शनिवार, मई 15, 2010

लन्काकाण्ड 2



सठ साखामृग जोरि सहाई। बांधा सिंधु इहइ प्रभुताई।।
नाघहिं खग अनेक बारीसा। सूर न होहिं ते सुनु सब कीसा।।
मम भुज सागर बल जल पूरा। जहँ बूड़े बहु सुर नर सूरा।।
बीस पयोधि अगाध अपारा। को अस बीर जो पाइहि पारा।।
दिगपालन्ह मैं नीर भरावा। भूप सुजस खल मोहि सुनावा।।
जौं पै समर सुभट तव नाथा। पुनि पुनि कहसि जासु गुन गाथा।।
तौ बसीठ पठवत केहि काजा। रिपु सन प्रीति करत नहिं लाजा।।
हरगिरि मथन निरखु मम बाहू। पुनि सठ कपि निज प्रभुहि सराहू।।
सूर कवन रावन सरिस स्वकर काटि जेहिं सीस।
हुने अनल अति हरष बहु बार साखि गौरीस।।

जरत बिलोकेउ जबहिं कपाला। बिधि के लिखे अंक निज भाला।।
नर के कर आपन बध बाँची। हसेउ जानि बिधि गिरा असाँची।।
सोउ मन समुझि त्रास नहिं मोरें। लिखा बिरंचि जरठ मति भोरें।।
आन बीर बल सठ मम आगें। पुनि पुनि कहसि लाज पति त्यागे।।
कह अंगद सलज्ज जग माहीं। रावन तोहि समान कोउ नाहीं।।
लाजवंत तव सहज सुभाऊ। निज मुख निज गुन कहसि न काऊ।।
सिर अरु सैल कथा चित रही। ताते बार बीस तैं कही।।
सो भुजबल राखेउ उर घाली। जीतेहु सहसबाहु बलि बाली।।
सुनु मतिमंद देहि अब पूरा। काटे सीस कि होइअ सूरा।।
इंद्रजालि कहु कहिअ न बीरा। काटइ निज कर सकल सरीरा।।
जरहि पतंग मोह बस भार बहहिं खर बृंद।
ते नहि सूर कहावहि समुझि देख मतिमंद।।

अब जनि बतबढ़ाव खल करही। सुनु मम बचन मान परिहरही।।
दसमुख मैं न बसीठीं आयउ। अस बिचारि रघुबीष पठायउ।।
बार बार अस कहइ कृपाला। नहिं गजारि जसु बधे सृकाला।।
मन महु समुझि बचन प्रभु केरे। सहेउ कठोर बचन सठ तेरे।।
नाहिं त करि मुख भंजन तोरा। लै जातेउ सीतहि बरजोरा।।
जानेउ तव बल अधम सुरारी। सूने हरि आनिहि परनारी।।
तैं निसिचर पति गर्ब बहूता। मैं रघुपति सेवक कर दूता।।
जौं न राम अपमानहि डरउ। तोहि देखत अस कौतुक करऊ।।
तोहि पटकि महि सेन हति चौपट करि तव गाउ।
तव जुबतिन्ह समेत सठ जनकसुतहि लै जाउ।।
राजीव कुमार कुलश्रेष्ठ
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जौ अस करौं तदपि न बड़ाई। मुएहि बधे नहिं कछु मनुसाई।।
कौल कामबस कृपिन बिमूढ़ा। अति दरिद्र अजसी अति बूढ़ा।।
सदा रोगबस संतत क्रोधी। बिष्नु बिमूख श्रुति संत बिरोधी।।
तनु पोषक निंदक अघ खानी। जीवन सव सम चौदह प्रानी।।
अस बिचारि खल बधउ न तोही। अब जनि रिस उपजावसि मोही।।
सुनि सकोप कह निसिचर नाथा। अधर दसन दसि मीजत हाथा।।
रे कपि अधम मरन अब चहसी। छोटे बदन बात बड़ि कहसी।।
कटु जल्पसि जड़ कपि बल जाकें। बल प्रताप बुधि तेज न ताकें।।
अगुन अमान जानि तेहि दीन्ह पिता बनबास।
सो दुख अरु जुबती बिरह पुनि निसि दिन मम त्रास।।
जिन्ह के बल कर गर्ब तोहि अइसे मनुज अनेक।
खाहीं निसाचर दिवस निसि मूढ़ समुझु तजि टेक।।
राजीव कुमार कुलश्रेष्ठ
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जब तेहिं कीन्ह राम कै निंदा। क्रोधवंत अति भयउ कपिंदा।।
हरि हर निंदा सुनइ जो काना। होइ पाप गोघात समाना।।
कटकटान कपिकुंजर भारी। दुहु भुजदंड तमकि महि मारी।।
डोलत धरनि सभासद खसे। चले भाजि भय मारुत ग्रसे।।
गिरत सँभारि उठा दसकंधर। भूतल परे मुकुट अति सुंदर।।
कछु तेहिं लै निज सिरन्हि सँवारे। कछु अंगद प्रभु पास पबारे।।
आवत मुकुट देखि कपि भागे। दिनहीं लूक परन बिधि लागे।।
की रावन करि कोप चलाए। कुलिस चारि आवत अति धाए।।
कह प्रभु हँसि जनि हृदय डेराहू। लूक न असनि केतु नहिं राहू।।
ए किरीट दसकंधर केरे। आवत बालितनय के प्रेरे।।
तरकि पवनसुत कर गहे आनि धरे प्रभु पास।
कौतुक देखहिं भालु कपि दिनकर सरिस प्रकास।।
उहाँ सकोपि दसानन सब सन कहत रिसाइ।
धरहु कपिहि धरि मारहु सुनि अंगद मुसुकाइ।।
राजीव कुमार कुलश्रेष्ठ
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एहि बिधि बेगि सूभट सब धावहु। खाहु भालु कपि जहँ जहँ पावहु।।
मर्कटहीन करहु महि जाई। जिअत धरहु तापस द्वौ भाई।।
पुनि सकोप बोलेउ जुबराजा। गाल बजावत तोहि न लाजा।।
मरु गर काटि निलज कुलघाती। बल बिलोकि बिहरति नहिं छाती।।
रे त्रिय चोर कुमारग गामी। खल मल रासि मंदमति कामी।।
सन्यपात जल्पसि दुर्बादा। भएसि कालबस खल मनुजादा।।
याको फलु पावहिगो आगें। बानर भालु चपेटन्हि लागे।।
रामु मनुज बोलत असि बानी। गिरहिं न तव रसना अभिमानी।।
गिरिहहिं रसना संसय नाहीं। सिरन्हि समेत समर महि माहीं।।
सो नर क्यों दसकंध बालि बध्यो जेहिं एक सर।
बीसहु लोचन अंध धिग तव जन्म कुजाति जड़।।
तब सोनित की प्यास तृषित राम सायक निकर।
तजउ तोहि तेहि त्रास कटु जल्पक निसिचर अधम।।
राजीव कुमार कुलश्रेष्ठ
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मै तव दसन तोरिबे लायक। आयसु मोहि न दीन्ह रघुनायक।।
असि रिस होति दसउ मुख तोरौ। लंका गहि समुद्र मह बोरौं।।
गूलरि फल समान तव लंका। बसहु मध्य तुम्ह जंतु असंका।।
मैं बानर फल खात न बारा। आयसु दीन्ह न राम उदारा।।
जुगति सुनत रावन मुसुकाई। मूढ़ सिखिहि कह बहुत झुठाई।।
बालि न कबहु गाल अस मारा। मिलि तपसिन्ह तैं भएसि लबारा।।
साँचेहु मैं लबार भुज बीहा। जौं न उपारिउ तव दस जीहा।।
समुझि राम प्रताप कपि कोपा। सभा माझ पन करि पद रोपा।।
जौं मम चरन सकसि सठ टारी। फिरहिं रामु सीता मैं हारी।।
सुनहु सुभट सब कह दससीसा। पद गहि धरनि पछारहु कीसा।।
इंद्रजीत आदिक बलवाना। हरषि उठे जहँ तहँ भट नाना।।
झपटहिं करि बल बिपुल उपाई। पद न टरइ बैठहिं सिरु नाई।।
पुनि उठि झपटहीं सुर आराती। टरइ न कीस चरन एहि भाँती।।
पुरुष कुजोगी जिमि उरगारी। मोह बिटप नहिं सकहिं उपारी।।
कोटिन्ह मेघनाद सम सुभट उठे हरषाइ।
झपटहिं टरै न कपि चरन पुनि बैठहिं सिर नाइ।।
भूमि न छाँडत कपि चरन देखत रिपु मद भाग।।
कोटि बिघ्न ते संत कर मन जिमि नीति न त्याग।।
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कपि बल देखि सकल हिय हारे। उठा आपु कपि के परचारे।।
गहत चरन कह बालिकुमारा। मम पद गहे न तोर उबारा।।
गहसि न राम चरन सठ जाई। सुनत फिरा मन अति सकुचाई।।
भयउ तेजहत श्री सब गई। मध्य दिवस जिमि ससि सोहई।।
सिंघासन बैठेउ सिर नाई। मानहु संपति सकल गंवाई।।
जगदातमा प्रानपति रामा। तासु बिमुख किमि लह बिश्रामा।।
उमा राम की भृकुटि बिलासा। होइ बिस्व पुनि पावइ नासा।।
तृन ते कुलिस कुलिस तृन करई। तासु दूत पन कहु किमि टरई।।
पुनि कपि कही नीति बिधि नाना। मान न ताहि कालु निअराना।।
रिपु मद मथि प्रभु सुजसु सुनायो। यह कहि चल्यो बालि नृप जायो।।
हतौं न खेत खेलाइ खेलाई। तोहि अबहिं का करौं बड़ाई।।
प्रथमहिं तासु तनय कपि मारा। सो सुनि रावन भयउ दुखारा।।
जातुधान अंगद पन देखी। भय ब्याकुल सब भए बिसेषी।।
रिपु बल धरषि हरषि कपि बालितनय बल पुंज।
पुलक सरीर नयन जल गहे राम पद कंज।।
साँझ जानि दसकंधर भवन गयउ बिलखाइ।
मंदोदरी रावनहि बहुरि कहा समुझाइ।।
राजीव कुमार कुलश्रेष्ठ
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कंत समुझि मन तजहु कुमतिही। सोह न समर तुम्हहि रघुपतिही।।
रामानुज लघु रेख खचाई। सोउ नहिं नाघेहु असि मनुसाई।।
पिय तुम्ह ताहि जितब संग्रामा। जाके दूत केर यह कामा।।
कौतुक सिंधु नाघी तव लंका। आयउ कपि केहरी असंका।।
रखवारे हति बिपिन उजारा। देखत तोहि अच्छ तेहि मारा।।
जारि सकल पुर कीन्हेसि छारा। कहाँ रहा बल गर्ब तुम्हारा।।
अब पति मृषा गाल जनि मारहु। मोर कहा कछु हृदय बिचारहु।।
पति रघुपतिहि नृपति जनि मानहु। अग जग नाथ अतुल बल जानहु।।
बान प्रताप जान मारीचा। तासु कहा नहिं मानेहि नीचा।।
जनक सभा अगनित भूपाला। रहे तुम्हउ बल अतुल बिसाला।।
भंजि धनुष जानकी बिआही। तब संग्राम जितेहु किन ताही।।
सुरपति सुत जानइ बल थोरा। राखा जिअत आँखि गहि फोरा।।
सूपनखा के गति तुम्ह देखी। तदपि हृदय नहिं लाज बिषेषी।।
बधि बिराध खर दूषनहि लीला हत्यो कबंध।
बालि एक सर मारयो तेहि जानहु दसकंध।।
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जेहि जलनाथ बंधायउ हेला। उतरे प्रभु दल सहित सुबेला।।
कारुनीक दिनकर कुल केतू। दूत पठायउ तव हित हेतू।।
सभा माझ जेहिं तव बल मथा। करि बरूथ महु मृगपति जथा।।
अंगद हनुमत अनुचर जाके। रन बाँकुरे बीर अति बाँके।।
तेहि कह पिय पुनि पुनि नर कहहू। मुधा मान ममता मद बहहू।।
अहह कंत कृत राम बिरोधा। काल बिबस मन उपज न बोधा।।
काल दंड गहि काहु न मारा। हरइ धर्म बल बुद्धि बिचारा।।
निकट काल जेहि आवत साईं। तेहि भ्रम होइ तुम्हारिहि नाईं।।
दुइ सुत मरे दहेउ पुर अजहु पूर पिय देहु।
कृपासिंधु रघुनाथ भजि नाथ बिमल जसु लेहु।।
राजीव कुमार कुलश्रेष्ठ
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नारि बचन सुनि बिसिख समाना। सभा गयउ उठि होत बिहाना।।
बैठ जाइ सिंघासन फूली। अति अभिमान त्रास सब भूली।।
इहाँ राम अंगदहि बोलावा। आइ चरन पंकज सिरु नावा।।
अति आदर सपीप बैठारी। बोले बिहसि कृपाल खरारी।।
बालितनय कौतुक अति मोही। तात सत्य कहु पूछउ तोही।।।
रावनु जातुधान कुल टीका। भुज बल अतुल जासु जग लीका।।
तासु मुकुट तुम्ह चारि चलाए। कहहु तात कवनी बिधि पाए।।
सुनु सर्बग्य प्रनत सुखकारी। मुकुट न होहिं भूप गुन चारी।।
साम दान अरु दंड बिभेदा। नृप उर बसहिं नाथ कह बेदा।।
नीति धर्म के चरन सुहाए। अस जिय जानि नाथ पहिं आए।।
धर्महीन प्रभु पद बिमुख काल बिबस दससीस।
तेहि परिहरि गुन आए सुनहु कोसलाधीस।।
परम चतुरता श्रवन सुनि बिहसे रामु उदार।
समाचार पुनि सब कहे गढ़ के बालिकुमार।।
राजीव कुमार कुलश्रेष्ठ
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रिपु के समाचार जब पाए। राम सचिव सब निकट बोलाए।।
लंका बांके चारि दुआरा। केहि बिधि लागिअ करहु बिचारा।।
तब कपीस रिच्छेस बिभीषन। सुमिरि हृदय दिनकर कुल भूषन।।
करि बिचार तिन्ह मंत्र दृढ़ावा। चारि अनी कपि कटकु बनावा।।
जथाजोग सेनापति कीन्हे। जूथप सकल बोलि तब लीन्हे।।
प्रभु प्रताप कहि सब समुझाए। सुनि कपि सिंघनाद करि धाए।।
हरषित राम चरन सिर नावहिं। गहि गिरि सिखर बीर सब धावहिं।।
गर्जहिं तर्जहिं भालु कपीसा। जय रघुबीर कोसलाधीसा।।
जानत परम दुर्ग अति लंका। प्रभु प्रताप कपि चले असंका।।
घटाटोप करि चहुँ दिसि घेरी। मुखहिं निसान बजावहीं भेरी।।
जयति राम जय लछिमन जय कपीस सुग्रीव।
गर्जहि सिंघनाद कपि भालु महा बल सीव।।
राजीव कुमार कुलश्रेष्ठ
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लंका भयउ कोलाहल भारी। सुना दसानन अति अहंकारी।।
देखहु बनरन्ह केरि ढिठाई। बिहसि निसाचर सेन बोलाई।।
आए कीस काल के प्रेरे। छुधावंत सब निसिचर मेरे।।
अस कहि अट्टहास सठ कीन्हा। गृह बैठे अहार बिधि दीन्हा।।
सुभट सकल चारिहु दिसि जाहू। धरि धरि भालु कीस सब खाहू।।
उमा रावनहि अस अभिमाना। जिमि टिट्टिभ खग सूत उताना।।
चले निसाचर आयसु मागी। गहि कर भिंडिपाल बर साँगी।।
तोमर मुग्दर परसु प्रचंडा। सुल कृपान परिघ गिरिखंडा।।
जिमि अरुनोपल निकर निहारी। धावहिं सठ खग मांस अहारी।।
चोंच भंग दुख तिन्हहि न सूझा। तिमि धाए मनुजाद अबूझा।।
नानायुध सर चाप धर जातुधान बल बीर।
कोट कँगूरन्हि चढ़ि गए कोटि कोटि रनधीर।।
राजीव कुमार कुलश्रेष्ठ
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कोट कंगूरन्हि सोहहिं कैसे। मेरु के सृंगनि जनु घन बैसे।।
बाजहिं ढोल निसान जुझाऊ। सुनि धुनि होइ भटन्हि मन चाऊ।।
बाजहिं भेरि नफीरि अपारा। सुनि कादर उर जाहिं दरारा।।
देखिन्ह जाइ कपिन्ह के ठट्टा। अति बिसाल तनु भालु सुभट्टा।।
धावहिं गनहिं न अवघट घाटा। पर्बत फोरि करहिं गहि बाटा।।
कटकटाहिं कोटिन्ह भट गर्जहिं। दसन ओठ काटहिं अति तर्जहिं।।
उत रावन इत राम दोहाई। जयति जयति जय परी लराई।।
निसिचर सिखर समूह ढहावहिं। कूदि धरहिं कपि फेरि चलावहिं।।
राजीव कुमार कुलश्रेष्ठ
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धरि कुधर खंड प्रचंड कर्कट भालु गढ़ पर डारहीं।
झपटहिं चरन गहि पटकि महि भजि चलत बहुरि पचारहीं।।
अति तरल तरुन प्रताप तरपहिं तमकि गढ़ चढ़ि चढ़ि गए।
कपि भालु चढ़ि मंदिरन्ह जहँ तहँ राम जसु गावत भए।।
एकु एकु निसिचर गहि पुनि कपि चले पराइ।
ऊपर आपु हेठ भट गिरहिं धरनि पर आइ।।
राम प्रताप प्रबल कपिजूथा। मर्दहिं निसिचर सुभट बरूथा।।
चढ़े दुर्ग पुनि जहँ तहँ बानर। जय रघुबीर प्रताप दिवाकर।।
चले निसाचर निकर पराई। प्रबल पवन जिमि घन समुदाई।।
हाहाकार भयउ पुर भारी। रोवहिं बालक आतुर नारी।।
सब मिलि देहिं रावनहि गारी। राज करत एहिं मृत्यु हंकारी।।
निज दल बिचल सुनी तेहिं काना। फेरि सुभट लंकेस रिसाना।।
जो रन बिमुख सुना मैं काना। सो मैं हतब कराल कृपाना।।
सर्बसु खाइ भोग करि नाना। समर भूमि भए बल्लभ प्राना।।
उग्र बचन सुनि सकल डेराने। चले क्रोध करि सुभट लजाने।।
सन्मुख मरन बीर कै सोभा। तब तिन्ह तजा प्रान कर लोभा।।
राजीव कुमार कुलश्रेष्ठ
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बहु आयुध धर सुभट सब भिरहिं पचारि पचारि।
ब्याकुल किए भालु कपि परिघ त्रिसूलन्हि मारी।।
भय आतुर कपि भागन लागे। जद्यपि उमा जीतिहहिं आगे।।
कोउ कह कहँ अंगद हनुमंता। कहँ नल नील दुबिद बलवंता।।
निज दल बिकल सुना हनुमाना। पच्छिम द्वार रहा बलवाना।।
मेघनाद तह करइ लराई। टूट न द्वार परम कठिनाई।।
पवनतनय मन भा अति क्रोधा। गर्जेउ प्रबल काल सम जोधा।।
कूदि लंक गढ़ ऊपर आवा। गहि गिरि मेघनाद कहु धावा।।
भंजेउ रथ सारथी निपाता। ताहि हृदय महु मारेसि लाता।।
दुसरे सूत बिकल तेहि जाना। स्यंदन घालि तुरत गृह आना।।
अंगद सुना पवनसुत गढ़ पर गयउ अकेल।
रन बाँकुरा बालिसुत तरकि चढ़ेउ कपि खेल।।
राजीव कुमार कुलश्रेष्ठ
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जुद्ध बिरुद्ध क्रुद्ध द्वौ बंदर। राम प्रताप सुमिरि उर अंतर।।
रावन भवन चढ़े द्वौ धाई। करहि कोसलाधीस दोहाई।।
कलस सहित गहि भवनु ढहावा। देखि निसाचरपति भय पावा।।
नारि बृंद कर पीटहिं छाती। अब दुइ कपि आए उतपाती।।
कपिलीला करि तिन्हहि डेरावहिं। रामचंद्र कर सुजसु सुनावहिं।।
पुनि कर गहि कंचन के खंभा। कहेन्हि करिअ उतपात अरंभा।।
गर्जि परे रिपु कटक मझारी। लागे मर्दै भुज बल भारी।।
काहुहि लात चपेटन्हि केहू। भजहु न रामहि सो फल लेहू।।
एक एक सों मर्दहि तोरि चलावहि मुंड।
रावन आगे परहि ते जनु फूटहि दधि कुंड।।
राजीव कुमार कुलश्रेष्ठ
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महा महा मुखिआ जे पावहि। ते पद गहि प्रभु पास चलावहि।।
कहइ बिभीषनु तिन्ह के नामा। देहि राम तिन्हहू निज धामा।।
खल मनुजाद द्विजामिष भोगी। पावहिं गति जो जाचत जोगी।।
उमा राम मृदुचित करुनाकर। बयर भाव सुमिरत मोहि निसिचर।।
देहिं परम गति सो जिय जानी। अस कृपाल को कहहु भवानी।।
अस प्रभु सुनि न भजहि भ्रम त्यागी। नर मतिमंद ते परम अभागी।।
अंगद अरु हनुमंत प्रबेसा। कीन्ह दुर्ग अस कह अवधेसा।।
लंका द्वौ कपि सोहहिं कैसे। मथहि सिंधु दुइ मंदर जैसे।।
भुज बल रिपु दल दलमलि देखि दिवस कर अंत।
कूदे जुगल बिगत श्रम आए जहँ भगवंत।।
राजीव कुमार कुलश्रेष्ठ
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प्रभु पद कमल सीस तिन्ह नाए। देखि सुभट रघुपति मन भाए।।
राम कृपा करि जुगल निहारे। भए बिगतश्रम परम सुखारे।।
गए जानि अंगद हनुमाना। फिरे भालु मर्कट भट नाना।।
जातुधान प्रदोष बल पाई। धाए करि दससीस दोहाई।।
निसिचर अनी देखि कपि फिरे। जहँ तहँ कटकटाइ भट भिरे।।
द्वौ दल प्रबल पचारि पचारी। लरत सुभट नहिं मानहिं हारी।।
महाबीर निसिचर सब कारे। नाना बरन बलीमुख भारे।।
सबल जुगल दल समबल जोधा। कौतुक करत लरत करि क्रोधा।।
प्राबिट सरद पयोद घनेरे। लरत मनहु मारुत के प्रेरे।।
अनिप अकंपन अरु अतिकाया। बिचलत सेन कीन्हि इन्ह माया।।
भयउ निमिष मह अति अंधियारा। बृष्टि होइ रुधिरोपल छारा।।
देखि निबिड़ तम दसहु दिसि कपिदल भयउ खभार।
एकहि एक न देखई जहँ तहँ करहिं पुकार।।
राजीव कुमार कुलश्रेष्ठ
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सकल मरमु रघुनायक जाना। लिए बोलि अंगद हनुमाना।।
समाचार सब कहि समुझाए। सुनत कोपि कपिकुंजर धाए।।
पुनि कृपाल हँसि चाप चढ़ावा। पावक सायक सपदि चलावा।।
भयउ प्रकास कतहु तम नाहीं। ग्यान उदय जिमि संसय जाहीं।।
भालु बलीमुख पाइ प्रकासा। धाए हरष बिगत श्रम त्रासा।।
हनूमान अंगद रन गाजे। हाँक सुनत रजनीचर भाजे।।
भागत पट पटकहिं धरि धरनी। करहिं भालु कपि अद्भुत करनी।।
गहि पद डारहिं सागर माहीं। मकर उरग झष धरि धरि खाहीं।।
कछु मारे कछु घायल कछु गढ़ चढ़े पराइ।
गर्जहिं भालु बलीमुख रिपु दल बल बिचलाइ।।
राजीव कुमार कुलश्रेष्ठ
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निसा जानि कपि चारिउ अनी। आए जहाँ कोसला धनी।।
राम कृपा करि चितवा सबही। भए बिगतश्रम बानर तबही।।
उहाँ दसानन सचिव हँकारे। सब सन कहेसि सुभट जे मारे।।
आधा कटकु कपिन्ह संघारा। कहहु बेगि का करिअ बिचारा।।
माल्यवंत अति जरठ निसाचर। रावन मातु पिता मंत्री बर।।
बोला बचन नीति अति पावन। सुनहु तात कछु मोर सिखावन।।
जब ते तुम्ह सीता हरि आनी। असगुन होहिं न जाहिं बखानी।।
बेद पुरान जासु जस गायो। राम बिमुख काहु न सुख पायो।।
हिरन्याच्छ भ्राता सहित मधु कैटभ बलवान।
जेहि मारे सोइ अवतरेउ कृपासिंधु भगवान।।
मासपारायण पचीसवा विश्राम
कालरूप खल बन दहन गुनागार घनबोध।
सिव बिरंचि जेहि सेवहिं तासों कवन बिरोध।।
राजीव कुमार कुलश्रेष्ठ
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परिहरि बयरु देहु बैदेही। भजहु कृपानिधि परम सनेही।।
ताके बचन बान सम लागे। करिआ मुह करि जाहि अभागे।।
बूढ़ भएसि न त मरतेउ तोही। अब जनि नयन देखावसि मोही।।
तेहि अपने मन अस अनुमाना। बध्यो चहत एहि कृपानिधाना।।
सो उठि गयउ कहत दुर्बादा। तब सकोप बोलेउ घननादा।।
कौतुक प्रात देखिअहु मोरा। करिहउ बहुत कहौं का थोरा।।
सुनि सुत बचन भरोसा आवा। प्रीति समेत अंक बैठावा।।
करत बिचार भयउ भिनुसारा। लागे कपि पुनि चहूँ दुआरा।।
कोपि कपिन्ह दुर्घट गढ़ु घेरा। नगर कोलाहलु भयउ घनेरा।।
बिबिधायुध धर निसिचर धाए। गढ़ ते पर्बत सिखर ढहाए।।
राजीव कुमार कुलश्रेष्ठ
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ढाहे महीधर सिखर कोटिन्ह बिबिध बिधि गोला चले।
घहरात जिमि पबिपात गर्जत जनु प्रलय के बादले।।
मर्कट बिकट भट जुटत कटत न लटत तन जर्जर भए।
गहि सैल तेहि गढ़ पर चलावहिं जहँ सो तहँ निसिचर हए।।
मेघनाद सुनि श्रवन अस गढ़ु पुनि छेंका आइ।
उतर्यो बीर दुर्ग तें सन्मुख चल्यो बजाइ।।
कहँ कोसलाधीस द्वौ भ्राता। धन्वी सकल लोक बिख्याता।।
कहाँ बिभीषनु भ्राताद्रोही। आजु सबहि हठि मारउ ओही।।
अस कहि कठिन बान संधाने। अतिसय क्रोध श्रवन लगि ताने।।
सर समुह सो छाड़ै लागा। जनु सपच्छ धावहिं बहु नागा।।
जहँ तहँ परत देखिअहिं बानर। सन्मुख होइ न सके तेहि अवसर।।
जहँ तहँ भागि चले कपि रीछा। बिसरी सबहि जुद्ध कै ईछा।।
सो कपि भालु न रन मह देखा। कीन्हेसि जेहि न प्रान अवसेषा।।
दस दस सर सब मारेसि परे भूमि कपि बीर।
सिंहनाद करि गर्जा मेघनाद बल धीर।।

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