शनिवार, मई 15, 2010

बालकाण्ड 12



मैं तुम्हार अनुचर मुनिराया। परिहरि कोपु करिअ अब दाया॥
टूट चाप नहिं जुरहि रिसाने। बैठिअ होइहिं पाय पिराने॥
जौ अति प्रिय तौ करिअ उपाई। जोरिअ कोउ बड़ गुनी बोलाई॥
बोलत लखनहिं जनकु डेराहीं। मष्ट करहु अनुचित भल नाहीं॥
थर थर कापहिं पुर नर नारी। छोट कुमार खोट बड़ भारी॥
भृगुपति सुनि सुनि निरभय बानी। रिस तन जरइ होइ बल हानी॥
बोले रामहि देइ निहोरा। बचउ बिचारि बंधु लघु तोरा॥
मनु मलीन तनु सुंदर कैसें। बिष रस भरा कनक घटु जैसैं॥
सुनि लछिमन बिहसे बहुरि नयन तरेरे राम।
गुर समीप गवने सकुचि परिहरि बानी बाम॥
राजीव कुमार कुलश्रेष्ठ
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अति बिनीत मृदु सीतल बानी। बोले रामु जोरि जुग पानी॥
सुनहु नाथ तुम्ह सहज सुजाना। बालक बचनु करिअ नहिं काना
बररै बालक एकु सुभाऊ। इन्हहि न संत बिदूषहिं काऊ॥
तेहिं नाहीं कछु काज बिगारा। अपराधी में नाथ तुम्हारा
कृपा कोपु बधु बँधब गोसाईं। मो पर करिअ दास की नाई॥
कहिअ बेगि जेहि बिधि रिस जाई। मुनिनायक सोइ करौं उपाई
कह मुनि राम जाइ रिस कैसें। अजहु अनुज तव चितव अनैसें॥
एहि के कंठ कुठारु न दीन्हा। तौ मैं काह कोपु करि कीन्हा
गर्भ स्त्रवहिं अवनिप रवनि सुनि कुठार गति घोर।
परसु अछत देखउँ जिअत बैरी भूपकिसोर
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बहइ न हाथु दहइ रिस छाती। भा कुठारु कुंठित नृपघाती॥
भयउ बाम बिधि फिरेउ सुभाऊ। मोरे हृदय कृपा कसि काऊ॥
आजु दया दुखु दुसह सहावा। सुनि सौमित्र बिहसि सिरु नावा॥
बाउ कृपा मूरति अनुकूला। बोलत बचन झरत जनु फूला
जौ पै कृपा जरिहिं मुनि गाता। क्रोध भए तनु राख बिधाता॥
देखु जनक हठि बालक एहू। कीन्ह चहत जड़ जमपुर गेहू
बेगि करहु किन आँखिन्ह ओटा। देखत छोट खोट नृप ढोटा॥
बिहसे लखनु कहा मन माहीं। मूदें आँखि कतहु कोउ नाहीं
परसुरामु तब राम प्रति बोले उर अति क्रोधु।
संभु सरासनु तोरि सठ करसि हमार प्रबोधु
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बंधु कहइ कटु संमत तोरे। तू छल बिनय करसि कर जोरे॥
करु परितोषु मोर संग्रामा। नाहिं त छाड़ कहाउब रामा
छलु तजि करहि समरु सिवद्रोही। बंधु सहित न त मारउ तोही॥
भृगुपति बकहिं कुठार उठाए। मन मुसकाहिं रामु सिर नाए
गुनह लखन कर हम पर रोषू। कतहु सुधाइहु ते बड़ दोषू॥
टेढ़ जानि सब बंदइ काहू। बक्र चंद्रमहि ग्रसइ न राहू
राम कहेउ रिस तजिअ मुनीसा। कर कुठारु आगे यह सीसा॥
जेहि रिस जाइ करिअ सोइ स्वामी। मोहि जानि आपन अनुगामी॥
प्रभुहि सेवकहि समरु कस तजहु बिप्रबर रोसु।
बेषु बिलोकें कहेसि कछु बालकहू नहि दोसु॥
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देखि कुठार बान धनु धारी। भै लरिकहि रिस बीरु बिचारी॥
नामु जान पै तुम्हहि न चीन्हा। बंस सुभाय उतरु तेहि दीन्हा
जौ तुम्ह औतेहु मुनि की नाई। पद रज सिर सिसु धरत गोसाईं॥
छमहु चूक अनजानत केरी। चहिअ बिप्र उर कृपा घनेरी
हमहि तुम्हहि सरिबरि कसि नाथा॥कहहु न कहाँ चरन कह माथा॥
राम मात्र लघु नाम हमारा। परसु सहित बड़ नाम तोहारा
देव एकु गुनु धनुष हमारे। नव गुन परम पुनीत तुम्हारे॥
सब प्रकार हम तुम्ह सन हारे। छमहु बिप्र अपराध हमारे
बार बार मुनि बिप्रबर कहा राम सन राम।
बोले भृगुपति सरुष हसि तहू बंधु सम बाम॥
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निपटहिं द्विज करि जानहि मोही। मैं जस बिप्र सुनावउ तोही॥
चाप स्त्रुवा सर आहुति जानू। कोप मोर अति घोर कृसानु
समिधि सेन चतुरंग सुहाई। महा महीप भए पसु आई॥
मै एहि परसु काटि बलि दीन्हे। समर जग्य जप कोटिन्ह कीन्हे
मोर प्रभाउ बिदित नहि तोरें। बोलसि निदरि बिप्र के भोरे॥
भंजेउ चापु दापु बड़ बाढ़ा। अहमिति मनहु जीति जगु ठाढ़ा
राम कहा मुनि कहहु बिचारी। रिस अति बड़ि लघु चूक हमारी॥
छुअतहिं टूट पिनाक पुराना। मैं कहि हेतु करौ अभिमाना
जौ हम निदरहिं बिप्र बदि सत्य सुनहु भृगुनाथ।
तौ अस को जग सुभटु जेहि भय बस नावहिं माथ
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देव दनुज भूपति भट नाना। समबल अधिक होउ बलवाना॥
जौं रन हमहि पचारै कोऊ। लरहिं सुखेन कालु किन होऊ
छत्रिय तनु धरि समर सकाना। कुल कलंकु तेहिं पावर आना॥
कहउ सुभाउ न कुलहि प्रसंसी। कालहु डरहिं न रन रघुबंसी
बिप्रबंस कै असि प्रभुताई। अभय होइ जो तुम्हहि डेराई॥
सुनु मृदु गूढ़ बचन रघुपति के। उघरे पटल परसुधर मति के
राम रमापति कर धनु लेहू। खैंचहु मिटै मोर संदेहू॥
देत चापु आपुहिं चलि गयऊ। परसुराम मन बिसमय भयऊ
जाना राम प्रभाउ तब पुलक प्रफुल्लित गात।
जोरि पानि बोले बचन ह्दय न प्रेमु अमात
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जय रघुबंस बनज बन भानू। गहन दनुज कुल दहन कृसानु॥
जय सुर बिप्र धेनु हितकारी। जय मद मोह कोह भ्रम हारी
बिनय सील करुना गुन सागर। जयति बचन रचना अति नागर॥
सेवक सुखद सुभग सब अंगा। जय सरीर छबि कोटि अनंगा॥
करौं काह मुख एक प्रसंसा। जय महेस मन मानस हंसा॥
अनुचित बहुत कहेउ अग्याता। छमहु छमामंदिर दोउ भ्राता
कहि जय जय जय रघुकुलकेतू। भृगुपति गए बनहि तप हेतू॥
अपभय कुटिल महीप डेराने। जहँ तहँ कायर गवहिं पराने
देवन्ह दीन्ही दुंदुभी प्रभु पर बरषहि फूल।
हरषे पुर नर नारि सब मिटी मोहमय सूल॥
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अति गहगहे बाजने बाजे। सबहिं मनोहर मंगल साजे॥
जूथ जूथ मिलि सुमुख सुनयनीं। करहिं गान कल कोकिलबयनी
सुखु बिदेह कर बरनि न जाई। जन्मदरिद्र मनहु निधि पाई॥
बिगत त्रास भइ सीय सुखारी। जनु बिधु उदय चकोरकुमारी॥
जनक कीन्ह कौसिकहि प्रनामा। प्रभु प्रसाद धनु भंजेउ रामा॥
मोहि कृतकृत्य कीन्ह दुहु भाईं। अब जो उचित सो कहिअ गोसाई
कह मुनि सुनु नरनाथ प्रबीना। रहा बिबाहु चाप आधीना॥
टूटतहीं धनु भयउ बिबाहू। सुर नर नाग बिदित सब काहु
तदपि जाइ तुम्ह करहु अब जथा बंस ब्यवहारु।
बूझि बिप्र कुलबृद्ध गुर बेद बिदित आचारु
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दूत अवधपुर पठवहु जाई। आनहिं नृप दसरथहि बोलाई॥
मुदित राउ कहि भलेहिं कृपाला। पठए दूत बोलि तेहि काला
बहुरि महाजन सकल बोलाए। आइ सबन्हि सादर सिर नाए॥
हाट बाट मंदिर सुरबासा। नगरु सँवारहु चारिहु पासा
हरषि चले निज निज गृह आए। पुनि परिचारक बोलि पठाए॥
रचहु बिचित्र बितान बनाई। सिर धरि बचन चले सचु पाई
पठए बोलि गुनी तिन्ह नाना। जे बितान बिधि कुसल सुजाना॥
बिधिहि बंदि तिन्ह कीन्ह अरंभा। बिरचे कनक कदलि के खंभा
हरित मनिन्ह के पत्र फल पदुमराग के फूल।
रचना देखि बिचित्र अति मनु बिरंचि कर भूल
राजीव कुमार कुलश्रेष्ठ
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बेनि हरित मनिमय सब कीन्हे। सरल सपरब परहि नहि चीन्हे॥
कनक कलित अहिबेल बनाई। लखि नहि परइ सपरन सुहाई
तेहि के रचि पचि बंध बनाए। बिच बिच मुकता दाम सुहाए॥
मानिक मरकत कुलिस पिरोजा। चीरि कोरि पचि रचे सरोजा
किए भृंग बहुरंग बिहंगा। गुंजहि कूजहि पवन प्रसंगा॥
सुर प्रतिमा खंभन गढ़ि काढ़ी। मंगल द्रब्य लिए सब ठाढ़ी
चौंके भाँति अनेक पुराई। सिंधुर मनिमय सहज सुहाई
सौरभ पल्लव सुभग सुठि किए नीलमनि कोरि॥
हेम बौर मरकत घवरि लसत पाटमय डोरि
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रचे रुचिर बर बंदनिबारे। मनहु मनोभव फंद सँवारे॥
मंगल कलस अनेक बनाए। ध्वज पताक पट चमर सुहाए॥
दीप मनोहर मनिमय नाना। जाइ न बरनि बिचित्र बिताना॥
जेहि मंडप दुलहिन बैदेही। सो बरनै असि मति कबि केही
दूलहु रामु रूप गुन सागर। सो बितानु तिहु लोक उजागर॥
जनक भवन कै सौभा जैसी। गृह गृह प्रति पुर देखिअ तैसी
जेहिं तेरहुति तेहि समय निहारी। तेहि लघु लगहिं भुवन दस चारी॥
जो संपदा नीच गृह सोहा। सो बिलोकि सुरनायक मोहा
बसइ नगर जेहि लच्छ करि कपट नारि बर बेषु॥
तेहि पुर कै सोभा कहत सकुचहिं सारद सेषु॥
राजीव कुमार कुलश्रेष्ठ
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पहुँचे दूत राम पुर पावन। हरषे नगर बिलोकि सुहावन॥
भूप द्वार तिन्ह खबरि जनाई। दसरथ नृप सुनि लिए बोलाई
करि प्रनामु तिन्ह पाती दीन्ही। मुदित महीप आपु उठि लीन्ही॥
बारि बिलोचन बाचत पाती। पुलक गात आई भरि छाती
रामु लखनु उर कर बर चीठी। रहि गए कहत न खाटी मीठी॥
पुनि धरि धीर पत्रिका बाँची। हरषी सभा बात सुनि साँची॥
खेलत रहे तहाँ सुधि पाई। आए भरतु सहित हित भाई॥
पूछत अति सनेह सकुचाई। तात कहाँ ते पाती आई
कुसल प्रानप्रिय बंधु दोउ अहहिं कहहु केहि देस।
सुनि सनेह साने बचन बाची बहुरि नरेस॥
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सुनि पाती पुलके दोउ भ्राता। अधिक सनेहु समात न गाता॥
प्रीति पुनीत भरत कै देखी। सकल सभा सुखु लहेउ बिसेषी
तब नृप दूत निकट बैठारे। मधुर मनोहर बचन उचारे॥
भैया कहहु कुसल दोउ बारे। तुम्ह नीके निज नयन निहारे
स्यामल गौर धरें धनु भाथा। बय किसोर कौसिक मुनि साथा॥
पहिचानहु तुम्ह कहहु सुभाऊ। प्रेम बिबस पुनि पुनि कह राऊ
जा दिन ते मुनि गए लवाई। तब तें आजु साँचि सुधि पाई॥
कहहु बिदेह कवन बिधि जाने। सुनि प्रिय बचन दूत मुसकाने
सुनहु महीपति मुकुट मनि तुम्ह सम धन्य न कोउ।
रामु लखनु जिन्ह के तनय बिस्व बिभूषन दोउ॥
राजीव कुमार कुलश्रेष्ठ
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पूछन जोगु न तनय तुम्हारे। पुरुषसिंघ तिहु पुर उजिआरे॥
जिन्ह के जस प्रताप के आगे। ससि मलीन रबि सीतल लागे
तिन्ह कहँ कहिअ नाथ किमि चीन्हे। देखिअ रबि कि दीप कर लीन्हे॥
सीय स्वयंबर भूप अनेका। समिटे सुभट एक ते एका
संभु सरासनु काहु न टारा। हारे सकल बीर बरिआरा॥
तीनि लोक मह जे भटमानी। सभ कै सकति संभु धनु भानी
सकइ उठाइ सरासुर मेरू। सोउ हिय हारि गयउ करि फेरू॥
जेहि कौतुक सिवसैलु उठावा। सोउ तेहि सभा पराभउ पावा
तहाँ राम रघुबंस मनि सुनिअ महा महिपाल।
भंजेउ चाप प्रयास बिनु जिमि गज पंकज नाल
राजीव कुमार कुलश्रेष्ठ
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सुनि सरोष भृगुनायकु आए। बहुत भाँति तिन्ह आँखि देखाए॥
देखि राम बलु निज धनु दीन्हा। करि बहु बिनय गवनु बन कीन्हा
राजन रामु अतुलबल जैसे। तेज निधान लखनु पुनि तैसे॥
कंपहि भूप बिलोकत जाके। जिमि गज हरि किसोर के ताके
देव देखि तव बालक दोऊ। अब न आँखि तर आवत कोऊ॥
दूत बचन रचना प्रिय लागी। प्रेम प्रताप बीर रस पागी
सभा समेत राउ अनुरागे। दूतन्ह देन निछावरि लागे॥
कहि अनीति ते मूदहिं काना। धरमु बिचारि सबहिं सुख माना
तब उठि भूप बसिष्ठ कहु दीन्हि पत्रिका जाइ।
कथा सुनाई गुरहि सब सादर दूत बोलाइ
राजीव कुमार कुलश्रेष्ठ
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सुनि बोले गुर अति सुखु पाई। पुन्य पुरुष कहु महि सुख छाई॥
जिमि सरिता सागर महु जाहीं। जद्यपि ताहि कामना नाहीं
तिमि सुख संपति बिनहि बोलाए। धरमसील पहिं जाहि सुभाए॥
तुम्ह गुर बिप्र धेनु सुर सेबी। तसि पुनीत कौसल्या देबी
सुकृती तुम्ह समान जग माहीं। भयउ न है कोउ होनेउ नाहीं॥
तुम्ह ते अधिक पुन्य बड़ काके। राजन राम सरिस सुत जाके
बीर बिनीत धरम ब्रत धारी। गुन सागर बर बालक चारी॥
तुम्ह कहु सर्ब काल कल्याना। सजहु बरात बजाइ निसाना
चलहु बेगि सुनि गुर बचन भलेहि नाथ सिरु नाइ।
भूपति गवने भवन तब दूतन्ह बासु देवाइ
राजीव कुमार कुलश्रेष्ठ
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राजा सबु रनिवास बोलाई। जनक पत्रिका बाचि सुनाई॥
सुनि संदेसु सकल हरषानी। अपर कथा सब भूप बखानी
प्रेम प्रफुल्लित राजहिं रानी। मनहु सिखिनि सुनि बारिद बानी॥
मुदित असीस देहिं गुरु नारीं। अति आनंद मगन महतारीं
लेहि परस्पर अति प्रिय पाती। हृदय लगाइ जुड़ावहि छाती॥
राम लखन कै कीरति करनी। बारहिं बार भूपबर बरनी
मुनि प्रसादु कहि द्वार सिधाए। रानिन्ह तब महिदेव बोलाए॥
दिए दान आनंद समेता। चले बिप्रबर आसिष देता
राजीव कुमार कुलश्रेष्ठ
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जाचक लिए हँकारि दीन्हि निछावरि कोटि बिधि।
चिरु जीवहु सुत चारि चक्रबर्ति दसरथ के
कहत चले पहिरेत पट नाना। हरषि हने गहगहे निसाना॥
समाचार सब लोगन्ह पाए। लागे घर घर होन बधाए
भुवन चारि दस भरा उछाहू। जनकसुता रघुबीर बिआहू॥
सुनि सुभ कथा लोग अनुरागे। मग गृह गली सँवारन लागे
जद्यपि अवध सदैव सुहावनि। राम पुरी मंगलमय पावनि॥
तदपि प्रीति कै प्रीति सुहाई। मंगल रचना रची बनाई
ध्वज पताक पट चामर चारु। छावा परम बिचित्र बजारू॥
कनक कलस तोरन मनि जाला। हरद दूब दधि अच्छत माला
मंगलमय निज निज भवन लोगन्ह रचे बनाइ।
बीथी सीची चतुरसम चौके चारु पुराइ
राजीव कुमार कुलश्रेष्ठ
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जहँ तहँ जूथ जूथ मिलि भामिनि। सजि नव सप्त सकल दुति दामिनि॥
बिधुबदनीं मृग सावक लोचनि। निज सरुप रति मानु बिमोचनि
गावहिं मंगल मंजुल बानी। सुनि कल रव कलकंठि लजानी॥
भूप भवन किमि जाइ बखाना। बिस्व बिमोहन रचेउ बिताना॥
मंगल द्रब्य मनोहर नाना। राजत बाजत बिपुल निसाना॥
कतहु बिरिद बंदी उच्चरहीं। कतहु बेद धुनि भूसुर करहीं
गावहिं सुंदरि मंगल गीता। लै लै नामु रामु अरु सीता॥
बहुत उछाहु भवनु अति थोरा। मानहु उमगि चला चहु ओरा
सोभा दसरथ भवन कइ को कबि बरनै पार।
जहाँ सकल सुर सीस मनि राम लीन्ह अवतार
राजीव कुमार कुलश्रेष्ठ
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भूप भरत पुनि लिए बोलाई। हय गय स्यंदन साजहु जाई॥
चलहु बेगि रघुबीर बराता। सुनत पुलक पूरे दोउ भ्राता
भरत सकल साहनी बोलाए। आयसु दीन्ह मुदित उठि धाए॥
रचि रुचि जीन तुरग तिन्ह साजे। बरन बरन बर बाजि बिराजे
सुभग सकल सुठि चंचल करनी। अय इव जरत धरत पग धरनी॥
नाना जाति न जाहिं बखाने। निदरि पवनु जनु चहत उड़ाने
तिन्ह सब छयल भए असवारा। भरत सरिस बय राजकुमारा॥
सब सुंदर सब भूषनधारी। कर सर चाप तून कटि भारी
छरे छबीले छयल सब सूर सुजान नबीन।
जुग पदचर असवार प्रति जे असिकला प्रबीन
राजीव कुमार कुलश्रेष्ठ
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बाँधे बिरद बीर रन गाढ़े। निकसि भए पुर बाहेर ठाढ़े॥
फेरहिं चतुर तुरग गति नाना। हरषहिं सुनि सुनि पवन निसाना
रथ सारथिन्ह बिचित्र बनाए। ध्वज पताक मनि भूषन लाए॥
चवँर चारु किंकिन धुनि करही। भानु जान सोभा अपहरहीं
सावकरन अगनित हय होते। ते तिन्ह रथन्ह सारथिन्ह जोते॥
सुंदर सकल अलंकृत सोहे। जिन्हहि बिलोकत मुनि मन मोहे
जे जल चलहिं थलहि की नाई। टाप न बूड़ बेग अधिकाई॥
अस्त्र सस्त्र सबु साजु बनाई। रथी सारथिन्ह लिए बोलाई
चढ़ि चढ़ि रथ बाहेर नगर लागी जुरन बरात।
होत सगुन सुन्दर सबहि जो जेहि कारज जात
राजीव कुमार कुलश्रेष्ठ
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कलित करिबरन्हि परीं अंबारीं। कहि न जाहिं जेहि भाँति संवारी
चले मत्तगज घंट बिराजी। मनहु सुभग सावन घन राजी
बाहन अपर अनेक बिधाना। सिबिका सुभग सुखासन जाना॥
तिन्ह चढ़ि चले बिप्रबर बृन्दा। जनु तनु धरें सकल श्रुति छंदा
मागध सूत बंदि गुनगायक। चले जान चढ़ि जो जेहि लायक॥
बेसर ऊँट बृषभ बहु जाती। चले बस्तु भरि अगनित भांती
कोटिन्ह कांवरि चले कहारा। बिबिध बस्तु को बरनै पारा॥
चले सकल सेवक समुदाई। निज निज साजु समाजु बनाई
सब के उर निर्भर हरषु पूरित पुलक सरीर।
कबहि देखिबे नयन भरि रामु लखनू दोउ बीर॥

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