शनिवार, मई 15, 2010

उत्तरकाण्ड 3




मामवलोकय पंकज लोचन। कृपा बिलोकनि सोच बिमोचन।।
नील तामरस स्याम काम अरि। हृदय कंज मकरंद मधुप हरि।।
जातुधान बरूथ बल भंजन। मुनि सज्जन रंजन अघ गंजन।।
भूसुर ससि नव बृंद बलाहक। असरन सरन दीन जन गाहक।।
भुज बल बिपुल भार महि खंडित। खर दूषन बिराध बध पंडित।।
रावनारि सुखरूप भूपबर। जय दसरथ कुल कुमुद सुधाकर।।
सुजस पुरान बिदित निगमागम। गावत सुर मुनि संत समागम।।
कारुनीक ब्यलीक मद खंडन। सब बिधि कुसल कोसला मंडन।।
कलि मल मथन नाम ममताहन। तुलसीदास प्रभु पाहि प्रनत जन।।
प्रेम सहित मुनि नारद बरनि राम गुन ग्राम।
सोभासिंधु हृदय धरि गए जहाँ बिधि धाम।।

राजीव कुमार कुलश्रेष्ठ
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गिरिजा सुनहु बिसद यह कथा। मैं सब कही मोरि मति जथा।।
राम चरित सत कोटि अपारा। श्रुति सारदा न बरनै पारा।।
राम अनंत अनंत गुनानी। जन्म कर्म अनंत नामानी।।
जल सीकर महि रज गनि जाहीं। रघुपति चरित न बरनि सिराहीं।।
बिमल कथा हरि पद दायनी। भगति होइ सुनि अनपायनी।।
उमा कहिउ सब कथा सुहाई। जो भुसुंडि खगपतिहि सुनाई।।
कछुक राम गुन कहेउ बखानी। अब का कहौं सो कहहु भवानी।।
सुनि सुभ कथा उमा हरषानी। बोली अति बिनीत मृदु बानी।।
धन्य धन्य मैं धन्य पुरारी। सुनेउ राम गुन भव भय हारी।।
तुम्हरी कृपा कृपायतन अब कृतकृत्य न मोह।
जानेउ राम प्रताप प्रभु चिदानंद संदोह।।
नाथ तवानन ससि स्रवत कथा सुधा रघुबीर।
श्रवन पुटन्हि मन पान करि नहिं अघात मतिधीर।
राजीव कुमार कुलश्रेष्ठ
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राम चरित जे सुनत अघाहीं। रस बिसेष जाना तिन्ह नाहीं।।
जीवनमुक्त महामुनि जेऊ। हरि गुन सुनहीं निरंतर तेऊ।।
भव सागर चह पार जो पावा। राम कथा ता कह दृढ़ नावा।।
बिषइन्ह कह पुनि हरि गुन ग्रामा। श्रवन सुखद अरु मन अभिरामा।।
श्रवनवंत अस को जग माहीं। जाहि न रघुपति चरित सोहाहीं।।
ते जड़ जीव निजात्मक घाती। जिन्हहि न रघुपति कथा सोहाती।।
हरिचरित्र मानस तुम्ह गावा। सुनि मैं नाथ अमिति सुख पावा।।
तुम्ह जो कही यह कथा सुहाई। कागभसुंडि गरुड़ प्रति गाई।।
बिरति ग्यान बिग्यान दृढ़ राम चरन अति नेह।
बायस तन रघुपति भगति मोहि परम संदेह।।
राजीव कुमार कुलश्रेष्ठ
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नर सहस्त्र मह सुनहु पुरारी। कोउ एक होइ धर्म ब्रतधारी।।
धर्मसील कोटिक मह कोई। बिषय बिमुख बिराग रत होई।।
कोटि बिरक्त मध्य श्रुति कहई। सम्यक ग्यान सकृत कोउ लहई।।
ग्यानवंत कोटिक मह कोऊ। जीवनमुक्त सकृत जग सोऊ।।
तिन्ह सहस्त्र महुँ सब सुख खानी। दुर्लभ ब्रह्मलीन बिग्यानी।।
धर्मसील बिरक्त अरु ग्यानी। जीवनमुक्त ब्रह्मपर प्रानी।।
सब ते सो दुर्लभ सुरराया। राम भगति रत गत मद माया।।
सो हरि भगति काग किमि पाई। बिस्वनाथ मोहि कहहु बुझाई।।
राम परायन ग्यान रत गुनागार मति धीर।
नाथ कहहु केहि कारन पायउ काक सरीर।।
राजीव कुमार कुलश्रेष्ठ
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यह प्रभु चरित पवित्र सुहावा। कहहु कृपाल काग कह पावा।।
तुम्ह केहि भाँति सुना मदनारी। कहहु मोहि अति कौतुक भारी।।
गरुड़ महाग्यानी गुन रासी। हरि सेवक अति निकट निवासी।।
तेहिं केहि हेतु काग सन जाई। सुनी कथा मुनि निकर बिहाई।।
कहहु कवन बिधि भा संबादा। दोउ हरिभगत काग उरगादा।।
गौरि गिरा सुनि सरल सुहाई। बोले सिव सादर सुख पाई।।
धन्य सती पावन मति तोरी। रघुपति चरन प्रीति नहिं थोरी।।
सुनहु परम पुनीत इतिहासा। जो सुनि सकल लोक भ्रम नासा।।
उपजइ राम चरन बिस्वासा। भव निधि तर नर बिनहिं प्रयासा।।
ऐसिअ प्रस्न बिहंगपति कीन्ह काग सन जाइ।
सो सब सादर कहिहउ सुनहु उमा मन लाइ।।
राजीव कुमार कुलश्रेष्ठ
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मैं जिमि कथा सुनी भव मोचनि। सो प्रसंग सुनु सुमुखि सुलोचनि।।
प्रथम दच्छ गृह तव अवतारा। सती नाम तब रहा तुम्हारा।।
दच्छ जग्य तब भा अपमाना। तुम्ह अति क्रोध तजे तब प्राना।।
मम अनुचरन्ह कीन्ह मख भंगा। जानहु तुम्ह सो सकल प्रसंगा।।
तब अति सोच भयउ मन मोरे। दुखी भयउ बियोग प्रिय तोरे।।
सुंदर बन गिरि सरित तड़ागा। कौतुक देखत फिरउ बेरागा।।
गिरि सुमेर उत्तर दिसि दूरी। नील सैल एक सुन्दर भूरी।।
तासु कनकमय सिखर सुहाए। चारि चारु मोरे मन भाए।।
तिन्ह पर एक एक बिटप बिसाला। बट पीपर पाकरी रसाला।।
सैलोपरि सर सुंदर सोहा। मनि सोपान देखि मन मोहा।।
सीतल अमल मधुर जल जलज बिपुल बहुरंग।
कूजत कल रव हंस गन गुंजत मजुंल भृंग।।
राजीव कुमार कुलश्रेष्ठ
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तेहिं गिरि रुचिर बसइ खग सोई। तासु नास कल्पांत न होई।।
माया कृत गुन दोष अनेका। मोह मनोज आदि अबिबेका।।
रहे ब्यापि समस्त जग माहीं। तेहि गिरि निकट कबहु नहिं जाहीं।।
तह बसि हरिहि भजइ जिमि कागा। सो सुनु उमा सहित अनुरागा।।
पीपर तरु तर ध्यान सो धरई। जाप जग्य पाकरि तर करई।।
आँब छांह कर मानस पूजा। तजि हरि भजनु काजु नहिं दूजा।।
बर तर कह हरि कथा प्रसंगा। आवहिं सुनहिं अनेक बिहंगा।।
राम चरित बिचीत्र बिधि नाना। प्रेम सहित कर सादर गाना।।
सुनहिं सकल मति बिमल मराला। बसहिं निरंतर जे तेहिं ताला।।
जब मैं जाइ सो कौतुक देखा। उर उपजा आनंद बिसेषा।।
तब कछु काल मराल तनु धरि तह कीन्ह निवास।
सादर सुनि रघुपति गुन पुनि आयउ कैलास।।
राजीव कुमार कुलश्रेष्ठ
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गिरिजा कहेउ सो सब इतिहासा। मैं जेहि समय गयउ खग पासा।।
अब सो कथा सुनहु जेही हेतू। गयउ काग पहिं खग कुल केतू।।
जब रघुनाथ कीन्हि रन क्रीड़ा। समुझत चरित होति मोहि ब्रीड़ा।।
इंद्रजीत कर आपु बंधायो। तब नारद मुनि गरुड़ पठायो।।
बंधन काटि गयो उरगादा। उपजा हृदय प्रचंड बिषादा।।
प्रभु बंधन समुझत बहु भांती। करत बिचार उरग आराती।।
ब्यापक ब्रह्म बिरज बागीसा। माया मोह पार परमीसा।।
सो अवतार सुनेउ जग माहीं। देखेउ सो प्रभाव कछु नाहीं।।
भव बंधन ते छूटहिं नर जपि जा कर नाम।
खर्च निसाचर बांधेउ नागपास सोइ राम।।
राजीव कुमार कुलश्रेष्ठ
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नाना भांति मनहि समुझावा। प्रगट न ग्यान हृदय भ्रम छावा।।
खेद खिन्न मन तर्क बढ़ाई। भयउ मोहबस तुम्हरिहिं नाई।।
ब्याकुल गयउ देवरिषि पाहीं। कहेसि जो संसय निज मन माहीं।।
सुनि नारदहि लागि अति दाया। सुनु खग प्रबल राम के माया।।
जो ग्यानिन्ह कर चित अपहरई। बरिआई बिमोह मन करई।।
जेहिं बहु बार नचावा मोही। सोइ ब्यापी बिहंगपति तोही।।
महामोह उपजा उर तोरे। मिटिहि न बेगि कहें खग मोरे।।
चतुरानन पहिं जाहु खगेसा। सोइ करेहु जेहि होइ निदेसा।।
अस कहि चले देवरिषि करत राम गुन गान।
हरि माया बल बरनत पुनि पुनि परम सुजान।।
राजीव कुमार कुलश्रेष्ठ
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तब खगपति बिरंचि पहिं गयऊ। निज संदेह सुनावत भयऊ।।
सुनि बिरंचि रामहि सिरु नावा। समुझि प्रताप प्रेम अति छावा।।
मन महु करइ बिचार बिधाता। माया बस कबि कोबिद ग्याता।।
हरि माया कर अमिति प्रभावा। बिपुल बार जेहिं मोहि नचावा।।
अग जगमय जग मम उपराजा। नहिं आचरज मोह खगराजा।।
तब बोले बिधि गिरा सुहाई। जान महेस राम प्रभुताई।।
बैनतेय संकर पहिं जाहू। तात अनत पूछहु जनि काहू।।
तह होइहि तव संसय हानी। चलेउ बिहंग सुनत बिधि बानी।।
परमातुर बिहंगपति आयउ तब मो पास।
जात रहेउ कुबेर गृह रहिहु उमा कैलास।।
राजीव कुमार कुलश्रेष्ठ
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तेहि मम पद सादर सिरु नावा। पुनि आपन संदेह सुनावा।।
सुनि ता करि बिनती मृदु बानी। परेम सहित मैं कहेउ भवानी।।
मिलेहु गरुड़ मारग महँ मोही। कवन भाँति समुझावौ तोही।।
तबहि होइ सब संसय भंगा। जब बहु काल करिअ सतसंगा।।
सुनिअ तहा हरि कथा सुहाई। नाना भांति मुनिन्ह जो गाई।।
जेहि महु आदि मध्य अवसाना। प्रभु प्रतिपाद्य राम भगवाना।।
नित हरि कथा होत जहँ भाई। पठवउ तहाँ सुनहि तुम्ह जाई।।
जाइहि सुनत सकल संदेहा। राम चरन होइहि अति नेहा।।
बिनु सतसंग न हरि कथा तेहि बिनु मोह न भाग।
मोह गए बिनु राम पद होइ न दृढ़ अनुराग।।
राजीव कुमार कुलश्रेष्ठ
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मिलहिं न रघुपति बिनु अनुरागा। किए जोग तप ग्यान बिरागा।।
उत्तर दिसि सुंदर गिरि नीला। तहँ रह काकभुसुंडि सुसीला।।
राम भगति पथ परम प्रबीना। ग्यानी गुन गृह बहु कालीना।।
राम कथा सो कहइ निरंतर। सादर सुनहिं बिबिध बिहंगबर।।
जाइ सुनहु तहँ हरि गुन भूरी। होइहि मोह जनित दुख दूरी।।
मैं जब तेहि सब कहा बुझाई। चलेउ हरषि मम पद सिरु नाई।।
ताते उमा न मैं समुझावा। रघुपति कृपा मरमु मैं पावा।।
होइहि कीन्ह कबहु अभिमाना। सो खौवै चह कृपानिधाना।।
कछु तेहि ते पुनि मैं नहिं राखा। समुझइ खग खगही के भाषा।।
प्रभु माया बलवंत भवानी। जाहि न मोह कवन अस ग्यानी।।
ग्यानि भगत सिरोमनि त्रिभुवनपति कर जान।
ताहि मोह माया नर पावँर करहिं गुमान।।
सिव बिरंचि कहु मोहइ को है बपुरा आन।
अस जिय जानि भजहिं मुनि माया पति भगवान।।
मासपारायण, अट्ठाईसवा विश्राम
राजीव कुमार कुलश्रेष्ठ
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गयउ गरुड़ जहँ बसइ भुसुंडा। मति अकुंठ हरि भगति अखंडा।।
देखि सैल प्रसन्न मन भयऊ। माया मोह सोच सब गयऊ।।
करि तड़ाग मज्जन जलपाना। बट तर गयउ हृदय हरषाना।।
बृद्ध बृद्ध बिहंग तहँ आए। सुने राम के चरित सुहाए।।
कथा अरंभ करे सोइ चाहा। तेही समय गयउ खगनाहा।।
आवत देखि सकल खगराजा। हरषेउ बायस सहित समाजा।।
अति आदर खगपति कर कीन्हा। स्वागत पूछि सुआसन दीन्हा।।
करि पूजा समेत अनुरागा। मधुर बचन तब बोलेउ कागा।।
नाथ कृतारथ भयउ मैं तव दरसन खगराज।
आयसु देहु सो करों अब प्रभु आयहु केहि काज।।
सदा कृतारथ रूप तुम्ह कह मृदु बचन खगेस।
जेहि कै अस्तुति सादर निज मुख कीन्हि महेस।।
राजीव कुमार कुलश्रेष्ठ
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सुनहु तात जेहि कारन आयउ। सो सब भयउ दरस तव पायउ।।
देखि परम पावन तव आश्रम। गयउ मोह संसय नाना भ्रम।।
अब श्रीराम कथा अति पावनि। सदा सुखद दुख पुंज नसावनि।।
सादर तात सुनावहु मोही। बार बार बिनवउ प्रभु तोही।।
सुनत गरुड़ के गिरा बिनीता। सरल सुप्रेम सुखद सुपुनीता।।
भयउ तासु मन परम उछाहा। लाग कहै रघुपति गुन गाहा।।
प्रथमहिं अति अनुराग भवानी। रामचरित सर कहेसि बखानी।।
पुनि नारद कर मोह अपारा। कहेसि बहुरि रावन अवतारा।।
प्रभु अवतार कथा पुनि गाई। तब सिसु चरित कहेसि मन लाई।।
बालचरित कहिं बिबिध बिधि मन मह परम उछाह।
रिषि आगवन कहेसि पुनि श्री रघुबीर बिबाह।।
राजीव कुमार कुलश्रेष्ठ
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बहुरि राम अभिषेक प्रसंगा। पुनि नृप बचन राज रस भंगा।।
पुरबासिन्ह कर बिरह बिषादा। कहेसि राम लछिमन संबादा।।
बिपिन गवन केवट अनुरागा। सुरसरि उतरि निवास प्रयागा।।
बालमीक प्रभु मिलन बखाना। चित्रकूट जिमि बसे भगवाना।।
सचिवागवन नगर नृप मरना। भरतागवन प्रेम बहु बरना।।
करि नृप क्रिया संग पुरबासी। भरत गए जह प्रभु सुख रासी।।
पुनि रघुपति बहु बिधि समुझाए। लै पादुका अवधपुर आए।।
भरत रहनि सुरपति सुत करनी। प्रभु अरु अत्रि भेंट पुनि बरनी।।
कहि बिराध बध जेहि बिधि देह तजी सरभंग।।
बरनि सुतीछन प्रीति पुनि प्रभु अगस्ति सतसंग।।
राजीव कुमार कुलश्रेष्ठ
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कहि दंडक बन पावनताई। गीध मइत्री पुनि तेहिं गाई।।
पुनि प्रभु पंचवटीं कृत बासा। भंजी सकल मुनिन्ह की त्रासा।।
पुनि लछिमन उपदेस अनूपा। सूपनखा जिमि कीन्हि कुरूपा।।
खर दूषन बध बहुरि बखाना। जिमि सब मरमु दसानन जाना।।
दसकंधर मारीच बतकहीं। जेहि बिधि भई सो सब तेहिं कही।।
पुनि माया सीता कर हरना। श्रीरघुबीर बिरह कछु बरना।।
पुनि प्रभु गीध क्रिया जिमि कीन्ही। बधि कबंध सबरिहि गति दीन्ही।।
बहुरि बिरह बरनत रघुबीरा। जेहि बिधि गए सरोबर तीरा।।
प्रभु नारद संबाद कहि मारुति मिलन प्रसंग।
पुनि सुग्रीव मिताई बालि प्रान कर भंग
कपिहि तिलक करि प्रभु कृत सैल प्रबरषन बास।
बरनन बर्षा सरद अरु राम रोष कपि त्रास
राजीव कुमार कुलश्रेष्ठ
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जेहि बिधि कपिपति कीस पठाए। सीता खोज सकल दिसि धाए।।
बिबर प्रबेस कीन्ह जेहि भाँती। कपिन्ह बहोरि मिला संपाती।।
सुनि सब कथा समीरकुमारा। नाघत भयउ पयोधि अपारा।।
लंका कपि प्रबेस जिमि कीन्हा। पुनि सीतहि धीरजु जिमि दीन्हा।।
बन उजारि रावनहि प्रबोधी। पुर दहि नाघेउ बहुरि पयोधी।।
आए कपि सब जहँ रघुराई। बैदेही कि कुसल सुनाई।।
सेन समेति जथा रघुबीरा। उतरे जाइ बारिनिधि तीरा।।
मिला बिभीषन जेहि बिधि आई। सागर निग्रह कथा सुनाई।।
सेतु बाँधि कपि सेन जिमि उतरी सागर पार।
गयउ बसीठी बीरबर जेहि बिधि बालिकुमार
निसिचर कीस लराई बरनिसि बिबिध प्रकार।
कुंभकरन घननाद कर बल पौरुष संघार
राजीव कुमार कुलश्रेष्ठ
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निसिचर निकर मरन बिधि नाना। रघुपति रावन समर बखाना।।
रावन बध मंदोदरि सोका। राज बिभीषण देव असोका।।
सीता रघुपति मिलन बहोरी। सुरन्ह कीन्ह अस्तुति कर जोरी।।
पुनि पुष्पक चढ़ि कपिन्ह समेता। अवध चले प्रभु कृपा निकेता।।
जेहि बिधि राम नगर निज आए। बायस बिसद चरित सब गाए।।
कहेसि बहोरि राम अभिषैका। पुर बरनत नृपनीति अनेका।।
कथा समस्त भुसुंड बखानी। जो मैं तुम्ह सन कही भवानी।।
सुनि सब राम कथा खगनाहा। कहत बचन मन परम उछाहा।।
गयउ मोर संदेह सुनेउ सकल रघुपति चरित।
भयउ राम पद नेह तव प्रसाद बायस तिलक।।
मोहि भयउ अति मोह प्रभु बंधन रन महु निरखि।
चिदानंद संदोह राम बिकल कारन कवन।
राजीव कुमार कुलश्रेष्ठ
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देखि चरित अति नर अनुसारी। भयउ हृदय मम संसय भारी।।
सोइ भ्रम अब हित करि मैं माना। कीन्ह अनुग्रह कृपानिधाना।।
जो अति आतप ब्याकुल होई। तरु छाया सुख जानइ सोई।।
जौं नहिं होत मोह अति मोही। मिलतेउ तात कवन बिधि तोही।।
सुनतेउ किमि हरि कथा सुहाई। अति बिचित्र बहु बिधि तुम्ह गाई।।
निगमागम पुरान मत एहा। कहहिं सिद्ध मुनि नहिं संदेहा।।
संत बिसुद्ध मिलहिं परि तेही। चितवहिं राम कृपा करि जेही।।
राम कृपा तव दरसन भयऊ। तव प्रसाद सब संसय गयऊ।।
सुनि बिहंगपति बानी सहित बिनय अनुराग।
पुलक गात लोचन सजल मन हरषेउ अति काग।।
श्रोता सुमति सुसील सुचि कथा रसिक हरि दास।
पाइ उमा अति गोप्यमपि सज्जन करहिं प्रकास।।
राजीव कुमार कुलश्रेष्ठ
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बोलेउ काकभसुंड बहोरी। नभग नाथ पर प्रीति न थोरी।।
सब बिधि नाथ पूज्य तुम्ह मेरे। कृपापात्र रघुनायक केरे।।
तुम्हहि न संसय मोह न माया। मो पर नाथ कीन्ह तुम्ह दाया।।
पठइ मोह मिस खगपति तोही। रघुपति दीन्हि बड़ाई मोही।।
तुम्ह निज मोह कही खग साईं। सो नहिं कछु आचरज गोसाईं।।
नारद भव बिरंचि सनकादी। जे मुनिनायक आतमबादी।।
मोह न अंध कीन्ह केहि केही। को जग काम नचाव न जेही।।
तृषना केहि न कीन्ह बौराहा। केहि कर हृदय क्रोध नहिं दाहा।।
ग्यानी तापस सूर कबि कोबिद गुन आगार।
केहि कै लौभ बिडंबना कीन्हि न एहिं संसार।।
श्री मद बक्र न कीन्ह केहि प्रभुता बधिर न काहि।
मृगलोचनि के नैन सर को अस लाग न जाहि।।
राजीव कुमार कुलश्रेष्ठ
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गुन कृत सन्यपात नहिं केही। कोउ न मान मद तजेउ निबेही।।
जोबन ज्वर केहि नहिं बलकावा। ममता केहि कर जस न नसावा।।
मच्छर काहि कलंक न लावा। काहि न सोक समीर डोलावा।।
चिंता सांपिनि को नहिं खाया। को जग जाहि न ब्यापी माया।।
कीट मनोरथ दारु सरीरा। जेहि न लाग घुन को अस धीरा।।
सुत बित लोक ईषना तीनी। केहि के मति इन्ह कृत न मलीनी।।
यह सब माया कर परिवारा। प्रबल अमिति को बरनै पारा।।
सिव चतुरानन जाहि डेराहीं। अपर जीव केहि लेखे माहीं।।
ब्यापि रहेउ संसार महु माया कटक प्रचंड।।
सेनापति कामादि भट दंभ कपट पाखंड।।
सो दासी रघुबीर के समुझे मिथ्या सोपि।
छूट न राम कृपा बिनु नाथ कहउ पद रोपि।।
राजीव कुमार कुलश्रेष्ठ
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जो माया सब जगहि नचावा। जासु चरित लखि काहु न पावा।।
सोइ प्रभु भ्रू बिलास खगराजा। नाच नटी इव सहित समाजा।।
सोइ सच्चिदानंद घन रामा। अज बिग्यान रूपो बल धामा।।
ब्यापक ब्याप्य अखंड अनंता। अखिल अमोघसक्ति भगवंता।।
अगुन अदभ्र गिरा गोतीता। सबदरसी अनवद्य अजीता।।
निर्मम निराकार निरमोहा। नित्य निरंजन सुख संदोहा।।
प्रकृति पार प्रभु सब उर बासी। ब्रह्म निरीह बिरज अबिनासी।।
इहाँ मोह कर कारन नाहीं। रबि सन्मुख तम कबहु कि जाहीं।।
भगत हेतु भगवान प्रभु राम धरेउ तनु भूप।
किए चरित पावन परम प्राकृत नर अनुरूप।।
जथा अनेक बेष धरि नृत्य करइ नट कोइ।
सोइ सोइ भाव देखावइ आपुन होइ न सोइ।।
राजीव कुमार कुलश्रेष्ठ
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असि रघुपति लीला उरगारी। दनुज बिमोहनि जन सुखकारी।।
जे मति मलिन बिषयबस कामी। प्रभु मोह धरहिं इमि स्वामी।।
नयन दोष जा कह जब होई। पीत बरन ससि कहुँ कह सोई।।
जब जेहि दिसि भ्रम होइ खगेसा। सो कह पच्छिम उयउ दिनेसा।।
नौकारूढ़ चलत जग देखा। अचल मोह बस आपुहि लेखा।।
बालक भ्रमहिं न भ्रमहिं गृहादीं। कहहिं परस्पर मिथ्याबादी।।
हरि बिषइक अस मोह बिहंगा। सपनेहु नहिं अग्यान प्रसंगा।।
मायाबस मतिमंद अभागी। हृदय जमनिका बहुबिधि लागी।।
ते सठ हठ बस संसय करहीं। निज अग्यान राम पर धरहीं।।
काम क्रोध मद लोभ रत गृहासक्त दुखरूप।
ते किमि जानहिं रघुपतिहि मूढ़ परे तम कूप।।
निर्गुन रूप सुलभ अति सगुन जान नहिं कोइ।
सुगम अगम नाना चरित सुनि मुनि मन भ्रम होइ।।
राजीव कुमार कुलश्रेष्ठ
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सुनु खगेस रघुपति प्रभुताई। कहउ जथामति कथा सुहाई।।
जेहि बिधि मोह भयउ प्रभु मोही। सोउ सब कथा सुनावउ तोही।।
राम कृपा भाजन तुम्ह ताता। हरि गुन प्रीति मोहि सुखदाता।।
ताते नहिं कछु तुम्हहिं दुरावउ। परम रहस्य मनोहर गावउ।।
सुनहु राम कर सहज सुभाऊ। जन अभिमान न राखहिं काऊ।।
संसृत मूल सूलप्रद नाना। सकल सोक दायक अभिमाना।।
ताते करहिं कृपानिधि दूरी। सेवक पर ममता अति भूरी।।
जिमि सिसु तन ब्रन होइ गोसाई। मातु चिराव कठिन की नाईं।।
जदपि प्रथम दुख पावइ रोवइ बाल अधीर।
ब्याधि नास हित जननी गनति न सो सिसु पीर।।
तिमि रघुपति निज दासकर हरहिं मान हित लागि।
तुलसिदास ऐसे प्रभुहि कस न भजहु भ्रम त्यागि।।
राजीव कुमार कुलश्रेष्ठ
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राम कृपा आपनि जड़ताई। कहउ खगेस सुनहु मन लाई।।
जब जब राम मनुज तनु धरहीं। भक्त हेतु लील बहु करहीं।।
तब तब अवधपुरी मैं ज़ाऊ। बालचरित बिलोकि हरषाऊ।।
जन्म महोत्सव देखउ जाई। बरष पाँच तह रहउ लोभाई।।
इष्टदेव मम बालक रामा। सोभा बपुष कोटि सत कामा।।
निज प्रभु बदन निहारि निहारी। लोचन सुफल करउ उरगारी।।
लघु बायस बपु धरि हरि संगा। देखउ बालचरित बहुरंगा।।
लरिकाई जहँ जहँ फिरहिं तह तह संग उड़ाउँ।
जूठनि परइ अजिर मह सो उठाइ करि खाउ।।
एक बार अतिसय सब चरित किए रघुबीर।
सुमिरत प्रभु लीला सोइ पुलकित भयउ सरीर।।
राजीव कुमार कुलश्रेष्ठ
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कहइ भसुंड सुनहु खगनायक। रामचरित सेवक सुखदायक।।
नृपमंदिर सुंदर सब भांती। खचित कनक मनि नाना जाती।।
बरनि न जाइ रुचिर अगनाई। जहँ खेलहिं नित चारिउ भाई।।
बालबिनोद करत रघुराई। बिचरत अजिर जननि सुखदाई।।
मरकत मृदुल कलेवर स्यामा। अंग अंग प्रति छबि बहु कामा।।
नव राजीव अरुन मृदु चरना। पदज रुचिर नख ससि दुति हरना।।
ललित अंक कुलिसादिक चारी। नूपुर चारू मधुर रवकारी।।
चारु पुरट मनि रचित बनाई। कटि किंकिन कल मुखर सुहाई।।
रेखा त्रय सुन्दर उदर नाभी रुचिर गँभीर।
उर आयत भ्राजत बिबिध बाल बिभूषन चीर।।
राजीव कुमार कुलश्रेष्ठ
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अरुन पानि नख करज मनोहर। बाहु बिसाल बिभूषन सुंदर।।
कंध बाल केहरि दर ग्रीवा। चारु चिबुक आनन छबि सींवा।।
कलबल बचन अधर अरुनारे। दुइ दुइ दसन बिसद बर बारे।।
ललित कपोल मनोहर नासा। सकल सुखद ससि कर सम हासा।।
नील कंज लोचन भव मोचन। भ्राजत भाल तिलक गोरोचन।।
बिकट भृकुटि सम श्रवन सुहाए। कुंचित कच मेचक छबि छाए।।
पीत झीनि झगुली तन सोही। किलकनि चितवनि भावति मोही।।
रूप रासि नृप अजिर बिहारी। नाचहिं निज प्रतिबिंब निहारी।।
मोहि सन करहीं बिबिध बिधि क्रीड़ा। बरनत मोहि होति अति ब्रीड़ा।।
किलकत मोहि धरन जब धावहिं। चलउ भागि तब पूप देखावहिं।।

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