शनिवार, मई 15, 2010

अरण्यकाण्ड 2

tulasi das .. Ram Charit Manas..ramayan
story of the lord rama..king of ayodhya
सुर नर असुर नाग खग माहीं। मोरे अनुचर कह कोउ नाहीं।।
खर दूषन मोहि सम बलवंता। तिन्हहि को मारइ बिनु भगवंता।।
सुर रंजन भंजन महि भारा। जो भगवंत लीन्ह अवतारा।।
तौ मै जाइ बैरु हठि करऊ। प्रभु सर प्रान तजे भव तरऊ।।
होइहि भजनु न तामस देहा। मन क्रम बचन मंत्र दृढ़ एहा।।
जौ नररुप भूपसुत कोऊ। हरिहउ नारि जीति रन दोऊ।।
चला अकेल जान चढि तहवा। बस मारीच सिंधु तट जहवा।।
इहाँ राम जसि जुगुति बनाई। सुनहु उमा सो कथा सुहाई।।
लछिमन गए बनहि जब लेन मूल फल कंद।
जनकसुता सन बोले बिहसि कृपा सुख बृंद
राजीव कुमार कुलश्रेष्ठ
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सुनहु प्रिया ब्रत रुचिर सुसीला। मैं कछु करबि ललित नरलीला।।
तुम्ह पावक महु करहु निवासा। जौ लगि करों निसाचर नासा।।
जबहि राम सब कहा बखानी। प्रभु पद धरि हिय अनल समानी।।
निज प्रतिबिंब राखि तहँ सीता। तैसइ सील रुप सुबिनीता।।
लछिमनहू यह मरमु न जाना। जो कछु चरित रचा भगवाना।।
दसमुख गयउ जहाँ मारीचा। नाइ माथ स्वारथ रत नीचा।।
नवनि नीच कै अति दुखदाई। जिमि अंकुस धनु उरग बिलाई।।
भयदायक खल कै प्रिय बानी। जिमि अकाल के कुसुम भवानी।।
करि पूजा मारीच तब सादर पूछी बात।
कवन हेतु मन ब्यग्र अति अकसर आयहु तात
राजीव कुमार कुलश्रेष्ठ
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दसमुख सकल कथा तेहि आगे। कही सहित अभिमान अभागे।।
होहु कपट मृग तुम्ह छलकारी। जेहि बिधि हरि आनौ नृपनारी।।
तेहि पुनि कहा सुनहु दससीसा। ते नररुप चराचर ईसा।।
तासों तात बयरु नहिं कीजे। मारे मरिअ जिआए जीजै।।
मुनि मख राखन गयउ कुमारा। बिनु फर सर रघुपति मोहि मारा।।
सत जोजन आयउ छन माहीं। तिन्ह सन बयरु किए भल नाहीं।।
भइ मम कीट भृंग की नाई। जहँ तहँ मैं देखउ दोउ भाई।।
जौ नर तात तदपि अति सूरा। तिन्हहि बिरोधि न आइहि पूरा।।
जेहिं ताड़का सुबाहु हति खंडेउ हर कोदंड।।
खर दूषन तिसिरा बधेउ मनुज कि अस बरिबंड
राजीव कुमार कुलश्रेष्ठ
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जाहु भवन कुल कुसल बिचारी। सुनत जरा दीन्हिसि बहु गारी।।
गुरु जिमि मूढ़ करसि मम बोधा। कहु जग मोहि समान को जोधा।।
तब मारीच हृदय अनुमाना। नवहि बिरोधे नहि कल्याना।।
सस्त्री मर्मी प्रभु सठ धनी। बैद बंदि कबि भानस गुनी।।
उभय भाँति देखा निज मरना। तब ताकिसि रघुनायक सरना।।
उतरु देत मोहि बधब अभागे। कस न मरों रघुपति सर लागे।।
अस जिय जानि दसानन संगा। चला राम पद प्रेम अभंगा।।
मन अति हरष जनाव न तेही। आजु देखिहउ परम सनेही।।
राजीव कुमार कुलश्रेष्ठ
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निज परम प्रीतम देखि लोचन सुफल करि सुख पाइहौं।
श्री सहित अनुज समेत कृपानिकेत पद मन लाइहौं।।
निर्बान दायक क्रोध जा कर भगति अबसहि बसकरी।
निज पानि सर संधानि सो मोहि बधिहि सुखसागर हरी।।
मम पाछे धर धावत धरे सरासन बान।
फिरि फिरि प्रभुहि बिलोकिहउ धन्य न मो सम आन
राजीव कुमार कुलश्रेष्ठ
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तेहि बन निकट दसानन गयऊ। तब मारीच कपटमृग भयऊ।।
अति बिचित्र कछु बरनि न जाई। कनक देह मनि रचित बनाई।।
सीता परम रुचिर मृग देखा। अंग अंग सुमनोहर बेषा।।
सुनहु देव रघुबीर कृपाला। एहि मृग कर अति सुंदर छाला।।
सत्यसंध प्रभु बधि करि एही। आनहु चर्म कहति बैदेही।।
तब रघुपति जानत सब कारन। उठे हरषि सुर काजु संवारन।।
मृग बिलोकि कटि परिकर बाँधा। करतल चाप रुचिर सर साँधा।।
प्रभु लछिमनिहि कहा समुझाई। फिरत बिपिन निसिचर बहु भाई।।
सीता केरि करेहु रखवारी। बुधि बिबेक बल समय बिचारी।।
प्रभुहि बिलोकि चला मृग भाजी। धाए रामु सरासन साजी।।
निगम नेति सिव ध्यान न पावा। मायामृग पाछे सो धावा।।
कबहु निकट पुनि दूरि पराई। कबहुक प्रगटइ कबहु छपाई।।
प्रगटत दुरत करत छल भूरी। एहि बिधि प्रभुहि गयउ लै दूरी।।
तब तकि राम कठिन सर मारा। धरनि परेउ करि घोर पुकारा।।
लछमन कर प्रथमहि लै नामा। पाछे सुमरेसि मन महु रामा।।
प्रान तजत प्रगटेसि निज देहा। सुमरेसि रामु समेत सनेहा।।
अंतर प्रेम तासु पहिचाना। मुनि दुर्लभ गति दीन्हि सुजाना।।
बिपुल सुमन सुर बरषहि गावहि प्रभु गुन गाथ।
निज पद दीन्ह असुर कहु दीनबंधु रघुनाथ
राजीव कुमार कुलश्रेष्ठ
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खल बधि तुरत फिरे रघुबीरा। सोह चाप कर कटि तूनीरा।।
आरत गिरा सुनी जब सीता। कह लछिमन सन परम सभीता।।
जाहु बेगि संकट अति भ्राता। लछिमन बिहसि कहा सुनु माता।।
भृकुटि बिलास सृष्टि लय होई। सपनेहु संकट परइ कि सोई।।
मरम बचन जब सीता बोला। हरि प्रेरित लछिमन मन डोला।।
बन दिसि देव सौंपि सब काहू। चले जहाँ रावन ससि राहू।।
सून बीच दसकंधर देखा। आवा निकट जती के बेषा।।
जाके डर सुर असुर डेराही। निसि न नीद दिन अन्न न खाही।।
सो दससीस स्वान की नाई। इत उत चितइ चला भड़िहाई।।
इमि कुपंथ पग देत खगेसा। रह न तेज बुधि बल लेसा।।
नाना बिधि करि कथा सुहाई। राजनीति भय प्रीति देखाई।।
कह सीता सुनु जती गोसाईं। बोलेहु बचन दुष्ट की नाईं।।
तब रावन निज रूप देखावा। भई सभय जब नाम सुनावा।।
कह सीता धरि धीरजु गाढ़ा। आइ गयउ प्रभु रहु खल ठाढ़ा।।
जिमि हरिबधुहि छुद्र सस चाहा। भएसि कालबस निसिचर नाहा।।
सुनत बचन दससीस रिसाना। मन महु चरन बंदि सुख माना।।
क्रोधवंत तब रावन लीन्हिसि रथ बैठाइ।
चला गगनपथ आतुर भय रथ हाँकि न जाइ
राजीव कुमार कुलश्रेष्ठ
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हा जग एक बीर रघुराया। केहि अपराध बिसारेहु दाया।।
आरति हरन सरन सुखदायक। हा रघुकुल सरोज दिननायक।।
हा लछिमन तुम्हार नहि दोसा। सो फलु पायउ कीन्हेउ रोसा।।
बिबिध बिलाप करति बैदेही। भूरि कृपा प्रभु दूरि सनेही।।
बिपति मोरि को प्रभुहि सुनावा। पुरोडास चह रासभ खावा।।
सीता कै बिलाप सुनि भारी। भए चराचर जीव दुखारी।।
गीधराज सुनि आरत बानी। रघुकुलतिलक नारि पहिचानी।।
अधम निसाचर लीन्हे जाई। जिमि मलेछ बस कपिला गाई।।
सीते पुत्रि करसि जनि त्रासा। करिहउ जातुधान कर नासा।।
धावा क्रोधवंत खग कैसे। छूटइ पबि परबत कहु जैसे।।
रे रे दुष्ट ठाढ़ किन होही। निर्भय चलेसि न जानेहि मोही।।
आवत देखि कृतांत समाना। फिरि दसकंधर कर अनुमाना।।
की मैनाक कि खगपति होई। मम बल जान सहित पति सोई।।
जाना जरठ जटायू एहा। मम कर तीरथ छाँड़िहि देहा।।
सुनत गीध क्रोधातुर धावा। कह सुनु रावन मोर सिखावा।।
तजि जानकिहि कुसल गृह जाहू। नाहिं त अस होइहि बहुबाहू।।
राम रोष पावक अति घोरा। होइहि सकल सलभ कुल तोरा।।
उतरु न देत दसानन जोधा। तबहिं गीध धावा करि क्रोधा।।
धरि कच बिरथ कीन्ह महि गिरा। सीतहि राखि गीध पुनि फिरा।।
चौचन्ह मारि बिदारेसि देही। दंड एक भइ मुरुछा तेही।।
तब सक्रोध निसिचर खिसिआना। काढ़ेसि परम कराल कृपाना।।
काटेसि पंख परा खग धरनी। सुमिरि राम करि अदभुत करनी।।
सीतहि जानि चढ़ाइ बहोरी। चला उताइल त्रास न थोरी।।
करति बिलाप जाति नभ सीता। ब्याध बिबस जनु मृगी सभीता।।
गिरि पर बैठे कपिन्ह निहारी। कहि हरि नाम दीन्ह पट डारी।।
एहि बिधि सीतहि सो लै गयऊ। बन असोक मह राखत भयऊ।।
हारि परा खल बहु बिधि भय अरु प्रीति देखाइ।
तब असोक पादप तर राखिसि जतन कराइ
राजीव कुमार कुलश्रेष्ठ
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नवान्हपारायण, छठा विश्राम
जेहि बिधि कपट कुरंग संग धाइ चले श्रीराम।
सो छबि सीता राखि उर रटति रहति हरिनाम
रघुपति अनुजहि आवत देखी। बाहिज चिंता कीन्हि बिसेषी।।
जनकसुता परिहरिहु अकेली। आयहु तात बचन मम पेली।।
निसिचर निकर फिरहिं बन माहीं। मम मन सीता आश्रम नाहीं।।
गहि पद कमल अनुज कर जोरी। कहेउ नाथ कछु मोहि न खोरी।।
अनुज समेत गए प्रभु तहवाँ। गोदावरि तट आश्रम जहवाँ।।
आश्रम देखि जानकी हीना। भए बिकल जस प्राकृत दीना।।
हा गुन खानि जानकी सीता। रूप सील ब्रत नेम पुनीता।।
लछिमन समुझाए बहु भांती। पूछत चले लता तरु पाती।।
हे खग मृग हे मधुकर श्रेनी। तुम्ह देखी सीता मृगनैनी।।
खंजन सुक कपोत मृग मीना। मधुप निकर कोकिला प्रबीना।।
कुंद कली दाड़िम दामिनी। कमल सरद ससि अहिभामिनी।।
बरुन पास मनोज धनु हंसा। गज केहरि निज सुनत प्रसंसा।।
श्रीफल कनक कदलि हरषाहीं। नेकु न संक सकुच मन माहीं।।
सुनु जानकी तोहि बिनु आजू। हरषे सकल पाइ जनु राजू।।
किमि सहि जात अनख तोहि पाहीं । प्रिया बेगि प्रगटसि कस नाहीं।।
एहि बिधि खौजत बिलपत स्वामी। मनहु महा बिरही अति कामी।।
पूरनकाम राम सुख रासी। मनुज चरित कर अज अबिनासी।।
आगे परा गीधपति देखा। सुमिरत राम चरन जिन्ह रेखा।।
कर सरोज सिर परसेउ कृपासिंधु रधुबीर।।
निरखि राम छबि धाम मुख बिगत भई सब पीर
राजीव कुमार कुलश्रेष्ठ
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तब कह गीध बचन धरि धीरा । सुनहु राम भंजन भव भीरा।।
नाथ दसानन यह गति कीन्ही। तेहि खल जनकसुता हरि लीन्ही।।
लै दच्छिन दिसि गयउ गोसाई। बिलपति अति कुररी की नाई।।
दरस लागी प्रभु राखेउ प्राना। चलन चहत अब कृपानिधाना।।
राम कहा तनु राखहु ताता। मुख मुसकाइ कही तेहिं बाता।।
जा कर नाम मरत मुख आवा। अधमउ मुकुत होई श्रुति गावा।।
सो मम लोचन गोचर आगे। राखौ देह नाथ केहि खागे।।
जल भरि नयन कहहि रघुराई। तात कर्म निज ते गतिं पाई।।
परहित बस जिन्ह के मन माही। तिन्ह कहु जग दुर्लभ कछु नाही।।
तनु तजि तात जाहु मम धामा। देउ काह तुम्ह पूरनकामा।।
सीता हरन तात जनि कहहु पिता सन जाइ।।
जौ मै राम त कुल सहित कहिहि दसानन आइ
राजीव कुमार कुलश्रेष्ठ
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गीध देह तजि धरि हरि रुपा। भूषन बहु पट पीत अनूपा।।
स्याम गात बिसाल भुज चारी। अस्तुति करत नयन भरि बारी।।
जय राम रूप अनूप निर्गुन सगुन गुन प्रेरक सही।
दससीस बाहु प्रचंड खंडन चंड सर मंडन मही।।
पाथोद गात सरोज मुख राजीव आयत लोचन।
नित नौमि रामु कृपाल बाहु बिसाल भव भय मोचन
बलमप्रमेयमनादिमजमब्यक्तमेकमगोचर।
गोबिंद गोपर द्वंद्वहर बिग्यानघन धरनीधर।।
जे राम मंत्र जपंत संत अनंत जन मन रंजन।
नित नौमि राम अकाम प्रिय कामादि खल दल गंजन
जेहि श्रुति निरंजन ब्रह्म ब्यापक बिरज अज कहि गावहीं।।
करि ध्यान ग्यान बिराग जोग अनेक मुनि जेहि पावहीं।।
सो प्रगट करुना कंद सोभा बृंद अग जग मोहई।
मम हृदय पंकज भृंग अंग अनंग बहु छबि सोहई।।
जो अगम सुगम सुभाव निर्मल असम सम सीतल सदा।
पस्यंति ज जोगी जतन करि करत मन गो बस सदा।।
सो राम रमा निवास संतत दास बस त्रिभुवन धनी।
मम उर बसउ सो समन संसृति जासु कीरति पावनी
राजीव कुमार कुलश्रेष्ठ
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अबिरल भगति मागि बर गीध गयउ हरिधाम।
तेहि की क्रिया जथोचित निज कर कीन्ही राम
कोमल चित अति दीनदयाला। कारन बिनु रघुनाथ कृपाला।।
गीध अधम खग आमिष भोगी। गति दीन्हि जो जाचत जोगी।।
सुनहु उमा ते लोग अभागी। हरि तजि होहिं बिषय अनुरागी।।
पुनि सीतहि खोजत द्वौ भाई। चले बिलोकत बन बहुताई।।
संकुल लता बिटप घन कानन। बहु खग मृग तहँ गज पंचानन।।
आवत पंथ कबंध निपाता। तेहिं सब कही साप कै बाता।।
दुरबासा मोहि दीन्ही सापा। प्रभु पद पेखि मिटा सो पापा।।
सुनु गंधर्ब कहउ मै तोही। मोहि न सोहाइ ब्रह्मकुल द्रोही।।
राजीव कुमार कुलश्रेष्ठ
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मन क्रम बचन कपट तजि जो कर भूसुर सेव।
मोहि समेत बिरंचि सिव बस ताके सब देव
सापत ताड़त परुष कहंता। बिप्र पूज्य अस गावहिं संता।।
पूजिअ बिप्र सील गुन हीना। सूद्र न गुन गन ग्यान प्रबीना।।
कहि निज धर्म ताहि समुझावा। निज पद प्रीति देखि मन भावा।।
रघुपति चरन कमल सिरु नाई। गयउ गगन आपनि गति पाई।।
ताहि देइ गति राम उदारा। सबरी के आश्रम पगु धारा।।
सबरी देखि राम गृह आए। मुनि के बचन समुझि जिय भाए।।
सरसिज लोचन बाहु बिसाला। जटा मुकुट सिर उर बनमाला।।
स्याम गौर सुंदर दोउ भाई। सबरी परी चरन लपटाई।।
प्रेम मगन मुख बचन न आवा। पुनि पुनि पद सरोज सिर नावा।।
सादर जल लै चरन पखारे। पुनि सुंदर आसन बैठारे।।
कंद मूल फल सुरस अति दिए राम कहु आनि।
प्रेम सहित प्रभु खाए बारंबार बखानि
राजीव कुमार कुलश्रेष्ठ
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पानि जोरि आगे भइ ठाढ़ी। प्रभुहि बिलोकि प्रीति अति बाढ़ी।।
केहि बिधि अस्तुति करौ तुम्हारी। अधम जाति मैं जड़मति भारी।।
अधम ते अधम अधम अति नारी। तिन्ह मह मैं मतिमंद अघारी।।
कह रघुपति सुनु भामिनि बाता। मानउ एक भगति कर नाता।।
जाति पाँति कुल धर्म बड़ाई। धन बल परिजन गुन चतुराई।।
भगति हीन नर सोहइ कैसा। बिनु जल बारिद देखिअ जैसा।।
नवधा भगति कहउ तोहि पाही। सावधान सुनु धरु मन माही।।
प्रथम भगति संतन्ह कर संगा। दूसरि रति मम कथा प्रसंगा।।
गुर पद पंकज सेवा तीसरि भगति अमान।
चौथि भगति मम गुन गन करइ कपट तजि गान
राजीव कुमार कुलश्रेष्ठ
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मंत्र जाप मम दृढ़ बिस्वासा। पंचम भजन सो बेद प्रकासा।।
छठ दम सील बिरति बहु करमा। निरत निरंतर सज्जन धरमा।।
सातव सम मोहि मय जग देखा। मोते संत अधिक करि लेखा।।
आठव जथालाभ संतोषा। सपनेहु नहिं देखइ परदोषा।।
नवम सरल सब सन छलहीना। मम भरोस हिय हरष न दीना।।
नव महु एकउ जिन्ह के होई। नारि पुरुष सचराचर कोई।।
सोइ अतिसय प्रिय भामिनि मोरे। सकल प्रकार भगति दृढ़ तोरे।।
जोगि बृंद दुरलभ गति जोई। तो कहु आजु सुलभ भइ सोई।।
मम दरसन फल परम अनूपा। जीव पाव निज सहज सरूपा।।
जनकसुता कइ सुधि भामिनी। जानहि कहु करिबरगामिनी।।
पंपा सरहि जाहु रघुराई। तहँ होइहि सुग्रीव मिताई।।
सो सब कहिहि देव रघुबीरा। जानतहू पूछहु मतिधीरा।।
बार बार प्रभु पद सिरु नाई। प्रेम सहित सब कथा सुनाई।।
राजीव कुमार कुलश्रेष्ठ
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कहि कथा सकल बिलोकि हरि मुख हृदय पद पंकज धरे।
तजि जोग पावक देह हरि पद लीन भइ जहँ नहिं फिरे।।
नर बिबिध कर्म अधर्म बहु मत सोकप्रद सब त्यागहू।
बिस्वास करि कह दास तुलसी राम पद अनुरागहू।।
जाति हीन अघ जन्म महि मुक्त कीन्हि असि नारि।
महामंद मन सुख चहसि ऐसे प्रभुहि बिसारि
राजीव कुमार कुलश्रेष्ठ
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चले राम त्यागा बन सोऊ। अतुलित बल नर केहरि दोऊ।।
बिरही इव प्रभु करत बिषादा। कहत कथा अनेक संबादा।।
लछिमन देखु बिपिन कइ सोभा। देखत केहि कर मन नहि छोभा।।
नारि सहित सब खग मृग बृंदा। मानहु मोरि करत हहि निंदा।।
हमहि देखि मृग निकर पराहीं। मृगी कहहिं तुम्ह कह भय नाही।।
तुम्ह आनंद करहु मृग जाए। कंचन मृग खोजन ए आए।।
संग लाइ करिनी करि लेही। मानहु मोहि सिखावनु देही।।
सास्त्र सुचिंतित पुनि पुनि देखिअ। भूप सुसेवित बस नहिं लेखिअ।।
राखिअ नारि जदपि उर माहीं। जुबती सास्त्र नृपति बस नाहीं।।
देखहु तात बसंत सुहावा। प्रिया हीन मोहि भय उपजावा।।
बिरह बिकल बलहीन मोहि जानेसि निपट अकेल।
सहित बिपिन मधुकर खग मदन कीन्ह बगमेल
देखि गयउ भ्राता सहित तासु दूत सुनि बात।
डेरा कीन्हेउ मनहु तब कटकु हटकि मनजात
राजीव कुमार कुलश्रेष्ठ
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बिटप बिसाल लता अरुझानी। बिबिध बितान दिए जनु तानी।।
कदलि ताल बर धुजा पताका। दैखि न मोह धीर मन जाका।।
बिबिध भाँति फूले तरु नाना। जनु बानैत बने बहु बाना।।
कहुँ कहुँ सुन्दर बिटप सुहाए। जनु भट बिलग बिलग होइ छाए।।
कूजत पिक मानहु गज माते। ढेक महोख ऊँट बिसराते।।
मोर चकोर कीर बर बाजी। पारावत मराल सब ताजी।।
तीतिर लावक पदचर जूथा। बरनि न जाइ मनोज बरुथा।।
रथ गिरि सिला दुंदुभी झरना। चातक बंदी गुन गन बरना।।
मधुकर मुखर भेरि सहनाई। त्रिबिध बयारि बसीठी आई।।
चतुरंगिनी सेन सँग लीन्हें। बिचरत सबहि चुनौती दीन्हें।।
लछिमन देखत काम अनीका। रहहि धीर तिन्ह कै जग लीका।।
एहि के एक परम बल नारी। तेहि तें उबर सुभट सोइ भारी।।
राजीव कुमार कुलश्रेष्ठ
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तात तीनि अति प्रबल खल काम क्रोध अरु लोभ।
मुनि बिग्यान धाम मन करहि निमिष महु छोभ।।
लोभ के इच्छा दंभ बल काम के केवल नारि।
क्रोध के परुष बचन बल मुनिबर कहहि बिचारि।।
राजीव कुमार कुलश्रेष्ठ
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गुनातीत सचराचर स्वामी। राम उमा सब अंतरजामी।।
कामिन्ह के दीनता देखाई। धीरन्ह के मन बिरति दृढ़ाई।।
क्रोध मनोज लोभ मद माया। छूटहि सकल राम की दाया।।
सो नर इंद्रजाल नहि भूला। जा पर होइ सो नट अनुकूला।।
उमा कहउ मैं अनुभव अपना। सत हरि भजनु जगत सब सपना।।
पुनि प्रभु गए सरोबर तीरा। पंपा नाम सुभग गंभीरा।।
संत हृदय जस निर्मल बारी। बाँधे घाट मनोहर चारी।।
जहँ तहँ पिअहि बिबिध मृग नीरा। जनु उदार गृह जाचक भीरा।।
पुरइनि सबन ओट जल बेगि न पाइअ मर्म।
मायाछन्न न देखिऐ जैसे निर्गुन ब्रह्म
सुखि मीन सब एकरस अति अगाध जल माहिं।
जथा धर्मसीलन्ह के दिन सुख संजुत जाहि
राजीव कुमार कुलश्रेष्ठ
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बिकसे सरसिज नाना रंगा। मधुर मुखर गुंजत बहु भृंगा।।
बोलत जलकुक्कुट कलहंसा। प्रभु बिलोकि जनु करत प्रसंसा।।
चक्रवाक बक खग समुदाई। देखत बनइ बरनि नहि जाई।।
सुन्दर खग गन गिरा सुहाई। जात पथिक जनु लेत बोलाई।।
ताल समीप मुनिन्ह गृह छाए। चहु दिसि कानन बिटप सुहाए।।
चंपक बकुल कदंब तमाला। पाटल पनस परास रसाला।।
नव पल्लव कुसुमित तरु नाना। चंचरीक पटली कर गाना।।
सीतल मंद सुगंध सुभाऊ। संतत बहइ मनोहर बाऊ।।
कुहू कुहू कोकिल धुनि करहीं। सुनि रव सरस ध्यान मुनि टरहीं।।
फल भारन नमि बिटप सब रहे भूमि निअराइ।
पर उपकारी पुरुष जिमि नवहिं सुसंपति पाइ
राजीव कुमार कुलश्रेष्ठ
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देखि राम अति रुचिर तलावा। मज्जनु कीन्ह परम सुख पावा।।
देखी सुंदर तरुबर छाया। बैठे अनुज सहित रघुराया।।
तहँ पुनि सकल देव मुनि आए। अस्तुति करि निज धाम सिधाए।।
बैठे परम प्रसन्न कृपाला। कहत अनुज सन कथा रसाला।।
बिरहवंत भगवंतहि देखी। नारद मन भा सोच बिसेषी।।
मोर साप करि अंगीकारा। सहत राम नाना दुख भारा।।
ऐसे प्रभुहि बिलोकउ जाई। पुनि न बनिहि अस अवसरु आई।।
यह बिचारि नारद कर बीना। गए जहाँ प्रभु सुख आसीना।।
गावत राम चरित मृदु बानी। प्रेम सहित बहु भाँति बखानी।।
करत दंडवत लिए उठाई। राखे बहुत बार उर लाई।।
स्वागत पूछ निकट बैठारे। लछिमन सादर चरन पखारे।।
नाना बिधि बिनती करि प्रभु प्रसन्न जिय जानि।
नारद बोले बचन तब जोरि सरोरुह पानि
राजीव कुमार कुलश्रेष्ठ
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सुनहु उदार सहज रघुनायक। सुंदर अगम सुगम बर दायक।।
देहु एक बर मागउ स्वामी। जद्यपि जानत अंतरजामी।।
जानहु मुनि तुम्ह मोर सुभाऊ। जन सन कबहु कि करउ दुराऊ।।
कवन बस्तु असि प्रिय मोहि लागी। जो मुनिबर न सकहु तुम्ह मागी।।
जन कहु कछु अदेय नहि मोरे। अस बिस्वास तजहु जनि भोरे।।
तब नारद बोले हरषाई । अस बर मागउ करउ ढिठाई।।
जद्यपि प्रभु के नाम अनेका। श्रुति कह अधिक एक ते एका।।
राम सकल नामन्ह ते अधिका। होउ नाथ अघ खग गन बधिका।।
राका रजनी भगति तव राम नाम सोइ सोम।
अपर नाम उडगन बिमल बसुहु भगत उर ब्योम।।
एवमस्तु मुनि सन कहेउ कृपासिंधु रघुनाथ।
तब नारद मन हरष अति प्रभु पद नायउ माथ।।
राजीव कुमार कुलश्रेष्ठ
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अति प्रसन्न रघुनाथहि जानी। पुनि नारद बोले मृदु बानी।।
राम जबहि प्रेरेउ निज माया। मोहेहु मोहि सुनहु रघुराया।।
तब बिबाह मैं चाहउ कीन्हा। प्रभु केहि कारन करै न दीन्हा।।
सुनु मुनि तोहि कहउ सहरोसा। भजहि जे मोहि तजि सकल भरोसा।।
करउ सदा तिन्ह कै रखवारी। जिमि बालक राखइ महतारी।।
गह सिसु बच्छ अनल अहि धाई। तहँ राखइ जननी अरगाई।।
प्रौढ़ भए तेहि सुत पर माता। प्रीति करइ नहि पाछिलि बाता।।
मोरे प्रौढ़ तनय सम ग्यानी। बालक सुत सम दास अमानी।।
जनहि मोर बल निज बल ताही। दुहु कह काम क्रोध रिपु आही।।
यह बिचारि पंडित मोहि भजही। पाएहु ग्यान भगति नहिं तजही।।
काम क्रोध लोभादि मद प्रबल मोह के धारि।
तिन्ह मह अति दारुन दुखद मायारूपी नारि
राजीव कुमार कुलश्रेष्ठ
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सुनि मुनि कह पुरान श्रुति संता। मोह बिपिन कहु नारि बसंता।।
जप तप नेम जलाश्रय झारी। होइ ग्रीषम सोषइ सब नारी।।
काम क्रोध मद मत्सर भेका। इन्हहि हरषप्रद बरषा एका।।
दुर्बासना कुमुद समुदाई। तिन्ह कह सरद सदा सुखदाई।।
धर्म सकल सरसीरुह बृंदा। होइ हिम तिन्हहि दहइ सुख मंदा।।
पुनि ममता जवास बहुताई। पलुहइ नारि सिसिर रितु पाई।।
पाप उलूक निकर सुखकारी। नारि निबिड़ रजनी अँधिआरी।।
बुधि बल सील सत्य सब मीना। बनसी सम त्रिय कहहिं प्रबीना।।
अवगुन मूल सूलप्रद प्रमदा सब दुख खानि।
ताते कीन्ह निवारन मुनि मैं यह जिय जानि
राजीव कुमार कुलश्रेष्ठ
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सुनि रघुपति के बचन सुहाए। मुनि तन पुलक नयन भरि आए।।
कहहु कवन प्रभु कै असि रीती। सेवक पर ममता अरु प्रीती।।
जे न भजहिं अस प्रभु भ्रम त्यागी। ग्यान रंक नर मंद अभागी।।
पुनि सादर बोले मुनि नारद। सुनहु राम बिग्यान बिसारद।।
संतन्ह के लच्छन रघुबीरा। कहहु नाथ भव भंजन भीरा।।
सुनु मुनि संतन्ह के गुन कहऊ। जिन्ह ते मैं उन्ह के बस रहऊ।।
षट बिकार जित अनघ अकामा। अचल अकिंचन सुचि सुखधामा।।
अमितबोध अनीह मितभोगी। सत्यसार कबि कोबिद जोगी।।
सावधान मानद मदहीना। धीर धर्म गति परम प्रबीना।।
गुनागार संसार दुख रहित बिगत संदेह।।
तजि मम चरन सरोज प्रिय तिन्ह कहु देह न गेह
राजीव कुमार कुलश्रेष्ठ
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निज गुन श्रवन सुनत सकुचाही। पर गुन सुनत अधिक हरषाही।।
सम सीतल नहिं त्यागहि नीती। सरल सुभाउ सबहिं सन प्रीती।।
जप तप ब्रत दम संजम नेमा। गुरु गोबिंद बिप्र पद प्रेमा।।
श्रद्धा छमा मयत्री दाया। मुदिता मम पद प्रीति अमाया।।
बिरति बिबेक बिनय बिग्याना। बोध जथारथ बेद पुराना।।
दंभ मान मद करहिं न काऊ। भूलि न देहि कुमारग पाऊ।।
गावहिं सुनहि सदा मम लीला। हेतु रहित परहित रत सीला।।
मुनि सुनु साधुन्ह के गुन जेते। कहि न सकहि सारद श्रुति तेते।।
कहि सक न सारद सेष नारद सुनत पद पंकज गहे।
अस दीनबंधु कृपाल अपने भगत गुन निज मुख कहे।।
सिरु नाह बारहिं बार चरनन्हि ब्रह्मपुर नारद गए।।
ते धन्य तुलसीदास आस बिहाइ जे हरि रंग रए।।
राजीव कुमार कुलश्रेष्ठ
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रावनारि जसु पावन गावहि सुनहि जे लोग।
राम भगति दृढ़ पावहिं बिनु बिराग जप जोग
दीप सिखा सम जुबति तन मन जनि होसि पतंग।
भजहि राम तजि काम मद करहि सदा सतसंग
मासपारायण बाईसवा विश्राम
अरण्यकाण्ड समाप्त

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