के होई॥
यह इतिहास सकल जग जानी। ताते मैं संक्षेप बखानी॥
सती मरत हरि सन बरु मागा। जनम जनम सिव पद अनुरागा॥
तेहि कारन हिमगिरि गृह जाई। जनमी पारबती तनु पाई॥
जब तें उमा सैल गृह जाईं। सकल सिद्धि संपति तहं छाई॥
जहँ तहँ मुनिन्ह सुआश्रम कीन्हे। उचित बास हिम भूधर दीन्हे॥
सदा सुमन फल सहित सब द्रुम नव नाना जाति।
प्रगटीं सुंदर सैल पर मनि आकर बहु भांति॥
राजीव कुमार कुलश्रेष्ठ
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सरिता सब पुनीत जलु बहहीं। खग मृग मधुप सुखी सब रहहीं॥
सहज बयरु सब जीवन्ह त्यागा। गिरि पर सकल करहि अनुरागा॥
सोह सैल गिरिजा गृह आए। जिमि जनु रामभगति के पाए॥
नित नूतन मंगल गृह तासू। ब्रह्मादिक गावहिं जसु जासू॥
नारद समाचार सब पाए। कौतुकहीं गिरि गेह सिधाए॥
सैलराज बड़ आदर कीन्हा। पद पखारि बर आसनु दीन्हा॥
नारि सहित मुनि पद सिरु नावा। चरन सलिल सबु भवनु सिंचावा॥
निज सौभाग्य बहुत गिरि बरना। सुता बोलि मेली मुनि चरना॥
त्रिकालग्य सर्बग्य तुम्ह गति सर्बत्र तुम्हारि॥
कहहु सुता के दोष गुन मुनिबर हृदय बिचारि॥
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कह मुनि बिहसि गूढ़ मृदु बानी। सुता तुम्हारि सकल गुन खानी॥
सुंदर सहज सुसील सयानी। नाम उमा अंबिका भवानी॥
सब लच्छन संपन्न कुमारी। होइहि संतत पियहि पिआरी॥
सदा अचल एहि कर अहिवाता। एहि ते जसु पैहहिं पितु माता॥
होइहि पूज्य सकल जग माहीं। एहि सेवत कछु दुर्लभ नाहीं॥
एहि कर नामु सुमिरि संसारा। त्रिय चढ़हहि पतिब्रत असिधारा॥
सैल सुलच्छन सुता तुम्हारी। सुनहु जे अब अवगुन दुइ चारी॥
अगुन अमान मातु पितु हीना। उदासीन सब संसय छीना॥
जोगी जटिल अकाम मन नगन अमंगल बेष॥
अस स्वामी एहि कहं मिलिहि परी हस्त असि रेख॥
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सुनि मुनि गिरा सत्य जिय जानी। दुख दंपतिहि उमा हरषानी॥
नारदहु यह भेदु न जाना। दसा एक समुझब बिलगाना॥
सकल सखी गिरिजा गिरि मैना। पुलक सरीर भरे जल नैना॥
होइ न मृषा देवरिषि भाषा। उमा सो बचनु हृदय धरि राखा॥
उपजेउ सिव पद कमल सनेहू। मिलन कठिन मन भा संदेहू॥
जानि कुअवसरु प्रीति दुराई। सखी उछंग बैठी पुनि जाई॥
झूठि न होइ देवरिषि बानी। सोचहि दंपति सखी सयानी॥
उर धरि धीर कहइ गिरिराऊ। कहहु नाथ का करिअ उपाऊ॥
कह मुनीस हिमवंत सुनु जो बिधि लिखा लिलार।
देव दनुज नर नाग मुनि कोउ न मेटनिहार॥
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तदपि एक मैं कहउ उपाई। होइ करे जो देउ सहाई॥
जस बरु मैं बरनेउ तुम्ह पाहीं। मिलहि उमहि तस संसय नाहीं॥
जे जे बर के दोष बखाने। ते सब सिव पहि मैं अनुमाने॥
जो बिबाहु संकर सन होई। दोषउ गुन सम कह सबु कोई॥
जो अहि सेज सयन हरि करहीं। बुध कछु तिन्ह कर दोषु न धरहीं॥
भानु कृसानु सर्ब रस खाहीं। तिन्ह कहं मंद कहत कोउ नाहीं॥
सुभ अरु असुभ सलिल सब बहई। सुरसरि कोउ अपुनीत न कहई॥
समरथ कहु नहिं दोषु गोसाई। रबि पावक सुरसरि की नाईं॥
जो अस हिसिषा करहिं नर जड़ि बिबेक अभिमान।
परहिं कलप भरि नरक महुं जीव कि ईस समान॥
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सुरसरि जल कृत बारुनि जाना। कबहु न संत करहिं तेहि पाना॥
सुरसरि मिले सो पावन जैसे। ईस अनीसहि अंतरु तैसे॥
संभु सहज समरथ भगवाना। एहि बिबाह सब बिधि कल्याना॥
दुराराध्य पे अहहिं महेसू। आसुतोष पुनि किए कलेसू॥
जो तपु करे कुमारि तुम्हारी। भाविउ मेटि सकहिं त्रिपुरारी॥
जद्यपि बर अनेक जग माही। एहि कहं सिव तजि दूसर नाही॥
बर दायक प्रनतारति भंजन। कृपासिंधु सेवक मन रंजन॥
इच्छित फल बिनु सिव अवराधे। लहिअ न कोटि जोग जप साधे॥
अस कहि नारद सुमिरि हरि गिरिजहि दीन्हि असीस।
होइहि यह कल्यान अब संसय तजहु गिरीस॥
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कहि अस ब्रह्मभवन मुनि गयऊ। आगिल चरित सुनहु जस भयऊ॥
पतिहि एकांत पाइ कह मैना। नाथ न मैं समुझे मुनि बैना॥
जो घरु बरु कुलु होइ अनूपा। करिअ बिबाहु सुता अनुरुपा॥
न त कन्या बरु रहउ कुआरी। कंत उमा मम प्रानपिआरी॥
जो न मिलहि बरु गिरिजहि जोगू। गिरि जड़ सहज कहिहि सबु लोगू॥
सोइ बिचारि पति करेहु बिबाहू। जेहिं न बहोरि होइ उर दाहू॥
अस कहि परी चरन धरि सीसा। बोले सहित सनेह गिरीसा॥
बरु पावक प्रगटै ससि माहीं। नारद बचनु अन्यथा नाहीं॥
प्रिया सोचु परिहरहु सबु सुमिरहु श्रीभगवान।
पारबतिहि निरमयउ जेहिं सोइ करिहि कल्यान॥
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अब जो तुम्हहि सुता पर नेहू। तो अस जाइ सिखावन देहू॥
करे सो तपु जेहि मिलहिं महेसू। आन उपाय न मिटहि कलेसू॥
नारद बचन सगर्भ सहेतू। सुंदर सब गुन निधि बृषकेतू॥
अस बिचारि तुम्ह तजहु असंका। सबहि भांति संकरु अकलंका॥
सुनि पति बचन हरषि मन माहीं। गई तुरत उठि गिरिजा पाहीं॥
उमहि बिलोकि नयन भरे बारी। सहित सनेह गोद बैठारी॥
बारहिं बार लेति उर लाई। गदगद कंठ न कछु कहि जाई॥
जगत मातु सर्बग्य भवानी। मातु सुखद बोलीं मृदु बानी॥
सुनहि मातु मैं दीख अस सपन सुनावउ तोहि।
सुंदर गौर सुबिप्रबर अस उपदेसेउ मोहि॥
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करहि जाइ तपु सैलकुमारी। नारद कहा सो सत्य बिचारी॥
मातु पितहि पुनि यह मत भावा। तपु सुखप्रद दुख दोष नसावा॥
तपबल रचइ प्रपंच बिधाता। तपबल बिष्नु सकल जग त्राता॥
तपबल संभु करहिं संघारा। तपबल सेषु धरइ महिभारा॥
तप अधार सब सृष्टि भवानी। करहि जाइ तपु अस जिय जानी॥
सुनत बचन बिसमित महतारी। सपन सुनायउ गिरिहि हंकारी॥
मातु पितुहि बहुबिधि समुझाई। चलीं उमा तप हित हरषाई॥
प्रिय परिवार पिता अरु माता। भए बिकल मुख आव न बाता॥
बेदसिरा मुनि आइ तब सबहि कहा समुझाइ॥
पारबती महिमा सुनत रहे प्रबोधहि पाइ॥
राजीव कुमार कुलश्रेष्ठ
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उर धरि उमा प्रानपति चरना। जाइ बिपिन लागी तपु करना॥
अति सुकुमार न तनु तप जोगू। पति पद सुमिरि तजेउ सबु भोगू॥
नित नव चरन उपज अनुरागा। बिसरी देह तपहिं मनु लागा॥
संबत सहस मूल फल खाए। सागु खाइ सत बरष गवाए॥
कछु दिन भोजनु बारि बतासा। किए कठिन कछु दिन उपबासा॥
बेल पाती महि परइ सुखाई। तीनि सहस संबत सोई खाई॥
पुनि परिहरे सुखानेउ परना। उमहि नाम तब भयउ अपरना॥
देखि उमहि तप खीन सरीरा। ब्रह्मगिरा भै गगन गभीरा ॥
भयउ मनोरथ सुफल तव सुनु गिरिराजकुमारि।
परिहरु दुसह कलेस सब अब मिलिहहिं त्रिपुरारि॥
राजीव कुमार कुलश्रेष्ठ
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अस तपु काहु न कीन्ह भवानी। भए अनेक धीर मुनि ग्यानी॥
अब उर धरहु ब्रह्म बर बानी। सत्य सदा संतत सुचि जानी॥
आवे पिता बोलावन जबहीं। हठ परिहरि घर जाएहु तबहीं॥
मिलहि तुम्हहि जब सप्त रिषीसा। जानेहु तब प्रमान बागीसा॥
सुनत गिरा बिधि गगन बखानी। पुलक गात गिरिजा हरषानी॥
उमा चरित सुंदर मैं गावा। सुनहु संभु कर चरित सुहावा॥
जब तें सती जाइ तनु त्यागा। तब ते सिव मन भयउ बिरागा॥
जपहिं सदा रघुनायक नामा। जहँ तहँ सुनहिं राम गुन ग्रामा॥
चिदानन्द सुखधाम सिव बिगत मोह मद काम।
बिचरहिं महि धरि हृदय हरि सकल लोक अभिराम॥

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