80 प्रश्न - साधना के क्षेत्र में श्रद्धा और प्रेम की महिमा गाई गई है । सदगुरू के लिये यह प्रेम हममें कैसे पैदा हो ? कृपया इस पर प्रकाश डालिये ।
उत्तर - सन्त मत का आधार प्रेम है । सभी सन्त महापुरूषों ने अपनी वाणी में प्रेम और श्रद्धा पर बहुत अधिक बल दिया है । इसका कारण यह है कि प्रेम के सहारे से कोई भी काम जल्दी और सुगमता से बन जाता है । ज्ञान का सहारा लेने से इतनी जल्दी लाभ नहीं होता । और न निरी समझ बूझ ही ऐसा फ़ायदा दे सकती है । जैसा प्रेम के माध्यम से होता है । श्री सदगुरू के साथ प्रेम किया नहीं जाता । प्रेम प्रसाद में मिलता है । श्री सदगुरू देव जी महाराज अपनी निज कृपा से प्रेम दान देते हैं । यह प्रेम का दान दीनता और सेवा के पात्र में डाला जाता है । दीन बनो । और नमृता पूर्वक श्री सदगुरू देव जी महाराज की सेवा । पूजा करो । और बदले में कुछ की चाह मत करो । जो साधक दीनता और सेवा की झोली लिये श्री सदगुरू के द्वार पर खडे रहते हैं । तो एक न एक दिन प्रसन्न होकर श्री सदगुरू प्रेम के दान से उस झोली को मालामाल कर देते हैं । ऐसे प्रेम को पाने के बाद । फ़िर कुछ और पाना शेष नहीं रह जाता ।
श्री सदगुरू की आँखों में प्रेम का दिव्य तेज जगमगाया करता है । वे प्रेम के सिन्धु खुद कहे जाते हैं । श्री सदगुरू देव जी महाराज के अन्दर प्रेम की अटल दिव्यता में डूब जाने की कामना करने वाला । क्षण भर में उस प्रेम में डूब जाता है । मानो उन आंखों में प्रेम और भक्ति का असीम सागर हिलोरें ले रहा है ।
प्रेम भक्ति का असीम सागर होते हुए भी । वे सरल भी इतने होते हैं कि छोटे छोटे बालकों की तरह व्यवहार सभी प्रेमियों से करने लगते हैं । ज्ञान भक्ति की अदभुत विकट पहेली को वे पल भर में सुलझा कर रख देते हैं । उनकी अमृत मयी वाणी ऐसी है । जो प्रेम की सजगता के तट पर सोने वालों को । क्षण भर में जगाकर । प्रेम के सागर की मस्ती में लीन कर देती है । मस्ती में मस्त कर देती है ।
तमन्ना है हर इन्सान की । मैं हमेशा सुखी और प्रेम के आनन्द में रहूं ।
कभी भी दुख मुझको न सताये । सदा प्रेम और खुशियों से भरपूर रहूं ।
हर साधक संसार में जितने सेवा तथा धर्म व समाज का कार्य करता है । उसके पीछे दो बातें छिपी रहती है । एक
तो प्रेम सहित उस सेवा कार्य करने का चाव । और दूसरी लगन । मोहब्बत या प्रेम । जिस कार्य में चाव व लगन की कमी होती है । वहां मनुष्य । साधक । जिज्ञासु उसे ठीक से नहीं कर सकता । परमार्थी रास्ते में भी यही हालत है । जो साधक भक्ति और परमार्थ को प्राप्त करना चाहता है । उसे चाहिये कि श्री सदगुरू भगवान के श्री चरणों में सच्चा प्रेम तथा प्रतीति लाये । पहले किसी ऐसे सन्त महापुरूष को खोजो । जिसने श्री सदगुरू का दर्शन कर लिया हो । और जो उन महा पुरूषों में सदा लीन रहता हो । ऐसे महा पुरूष को सन्त कहते हैं । पहले उनके प्रति श्रद्धा व विश्वास अपने मन में पैदा करे । जब श्रद्धा व विश्वास पक्के हो जायें । तो तन । मन । धन । और दीन भाव से की गई सेवा के द्वारा । उन्हें प्रसन्न करे । यधपि सन्त किसी प्रकार की सेवा के इच्छुक नहीं होते । किन्तु सन्तों की सेवा से श्री सदगुरू भगवान प्रसन्न होते हैं ।
सन्त तो भगवान के रूप होते हैं । अत: वे अपने शिष्यों को श्री सदगुरू का प्रेम दान देते हैं । जब वह प्रेम का बीज जिज्ञासु शिष्य के ह्रदय में अंकुरित हो जाय । तो पहले श्री सदगुरू के सगुण रूप यानी गुरू स्वरूप में समाहित चित्त से उसे बढाये । और फ़िर गुरू के निज स्वरूप से मिलने का यत्न करना शुरू करे । इससे श्री सदगुरू मे प्यार धीरे धीरे पैदा होता है । और दिनों दिन बढता जाता है । श्री सदगुरू का स्थूल शरीर । वह मन्दिर है । जिसमें ईश्वर विराजता है । जब मन्दिर में मूर्ति के दर्शन करने जाते हो । तो पहले मन्दिर दिखाई देता है । और जब मन्दिर में प्रवेश करते हो । तो दीनता पूर्वक झुकते हो । तो भगवान की मूर्ति के दर्शन होते हैं । श्री सदगुरू स्वरूप से प्रेम करके अपने आपको उनमें लय कर दो । तब ही निज स्वरूप के दर्शन होंगे । जैसे जैसे श्री सदगुरू से प्रेम बढता जायेगा । उनमें जिज्ञासु की लय अवस्था भी बढती जायेगी ।
सच्चे सदगुरू उपदेश देते समय उस निज रूप का भेद बतलायेंगे । जो कि अकथ । अपार । रूप । रंग और रेखा से न्यारा है । और श्री सदगुरू का । जिज्ञासु का । और कुल सृष्टि की रचना का । वही निज रूप है । इस तरह भेद को समझ कर । और रास्ते की मंजिलों को देखता । और तय करता हुआ । प्रेम के सहारे । अभ्यासी आगे चलता जायेगा । और जो प्रेम उसे श्री सदगुरू स्वरूप में आया है । वही उलट कर उनके निज स्वरूप में लगता व बढता जायेगा । जब यह प्रेम अपने अन्तिम पराकाष्ठा पर पहुंच जायेगा । तब पूर्ण लय अवस्था होगी । और एक दिन जिज्ञासु का कार्य बन जायेगा । शरीर से देखने पर तो श्री सदगुरू और शिष्य के शरीर अलग अलग दिखायी देंगे । किन्तु अन्दर से वे दोनों एक दूसरे में पूर्णतया लय होंगे । सन्तों ने लय अवस्था के लिये कहा है कि -
जब मैं था तब गुरू नहीं । अब गुरू हैं मैं नाहिं । प्रेम गली अति सांकरी । जा में दो न समाहिं ।
बस प्रेम को ही पकडे रखो । पहले श्री सदगुरू के स्थूल शरीर से प्रेम । और फ़िर श्री सदगुरू के निज रूप से प्रेम । यही प्रेम का सही रास्ता है । और यही सबसे आसान और छोटा रास्ता Short cut है । कोई काम । कोई सोच विचार । और कोई व्यवहार । ऐसा न हो कि जिससे श्री सदगुरू की नाराजगी हो । उनके सामने हमेशा अपने को गुहनगार । दोषी समझे । अपनी दीनता को न छोडे । उनके वचनों को । पत्थर की लकीर की तरह । बिना किसी शंका के । पूर्ण विश्वास के साथ । दृढ करके पकडे । सिवाय श्री सदगुरू के किसी और का आसरा न ले । और सोते जागते । खाते पीते । चलते फ़िरते । या कोई भी काम करते समय सदा अपनी सुरत को श्री सदगुरू देव जी महाराज के कमलवत श्री चरणों में लगाये रखे । श्री सदगुरू के प्रति श्रद्धा और निष्टा रखने की अपेक्षा । उनके नाम का भजन । सुमिरन । सेवा । पूजा । और आज्ञा का पालन करना श्रेष्ठतर है । आज्ञाकारिता एक मूल्यवान सदगुण
है । क्योंकि यदि आप भजन । ध्यान । सेवा और आज्ञा के पालन के गुण का विकास करने का प्रयास करेंगे । तो आत्म साक्षात्कार के पथ के जो कट्टर शत्रु हैं । उनका और अहंकार का । धीरे धीरे उन्मूलन ( विनाश ) हो जायेगा ।
इस कथन से ऐसा नहीं समझना चाहिये कि - भजन करने में कम रूचि रखना है । या ओछा काम है । बल्कि श्री सदगुरू के बतलाये हुए मंत्र का दुरूस्ती से । भजन । सुमिरन । सेवा । पूजा । दर्शन । ध्यान । तथा आज्ञा का पालन करने के लिये । मन में सफ़ाई । और प्रेम । पैदा करना चाहिये । श्री सदगुरू में लय होने के लिये । भजन । सुमिरन । सेवा । पूजा । दर्शन । ध्यान । व आज्ञाकारिता बहुत बडे सहायक हैं । उसी के माध्यम से ही । श्री सदगुरू में लय हुआ जा सकता है । गुरू में लय होना । तो बहुत आगे की बात है । लेकिन शुरू शुरू में इस कथन में इतना समझ लेना चहिये कि - जब कभी भजन में बुरे विचार भरी हुई तरंगे उठें । तो उसे दशा में भजन । ध्यान । प्रार्थना । कीर्तन की प्रगाढता । बराबर बनाये रखना चाहिये । इसके साथ साथ पूरी श्रद्धा के साथ श्री सदगुरू की अमृत वाणी रूपी सत्संग को सुनने समझने में बहुत विशेष रूचि रखनी चाहिये । अपने में अति दीन भाव सदा रखना चाहिये । प्रेम । श्रद्धा । व दीनता से भरे हुए पद । भजन । चौपाइयां । गजलें । भाव पूर्ण स्वर से गायें । उनके भाव व अर्थों को पूरी तरह समझकर अपने मन को धिक्कारें । और समझायें कि भविष्य में अपवित्र विचार मन में कभी भी न उठें । और पूरी श्रद्धा के साथ भजन । सुमिरन । सेवा । पूजा । दर्शन । ध्यान । तथा आज्ञा के पालन में लगें । जैसे तैसे मन में भजन । सुमिरन के प्रति श्रद्धा बढती चले । तैसे तैसे भजन । सुमिरन । ध्यान की प्रक्रिया को धीरे धीरे बढाते रहना चाहिये ।
जो शिष्य । अपने श्री सदगुरू देव जी महाराज के बताये हुए मंत्र का जप । गुरू सेवा । आज्ञा का पालन करता है । तो केवल वही अपनी निम्न वृत्तियों पर अधिपत्य रख सकता है । श्री सदगुरू के नाम का भजन । सुमिरन । सेवा
। पूजा । दर्शन । ध्यान । व आज्ञा के पालन में अत्यन्त तत्पर । सक्रिय तथा अध्यवसायी होना चाहिये । अच्छा शिष्य श्री सदगुरू के प्रति श्रद्धावान होता है । आज्ञा के पालन में किसी प्रकार की टाल मटोल नहीं करता है । और न ही सन्देह प्रगट करता है । सच्चा शिष्य अपने श्री सदगुरू देव जी महाराज की कृपा प्राप्ति के लिये ही भजन । सुमिरन । सेवा । पूजा । दर्शन । ध्यान । तथा आज्ञा का पालन करता है ।
अपने शिष्य की आध्यात्मिक आवश्यकताओं को केवल गुरू ही जानता है । गुरू अपने शिष्य के विकास के लिये ही उपदेश देता है । आध्यात्मिक प्रगति करने के लिये ही तो भजन । सुमिरन । सेवा । पूजा । दर्शन । ध्यान । व आज्ञा के पालन की प्रक्रिया को बार बार समझाता रहता है ।
गुरू शब्द अपने आप में प्रबुद्ध और दिव्य शब्द है । इस गुरू शब्द का सुमिरन करने पर पवित्र ज्ञान व चेतना का बोध होता है । ऐसा लगता है कि हमने मान सरोवर में डुबकी लगायी है । ऐसा प्रतीत होता है कि हमारे ह्रदय में गुरू की मूर्ति स्थापित हो गयी हो । क्योंकि यह गुरू शब्द अपने आप में प्रेम का ऊर्जा वान दिव्य स्वरूप है ।
सन्त महापुरूषों ने सदा गुरू शब्द के साथ प्रेम शब्द को भी साथ साथ अपनाया है । इसलिये गुरू शब्द तथा सन्त मत प्रेम का रास्ता है । जिन अभ्यासियों के मन में श्री सदगुरू के श्री चरणों में थोडा बहुत भी प्यार है । उन्हें चाहिये कि उस प्रेम का निरन्तर सहारा पकडे रहें । जब भजन और ध्यान पर बैठें । तो श्री सदगुरू के स्वरूप को सम्मुख करके भजन । सुमिरन । और ध्यान का अभ्यास शुरू करें । ऐसा करने से मन और इन्द्रियों का वेग घटता हुआ प्रतीत होगा । भजन । सुमिरन । ध्यान के प्रभाव से । प्रेम का प्रभाव उभरने लगेगा । और अभ्यास में उमंग बढती जायेगी । और उसमें रस व आनन्द आने लगेगा । गुरू भक्ति योग के सतत अभ्यास के द्वारा मन की चंचल प्रवृत्ति का नाश करो ।
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ये शिष्य जिज्ञासा की सुन्दर प्रश्नोत्तरी श्री राजू मल्होत्रा जी द्वारा भेजी गयी है । आपका बहुत बहुत आभार ।