शनिवार, मई 15, 2010

अयोध्याकाण्ड 6

tulasi das .. Ram Charit Manas..ramayan
story of the lord rama..king of ayodhya
by...rajeev kumar kulshrestha
जगु पेखन तुम्ह देखनिहारे। बिधि हरि संभु नचावनिहारे।।
तेउ न जानहि मरमु तुम्हारा। औरु तुम्हहि को जाननिहारा।।
सोइ जानइ जेहि देहु जनाई। जानत तुम्हहि तुम्हइ होइ जाई।।
तुम्हरिहि कृपा तुम्हहि रघुनंदन। जानहि भगत भगत उर चंदन।।
चिदानंदमय देह तुम्हारी। बिगत बिकार जान अधिकारी।।
नर तनु धरेहु संत सुर काजा। कहहु करहु जस प्राकृत राजा।।
राम देखि सुनि चरित तुम्हारे। जड़ मोहहि बुध होहि सुखारे।।
तुम्ह जो कहहु करहु सबु साँचा। जस काछिअ तस चाहिअ नाचा।।
पूछेहु मोहि कि रहौं कहँ मैं पूछत सकुचाउ।
जहँ न होहु तहँ देहु कहि तुम्हहि देखावौं ठाउ
राजीव कुमार कुलश्रेष्ठ
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सुनि मुनि बचन प्रेम रस साने। सकुचि राम मन महु मुसकाने।।
बालमीकि हँसि कहहिं बहोरी। बानी मधुर अमिअ रस बोरी।।
सुनहु राम अब कहउ निकेता। जहाँ बसहु सिय लखन समेता।।
जिन्ह के श्रवन समुद्र समाना। कथा तुम्हारि सुभग सरि नाना।।
भरहिं निरंतर होहिं न पूरे। तिन्ह के हिय तुम्ह कहु गृह रूरे।।
लोचन चातक जिन्ह करि राखे। रहहिं दरस जलधर अभिलाषे।।
निदरहिं सरित सिंधु सर भारी। रूप बिंदु जल होहिं सुखारी।।
तिन्ह के हृदय सदन सुखदायक। बसहु बंधु सिय सह रघुनायक।।
जसु तुम्हार मानस बिमल हंसिनि जीहा जासु।
मुकुताहल गुन गन चुनइ राम बसहु हिय तासु
राजीव कुमार कुलश्रेष्ठ
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प्रभु प्रसाद सुचि सुभग सुबासा। सादर जासु लहइ नित नासा।।
तुम्हहि निबेदित भोजन करही। प्रभु प्रसाद पट भूषन धरही।।
सीस नवहिं सुर गुरु द्विज देखी। प्रीति सहित करि बिनय बिसेषी।।
कर नित करहि राम पद पूजा। राम भरोस हृदय नहि दूजा।।
चरन राम तीरथ चलि जाही। राम बसहु तिन्ह के मन माहीं।।
मंत्रराजु नित जपहिं तुम्हारा। पूजहिं तुम्हहि सहित परिवारा।।
तरपन होम करहि बिधि नाना। बिप्र जेवाइ देहि बहु दाना।।
तुम्ह ते अधिक गुरहि जिय जानी। सकल भाय सेवहि सनमानी।।
सबु करि मागहिं एक फलु राम चरन रति होउ।
तिन्ह के मन मंदिर बसहु सिय रघुनंदन दोउ
राजीव कुमार कुलश्रेष्ठ
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काम कोह मद मान न मोहा। लोभ न छोभ न राग न द्रोहा।।
जिन्ह के कपट दंभ नहिं माया। तिन्ह कें हृदय बसहु रघुराया।।
सब के प्रिय सब के हितकारी। दुख सुख सरिस प्रसंसा गारी।।
कहहिं सत्य प्रिय बचन बिचारी। जागत सोवत सरन तुम्हारी।।
तुम्हहि छाड़ि गति दूसरि नाहीं। राम बसहु तिन्ह के मन माहीं।।
जननी सम जानहिं परनारी। धनु पराव बिष ते बिष भारी।।
जे हरषहि पर संपति देखी। दुखित होहिं पर बिपति बिसेषी।।
जिन्हहि राम तुम्ह प्रानपिआरे। तिन्ह के मन सुभ सदन तुम्हारे।।
स्वामि सखा पितु मातु गुर जिन्ह के सब तुम्ह तात।
मन मंदिर तिन्ह के बसहु सीय सहित दोउ भ्रात
राजीव कुमार कुलश्रेष्ठ
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अवगुन तजि सब के गुन गहहीं। बिप्र धेनु हित संकट सहहीं।।
नीति निपुन जिन्ह कइ जग लीका। घर तुम्हार तिन्ह कर मनु नीका।।
गुन तुम्हार समुझइ निज दोसा। जेहि सब भाँति तुम्हार भरोसा।।
राम भगत प्रिय लागहिं जेही। तेहि उर बसहु सहित बैदेही।।
जाति पाँति धनु धरम बड़ाई। प्रिय परिवार सदन सुखदाई।।
सब तजि तुम्हहि रहइ उर लाई। तेहि के हृदय रहहु रघुराई।।
सरगु नरकु अपबरगु समाना। जहँ तहँ देख धरे धनु बाना।।
करम बचन मन राउर चेरा। राम करहु तेहि के उर डेरा।।
जाहि न चाहिअ कबहु कछु तुम्ह सन सहज सनेहु।
बसहु निरंतर तासु मन सो राउर निज गेहु
राजीव कुमार कुलश्रेष्ठ
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एहि बिधि मुनिबर भवन देखाए। बचन सप्रेम राम मन भाए।।
कह मुनि सुनहु भानुकुलनायक। आश्रम कहउ समय सुखदायक।।
चित्रकूट गिरि करहु निवासू। तहँ तुम्हार सब भाँति सुपासू।।
सैलु सुहावन कानन चारू। करि केहरि मृग बिहग बिहारू।।
नदी पुनीत पुरान बखानी। अत्रिप्रिया निज तपबल आनी।।
सुरसरि धार नाउ मंदाकिनि। जो सब पातक पोतक डाकिनि।।
अत्रि आदि मुनिबर बहु बसही। करहि जोग जप तप तन कसही।।
चलहु सफल श्रम सब कर करहू। राम देहु गौरव गिरिबरहू।।
चित्रकूट महिमा अमित कहीं महामुनि गाइ।
आए नहाए सरित बर सिय समेत दोउ भाइ
राजीव कुमार कुलश्रेष्ठ
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रघुबर कहेउ लखन भल घाटू। करहु कतहु अब ठाहर ठाटू।।
लखन दीख पय उतर करारा। चहु दिसि फिरेउ धनुष जिमि नारा।।
नदी पनच सर सम दम दाना। सकल कलुष कलि साउज नाना।।
चित्रकूट जनु अचल अहेरी। चुकइ न घात मार मुठभेरी।।
अस कहि लखन ठाउ देखरावा। थलु बिलोकि रघुबर सुखु पावा।।
रमेउ राम मनु देवन्ह जाना। चले सहित सुर थपति प्रधाना।।
कोल किरात बेष सब आए। रचे परन तृन सदन सुहाए।।
बरनि न जाहि मंजु दुइ साला। एक ललित लघु एक बिसाला।।
लखन जानकी सहित प्रभु राजत रुचिर निकेत।
सोह मदनु मुनि बेष जनु रति रितुराज समेत
मासपारायण, सत्रहवा विश्राम
राजीव कुमार कुलश्रेष्ठ
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अमर नाग किंनर दिसिपाला। चित्रकूट आए तेहि काला।।
राम प्रनामु कीन्ह सब काहू। मुदित देव लहि लोचन लाहू।।
बरषि सुमन कह देव समाजू। नाथ सनाथ भए हम आजू।।
करि बिनती दुख दुसह सुनाए। हरषित निज निज सदन सिधाए।।
चित्रकूट रघुनंदनु छाए। समाचार सुनि सुनि मुनि आए।।
आवत देखि मुदित मुनिबृंदा। कीन्ह दंडवत रघुकुल चंदा।।
मुनि रघुबरहि लाइ उर लेहीं। सुफल होन हित आसिष देहीं।।
सिय सौमित्र राम छबि देखहिं। साधन सकल सफल करि लेखहिं।।
जथाजोग सनमानि प्रभु बिदा किए मुनिबृंद।
करहि जोग जप जाग तप निज आश्रमन्हि सुछंद
राजीव कुमार कुलश्रेष्ठ
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यह सुधि कोल किरातन्ह पाई। हरषे जनु नव निधि घर आई।।
कंद मूल फल भरि भरि दोना। चले रंक जनु लूटन सोना।।
तिन्ह मह जिन्ह देखे दोउ भ्राता। अपर तिन्हहि पूछहि मग जाता।।
कहत सुनत रघुबीर निकाई। आइ सबन्हि देखे रघुराई।।
करहिं जोहारु भेंट धरि आगे। प्रभुहि बिलोकहि अति अनुरागे।।
चित्र लिखे जनु जहँ तहँ ठाढ़े। पुलक सरीर नयन जल बाढ़े।।
राम सनेह मगन सब जाने। कहि प्रिय बचन सकल सनमाने।।
प्रभुहि जोहारि बहोरि बहोरी। बचन बिनीत कहहिं कर जोरी।।
अब हम नाथ सनाथ सब भए देखि प्रभु पाय।
भाग हमारे आगमनु राउर कोसलराय
राजीव कुमार कुलश्रेष्ठ
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धन्य भूमि बन पंथ पहारा। जहँ जहँ नाथ पाउ तुम्ह धारा।।
धन्य बिहग मृग काननचारी। सफल जनम भए तुम्हहि निहारी।।
हम सब धन्य सहित परिवारा। दीख दरसु भरि नयन तुम्हारा।।
कीन्ह बासु भल ठाउ बिचारी। इहाँ सकल रितु रहब सुखारी।।
हम सब भाँति करब सेवकाई। करि केहरि अहि बाघ बराई।।
बन बेहड़ गिरि कंदर खोहा। सब हमार प्रभु पग पग जोहा।।
तहँ तहँ तुम्हहि अहेर खेलाउब। सर निरझर जलठाउ देखाउब।।
हम सेवक परिवार समेता। नाथ न सकुचब आयसु देता।।
बेद बचन मुनि मन अगम ते प्रभु करुना ऐन।
बचन किरातन्ह के सुनत जिमि पितु बालक बैन
राजीव कुमार कुलश्रेष्ठ
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रामह केवल प्रेम पिआरा। जान लेउ जो जाननहारा।।
राम सकल बनचर तब तोषे। कहि मृदु बचन प्रेम परिपोषे।।
बिदा किए सिर नाइ सिधाए। प्रभु गुन कहत सुनत घर आए।।
एहि बिधि सिय समेत दोउ भाई। बसहिं बिपिन सुर मुनि सुखदाई।।
जब ते आइ रहे रघुनायकु। तब तें भयउ बनु मंगलदायकु।।
फूलहिं फलहिं बिटप बिधि नाना।।मंजु बलित बर बेलि बिताना।।
सुरतरु सरिस सुभाय सुहाए। मनहु बिबुध बन परिहरि आए।।
गंज मंजुतर मधुकर श्रेनी। त्रिबिध बयारि बहइ सुख देनी।।
नीलकंठ कलकंठ सुक चातक चक्क चकोर।
भाँति भाँति बोलहिं बिहग श्रवन सुखद चित चोर
राजीव कुमार कुलश्रेष्ठ
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केरि केहरि कपि कोल कुरंगा। बिगतबैर बिचरहिं सब संगा।।
फिरत अहेर राम छबि देखी। होहिं मुदित मृगबंद बिसेषी।।
बिबुध बिपिन जहँ लगि जग माहीं। देखि राम बनु सकल सिहाही।।
सुरसरि सरसइ दिनकर कन्या। मेकलसुता गोदावरि धन्या।।
सब सर सिंधु नदी नद नाना। मंदाकिनि कर करहिं बखाना।।
उदय अस्त गिरि अरु कैलासू। मंदर मेरु सकल सुरबासू।।
सैल हिमाचल आदिक जेते। चित्रकूट जसु गावहि तेते।।
बिंधि मुदित मन सुखु न समाई। श्रम बिनु बिपुल बड़ाई पाई।।
चित्रकूट के बिहग मृग बेलि बिटप तृन जाति।
पुन्य पुंज सब धन्य अस कहहिं देव दिन राति
राजीव कुमार कुलश्रेष्ठ
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नयनवंत रघुबरहि बिलोकी। पाइ जनम फल होहिं बिसोकी।।
परसि चरन रज अचर सुखारी। भए परम पद के अधिकारी।।
सो बनु सैलु सुभाय सुहावन। मंगलमय अति पावन पावन।।
महिमा कहिअ कवनि बिधि तासू। सुखसागर जहँ कीन्ह निवासू।।
पय पयोधि तजि अवध बिहाई। जहँ सिय लखनु रामु रहे आई।।
कहि न सकहिं सुषमा जसि कानन। जौ सत सहस होंहि सहसानन।।
सो मैं बरनि कहौं बिधि केहीं। डाबर कमठ कि मंदर लेहीं।।
सेवहिं लखनु करम मन बानी। जाइ न सीलु सनेहु बखानी।।
छिनु छिनु लखि सिय राम पद जानि आपु पर नेहु।
करत न सपनेहु लखनु चितु बंधु मातु पितु गेहु
राजीव कुमार कुलश्रेष्ठ
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राम संग सिय रहति सुखारी। पुर परिजन गृह सुरति बिसारी।।
छिनु छिनु पिय बिधु बदनु निहारी। प्रमुदित मनहु चकोरकुमारी।।
नाह नेहु नित बढ़त बिलोकी। हरषित रहति दिवस जिमि कोकी।।
सिय मनु राम चरन अनुरागा। अवध सहस सम बनु प्रिय लागा।।
परनकुटी प्रिय प्रियतम संगा। प्रिय परिवारु कुरंग बिहंगा।।
सासु ससुर सम मुनितिय मुनिबर। असनु अमिअ सम कंद मूल फर।।
नाथ साथ साथरी सुहाई। मयन सयन सय सम सुखदाई।।
लोकप होहिं बिलोकत जासू। तेहि कि मोहि सक बिषय बिलासू।।
सुमिरत रामहि तजहि जन तृन सम बिषय बिलासु।
रामप्रिया जग जननि सिय कछु न आचरजु तासु
राजीव कुमार कुलश्रेष्ठ
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सीय लखन जेहि बिधि सुखु लहहीं। सोइ रघुनाथ करहि सोइ कहहीं।।
कहहिं पुरातन कथा कहानी। सुनहिं लखनु सिय अति सुखु मानी।
जब जब रामु अवध सुधि करहीं। तब तब बारि बिलोचन भरहीं।।
सुमिरि मातु पितु परिजन भाई। भरत सनेहु सीलु सेवकाई।।
कृपासिंधु प्रभु होहिं दुखारी। धीरजु धरहिं कुसमउ बिचारी।।
लखि सिय लखनु बिकल होइ जाहीं। जिमि पुरुषहि अनुसर परिछाहीं।।
प्रिया बंधु गति लखि रघुनंदनु। धीर कृपाल भगत उर चंदनु।।
लगे कहन कछु कथा पुनीता। सुनि सुखु लहहिं लखनु अरु सीता।।
रामु लखन सीता सहित सोहत परन निकेत।
जिमि बासव बस अमरपुर सची जयंत समेत
राजीव कुमार कुलश्रेष्ठ
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जोगवहि प्रभु सिय लखनहिं कैसे। पलक बिलोचन गोलक जैसें।।
सेवहिं लखनु सीय रघुबीरहि। जिमि अबिबेकी पुरुष सरीरहि।।
एहि बिधि प्रभु बन बसहिं सुखारी। खग मृग सुर तापस हितकारी।।
कहेउ राम बन गवनु सुहावा। सुनहु सुमंत्र अवध जिमि आवा।।
फिरेउ निषादु प्रभुहि पहुँचाई। सचिव सहित रथ देखेसि आई।।
मंत्री बिकल बिलोकि निषादू। कहि न जाइ जस भयउ बिषादू।।
राम राम सिय लखन पुकारी। परेउ धरनितल ब्याकुल भारी।।
देखि दखिन दिसि हय हिहिनाहीं। जनु बिनु पंख बिहग अकुलाहीं।।
नहिं तृन चरहिं पिअहिं जलु मोचहिं लोचन बारि।
ब्याकुल भए निषाद सब रघुबर बाजि निहारि
राजीव कुमार कुलश्रेष्ठ
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धरि धीरज तब कहइ निषादू। अब सुमंत्र परिहरहु बिषादू।।
तुम्ह पंडित परमारथ ग्याता। धरहु धीर लखि बिमुख बिधाता
बिबिध कथा कहि कहि मृदु बानी। रथ बैठारेउ बरबस आनी।।
सोक सिथिल रथ सकइ न हाँकी। रघुबर बिरह पीर उर बाँकी।।
चरफराहि मग चलहिं न घोरे। बन मृग मनहु आनि रथ जोरे।।
अढ़ुकि परहिं फिरि हेरहिं पीछे। राम बियोगि बिकल दुख तीछे।।
जो कह रामु लखनु बैदेही। हिंकरि हिंकरि हित हेरहिं तेही।।
बाजि बिरह गति कहि किमि जाती। बिनु मनि फनिक बिकल जेहि भाँती।।
भयउ निषाद बिषादबस देखत सचिव तुरंग।
बोलि सुसेवक चारि तब दिए सारथी संग
राजीव कुमार कुलश्रेष्ठ
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गुह सारथिहि फिरेउ पहुँचाई। बिरह बिषाद बरनि नहिं जाई।।
चले अवध लेइ रथहि निषादा। होहि छनहिं छन मगन बिषादा।।
सोच सुमंत्र बिकल दुख दीना। धिग जीवन रघुबीर बिहीना।।
रहिहि न अंतहु अधम सरीरू। जसु न लहेउ बिछुरत रघुबीरू।।
भए अजस अघ भाजन प्राना। कवन हेतु नहिं करत पयाना।।
अहह मंद मनु अवसर चूका। अजहु न हृदय होत दुइ टूका।।
मीजि हाथ सिरु धुनि पछिताई। मनह कृपन धन रासि गवाई।।
बिरिद बाँधि बर बीरु कहाई। चलेउ समर जनु सुभट पराई।।
बिप्र बिबेकी बेदबिद संमत साधु सुजाति।
जिमि धोखे मदपान कर सचिव सोच तेहि भाँति
राजीव कुमार कुलश्रेष्ठ
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जिमि कुलीन तिय साधु सयानी। पतिदेवता करम मन बानी।।
रहै करम बस परिहरि नाहू। सचिव हृदय तिमि दारुन दाहु।।
लोचन सजल डीठि भइ थोरी। सुनइ न श्रवन बिकल मति भोरी।।
सूखहिं अधर लागि मुह लाटी। जिउ न जाइ उर अवधि कपाटी।।
बिबरन भयउ न जाइ निहारी। मारेसि मनहु पिता महतारी।।
हानि गलानि बिपुल मन ब्यापी। जमपुर पंथ सोच जिमि पापी।।
बचन न आव हृदय पछिताई। अवध काह मैं देखब जाई।।
राम रहित रथ देखिहि जोई। सकुचिहि मोहि बिलोकत सोई।।
धाइ पूछिहहिं मोहि जब बिकल नगर नर नारि।
उतरु देब मैं सबहि तब हृदय बज्रु बैठारि
राजीव कुमार कुलश्रेष्ठ
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पुछिहहिं दीन दुखित सब माता। कहब काह मैं तिन्हहि बिधाता।।
पूछिहि जबहिं लखन महतारी। कहिहउ कवन संदेस सुखारी।।
राम जननि जब आइहि धाई। सुमिरि बच्छु जिमि धेनु लवाई।।
पूछत उतरु देब मैं तेही। गे बनु राम लखनु बैदेही।।
जोइ पूछिहि तेहि ऊतरु देबा।जाइ अवध अब यहु सुखु लेबा।।
पूछिहि जबहिं राउ दुख दीना। जिवनु जासु रघुनाथ अधीना।।
देहउ उतरु कौनु मुहु लाई। आयउ कुसल कुंअर पहुँचाई।।
सुनत लखन सिय राम संदेसू। तृन जिमि तनु परिहरिहि नरेसू।।
ह्रदय न बिदरेउ पंक जिमि बिछुरत प्रीतमु नीरु।।
जानत हौं मोहि दीन्ह बिधि यहु जातना सरीरु
राजीव कुमार कुलश्रेष्ठ
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एहि बिधि करत पंथ पछितावा। तमसा तीर तुरत रथु आवा।।
बिदा किए करि बिनय निषादा। फिरे पाय परि बिकल बिषादा।।
पैठत नगर सचिव सकुचाई। जनु मारेसि गुर बांभन गाई।।
बैठि बिटप तर दिवसु गवांवा। सांझ समय तब अवसरु पावा।।
अवध प्रबेसु कीन्ह अंधिआरे। पैठ भवन रथु राखि दुआरे।।
जिन्ह जिन्ह समाचार सुनि पाए। भूप द्वार रथु देखन आए।।
रथु पहिचानि बिकल लखि घोरे। गरहिं गात जिमि आतप ओरे।।
नगर नारि नर ब्याकुल कैसे। निघटत नीर मीनगन जैसे।।
सचिव आगमनु सुनत सबु बिकल भयउ रनिवासु।
भवन भयंकरु लाग तेहि मानहु प्रेत निवासु
राजीव कुमार कुलश्रेष्ठ
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अति आरति सब पूछहिं रानी। उतरु न आव बिकल भइ बानी।।
सुनइ न श्रवन नयन नहि सूझा। कहहु कहाँ नृप तेहि तेहि बूझा।।
दासिन्ह दीख सचिव बिकलाई। कौसल्या गृह गई लवाई।।
जाइ सुमंत्र दीख कस राजा। अमिअ रहित जनु चंदु बिराजा।।
आसन सयन बिभूषन हीना। परेउ भूमितल निपट मलीना।।
लेइ उसासु सोच एहि भाँती। सुरपुर ते जनु खसेउ जजाती।।
लेत सोच भरि छिनु छिनु छाती। जनु जरि पंख परेउ संपाती।।
राम राम कह राम सनेही। पुनि कह राम लखन बैदेही।।
देखि सचिव जय जीव कहि कीन्हेउ दंड प्रनामु।
सुनत उठेउ ब्याकुल नृपति कहु सुमंत्र कह रामु
राजीव कुमार कुलश्रेष्ठ
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भूप सुमंत्रु लीन्ह उर लाई। बूड़त कछु अधार जनु पाई।।
सहित सनेह निकट बैठारी। पूछत राउ नयन भरि बारी।।
राम कुसल कहु सखा सनेही। कह रघुनाथु लखनु बैदेही।।
आने फेरि कि बनहि सिधाए। सुनत सचिव लोचन जल छाए।।
सोक बिकल पुनि पूछ नरेसू। कहु सिय राम लखन संदेसू।।
राम रूप गुन सील सुभाऊ। सुमिरि सुमिरि उर सोचत राऊ।।
राउ सुनाइ दीन्ह बनबासू। सुनि मन भयउ न हरषु हरासू।।
सो सुत बिछुरत गए न प्राना। को पापी बड़ मोहि समाना।।
सखा रामु सिय लखनु जहँ तहाँ मोहि पहुँचाउ।
नाहिं त चाहत चलन अब प्रान कहउ सतिभाउ
राजीव कुमार कुलश्रेष्ठ
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पुनि पुनि पूछत मंत्रहि राऊ। प्रियतम सुअन संदेस सुनाऊ।।
करहि सखा सोइ बेगि उपाऊ। रामु लखनु सिय नयन देखाऊ।।
सचिव धीर धरि कह मुदु बानी। महाराज तुम्ह पंडित ग्यानी।।
बीर सुधीर धुरंधर देवा। साधु समाजु सदा तुम्ह सेवा।।
जनम मरन सब दुख भोगा। हानि लाभ प्रिय मिलन बियोगा।।
काल करम बस हौहि गोसाई। बरबस राति दिवस की नाईं।।
सुख हरषहिं जड़ दुख बिलखाहीं। दोउ सम धीर धरहिं मन माहीं।।
धीरज धरहु बिबेकु बिचारी। छाड़िअ सोच सकल हितकारी।।
प्रथम बासु तमसा भयउ दूसर सुरसरि तीर।
न्हाई रहे जलपान करि सिय समेत दोउ बीर

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