शनिवार, सितंबर 18, 2010

यह कहानी आपने कहाँ पढ़ी है?




शंकराचार्य परकाय प्रवेश विध्या के निष्णात साधक थे । जब मंडन मिश्र और शंकराचार्य का शास्त्रार्थ हुआ तो ये तय हुआ । कि इनमें से जो हारेगा । वो दूसरे का शिष्य बन जायेगा । मण्डन मिश्र भारत के विख्यात विद्धान और ग्रहस्थ थे । उनकी पत्नी सरस्वती भी अत्यन्त विद्धान थी । शंकराचार्य संन्यासी थे । और उन्होंने शास्त्रार्थ के माध्यम से भारत विजय करने के उद्देश्य से अनेक यात्रायें की थी । मगर वे सर्वश्रेष्ठ तभी माने जा सकते थे । जब वे महाविद्वान मण्डन मिश्र को पराजित करते । इन दोनों के शास्त्रार्थ का निर्णय कौन करता ? क्योंकि कोई सामान्य विद्वान तो इसका निर्णय नही कर सकता था । अतः शंकराचार्य के अनुरोध पर निर्णय के लिये मिश्र की पत्नी सरस्वती का ही चयन किया गया ।
यह शास्त्रार्थ इक्कीस दिन चला और आखिरकार मण्डन मिश्र हार गये । यह देखकर सरस्वती ने निर्णय दिया कि मिश्र जी हार गये हैं । अतः वे शंकराचार्य का शिष्यत्व स्वीकार करें और संन्यास दीक्षा लें । यह कहकर वह विद्वान पत्नी निर्णायक पद से नीचे उतरी और शंकराचार्य से कहा । मैं मण्डन मिश्र की अर्धांगिनी हूं । अतः अभी तक मिश्र जी की आधी ही पराजय हुयी है । जब आप मुझे भी पराजित कर देंगे तब मिश्र जी की पूरी पराजय मानी जायेगी । यह बात एकदम सही थी । अबकी बार मण्डन मिश्र निर्णायक बने । सरस्वती तथा शंकराचार्य में शास्त्रार्थ होने लगा । इक्कीसवें दिन जब सरस्वती को लगा कि अब उसकी पराजय होने ही वाली है । तब उसने शंकराचार्य से कहा । अब मैं आपसे अंतिम प्रश्न पूछती हूं । और इस प्रश्न का भी उत्तर यदि आपने दे दिया । तो हम अपने आपको पराजित मान लेंगे । और आपका शिष्यत्व स्वीकार कर लेंगे । शंकराचार्य के हां कर देने पर सरस्वती ने कहा । सम्भोग क्या है ? यह कैसे किया जाता है । और इससे संतान का निर्माण किस प्रकार हो जाता है । यह सुनते ही शंकराचार्य प्रश्न का मतलब और उसकी गहरायी समझ गये । यदि वे इसी हालत में और इसी शरीर से सरस्वती के प्रश्न का उत्तर देते हैं तो उनका संन्यास धर्म खन्डित होता है । क्योंकि संन्यासी को बाल बृह्मचारी को संभोग का ग्यान होना असम्भव ही है ।
अतः संन्यास धर्म की रक्षा करने के लिये उत्तर देना सम्भव ही नहीं था । और बिना उत्तर दिये । हार तय थी । लिहाजा दोनों ही तरफ़ से नुकसान था । कुछ देर विचार करते हुये शंकराचार्य ने कहा । क्या इस प्रश्न का उत्तर अध्ययन और सुने गये विवरण के आधार पर दे सकता हूं ? या इसका उत्तर तभी प्रमाणिक माना जायेगा । जबकि उत्तर देने वाला इस प्रक्रिया से व्यवहारिक रूप से गुजर चुका हो । तब सरस्वती ने उत्तर दिया । कि व्यवहारिक ग्यान ही वास्तविक ग्यान होता है । यदि आपने इसका व्यवहारिक ग्यान प्राप्त किया है । अर्थात किसी स्त्री के साथ यौनक्रिया आदि कामभोग किया है । तो आप निसंदेह उत्तर दे सकते हैं । शंकराचार्य जन्म से ही संन्यासी थे । अतः उनके जीवन में कामकला का व्यावहारिक ग्यान धर्म संन्यास धर्म के सर्वथा विपरीत था । अतः उन्होंने उस वक्त पराजय स्वीकार करते हुये कहा । कि मैं इसका उत्तर छह महीने बाद दूंगा । तब शंकराचार्य ने मंडन मिश्र की पत्नी से छ्ह माह का समय लिया । और अपने शिष्यों के पास पहुँचकर कहा कि मैं छह महीने के लिये दूसरे शरीर में प्रवेश कर रहा हूँ । तब तक मेरे शरीर की देखभाल करना । यह कहकर उन्होनें अपने सूक्ष्म शरीर को उसी समय मृत्यु को प्राप्त हुये एक राजा के शरीर में डाल दिया । मृतक राजा अनायास उठकर बैठ गया । खैर राजा के अचानक जीवित हो उठने पर सब बहुत खुश हुये । लेकिन राजा की एक रानी जो अलौकिक ग्यान के विषय में जानती थी ।
उसे कुछ ही दिनों में मरकर जीवित हुये राजा पर शक होने लगा । क्योंकि पुनर्जीवित होने के बाद राजा केवल कामवासना में ही रुचि लेता था । और तरह तरह के प्रयोग सम्भोग के दौरान करता था । रानी को इस पर कोई आपत्ति न थी । उसकी तो मौजा ही मौजा थी । पर जाने कैसे वह ताङ गई कि राजा के शरीर में जो दूसरा है वो अपना काम समाप्त करके चला जायेगा । तब ये मौजा ही मौजा खत्म न हो जाय ।इस हेतु उसने अपने विश्व्स्त सेवकों को आदेश दिया जाओ । आसपास गुफ़ा आदि में देखो कोई लाश ऐसी है । जो संभालकर रखी गयी हो । या जिसकी कोई सुरक्षा कर रहा हो । ऐसा शरीर मिलते ही नष्ट कर देना । उधर राजा के शरीर में शंकराचार्य ने जैसे ही ध्यान लगाया । उन्हें खतरे का आभास हो गया और वो उनके पहुँचने से पहले ही राजा के शरीर से निकलकर अपने शरीर में प्रविष्ट हो गये । इस तरह शंकराचार्य ने कामकला का ग्यान प्राप्त किया । इस प्रकार सम्भोग का व्यवहारिक ग्यान लेकर शंकराचार्य पुनः अपने शरीर में आ गये । इस तरह से जिस शरीर से उन्होंने संन्यास धर्म स्वीकार किया था । उसको भी खन्डित नहीं होने दिया । इसके बाद पुनः मन्डन मिश्र की पत्नी सरस्वती को उसके संभोग विषयक प्रश्न का व्यवहारिक ग्यान से उत्तर देकर उन पर विजय प्राप्त की । और उन दोनों पति पत्नी को अपनी शिष्यता प्रदान की । और अपने आपको भारत का शास्त्रार्थ विजेता सिद्ध किया ।

शुक्रवार, अगस्त 13, 2010

आज के ज्योतिष में कितना दम है ?



मैंने कई शास्त्रों में युगों की आयु के बारे में अलग अलग पडा था और लोग मुझसे प्रश्न भी करते थे कि कलियुग की उमर कितनी है । और कितनी शेष है ।

दो महत्वपूर्ण बातें पौराणिक शोधकर्ताओं हेतु बतायीं । एक तो कलियुग की आयु 28 000 बरस है और दूसरे इस समय इन्द्र की पदवी पर प्रह्लाद है । वही प्रहलाद जो होलिका दहन के लिये प्रसिद्ध है । मेरी निगाह में ये दो तथ्य भी शोधकर्ताओं के लिये काफ़ी महत्वपूर्ण हैं ।
अभी में इस बात पर स्पष्ट नहीं हूं कि तीसरे तथ्य में मैंने जो सुना  वो पूरी तरह सही ही था । क्योंकि अन्य महात्मा भी थे और शिष्य लोग आ गये थे इसलिये थोडा गम्भीर बातचीत का माहौल नहीं था ।

फ़िर भी महाराज जी ने तीसरा महत्वपूर्ण तथ्य ये बताया कि एक युग में चौदह मनु होते हैं ।

खैर ये तीनों तथ्य जो महाराज जी से कभी कभी ही मुश्किल से प्राप्त हो पाते हैं । मैं शोधकर्ताओं हेतु प्रकाशित कर रहा हूं । मैं कभी इस बात के लिये दवाव नहीं  कि  बात पूरी तरह आंख बन्द कर मानें । लेकिन जो संतो के माध्यम से प्राप्त दुर्लभ जानकारी जो मैं आपको देता हूं । उससे कई रहस्य अनायास ही खुल जाते है । क्योंकि आत्मग्यानी संत शास्त्र के हवाले से बात नहीं कहते  बल्कि निज अनुभव ग्यान के आधार पर कहते हैं ।

कल शाम को एक मजेदार बात ज्योतिष पर भी छिडी । वो बात ये थी कि त्रेता युग में महाराज दशरथ के कुलगुरु वशिष्ठ जिन्हें ज्योतिष का भी अच्छा ग्यान था । के तीन ज्योतिष ग्यान एकदम फ़ेल हुये ।

पहला  उन्होनें जब कैकयी का दशरथ के लिये विवाह प्रस्ताव आया तो उन्होंने और अन्य पुरोहितों ने स्पष्ट कहा कि ये लडकी खानदान को बिलकुल मटियामेट कर देगी । लिहाजा विवाह प्रस्ताव नामन्जूर कर दिया गया ।
लेकिन होनी ज्योतिष से अधिक बलबान होती है । रावण की करामात से दशरथ जो अपनी परम्परा के अनुसार एक पत्नीवृत यानी एक ही विवाह करना चाहते थे । उनके तीन रानियों से एक साथ विवाह हुये । जिनमें कौशल्या और सुमित्रा सगी बहिनें थी और कैकयी अलग थी ।
( इस पूरे विवरण को विस्तार से जानने के लिये मेरी पोस्ट दशरथ के तीन विवाह कैसे हुये ? पढें )
यानी वशिष्ठ का ज्योतिष फ़ेल हो गया ।
दूसरा जब राम का सीता के साथ विवाह हुआ तो वशिष्ठ द्वारा राम सीता की कुन्डली मिलाने पर 36 गुण मिले और विवाह को सब प्रकार से उत्तम बताया गया । यानी सीता सुखी रहेगी  ये जोडा बेहद सफ़ल रहेगा ?
ये बात वशिष्ठ का ज्योतिष कह रहा था ।
जनक के पुरोहितों आदि ने भी कुन्डली का मिलान किया होगा ।
अब सीता कितनी सुखी रही और ये शादी कितनी सफ़ल रही ये बताने की शायद आवश्यकता नहीं है ।

तीसरा जब दशरथ ने राम को राजगद्दी देने का फ़ैसला किया तब भी वशिष्ठ ने मुहूर्त आदि का मिलान करके उस समय को बहुत उत्तम घडी बताया । जिसमें राजतिलक होना था ?
लेकिन यहां भी वशिष्ठ का ज्योतिष फ़ेल हो गया । गद्दी की जगह वनवास हो गया वो भी चौदह बरस का । वो भी एक की जगह तीन तीन को ।

बाद में राम ने यह प्रश्न वशिष्ठ से किया भी कि आप तो कह रहे थे कि योग अच्छा बन रहा है । फ़िर बुरा कैसे हो गया ?
तब वशिष्ठ ने उत्तर दिया कि विधि का लिखा को मेटनहारा ? अब एक प्रश्न ये उठता है कि वशिष्ठ अलौकिक ग्यान से कुन्डली को जानते थे और मात्र ज्योतिष किताबों का सहारा नहीं लेते थे । फ़िर भी फ़ेल हो गये तो ज्योतिष की सार्थकता क्या है ? क्या वशिष्ठ आदि ग्यानियों और अन्य पुरोहितों को दशरथ पर आने वाले संकट का ज्योतिष में कोई इशारा नहीं था । उपाय नहीं था ?

एक बार एक मित्र के जरिये एक ज्योतिषी जो जोधपुर रिटर्न यानी जोधपुर से ज्योतिष सीखे हुये थे । मेरे पास आये और बहुत सी बातें बतानें लगे । जिनके जरिये ज्योतिष से हीरा पहनकर गिरता आसमान रोका जा सकता है ।
मैंने कहा मुझे एक नवजात बच्चे का बीस साल या चालीस साल का भविष्यफ़ल उसकी कुन्डली के सहित बनबाना है ।
वो खुशी खुशी तैयार हो गये ।

मैंने कहा । बच्चे की जन्मतिथि... है  चालीस साल के जीवन में क्या क्या घट चुका है  ये ज्योतिष के द्वारा जानना चाहता हूं । यानी लोग आगे की जानना चाहते हैं  मैं पीछे की जानना चाहता हूं और आपको फ़लादेश बताने के लिये सिर्फ़ जन्म तिथि और जन्म स्थान की आवश्यकता ही होती है ।

ज्योतिषी का मुंह फ़क पड गया । उस समय उच्च स्तर के विद्वान आठ लोग बैठे थे । अतः ज्योतिषी छोटे मोटे तर्क से काम नहीं चला सकते थे । ज्योतिषी  ने मेरी कुन्डली बनाने से इंकार कर दिया । 

वृद्ध व्यक्ति के लिये युवती विष के समान है ।



मनुष्य में ब्राह्मण । तेज में सूर्य । शरीर में सिर । और वृत में सत्य ही श्रेष्ठ है । स्त्री वही श्रेष्ठ है जो मद उन्मत न हो । जिस पर विश्चास कर सकें । वही मित्र है । जिसने अपनी इन्द्रियों को जीत लिया वही पुरुष है । ब्राह्मण का तेज पापाचार करने से नष्ट हो जाता है । दुष्ट स्त्रियों के साहचर्य से कुल नष्ट हो जाता है । मनुष्य को राजा रहित और बहुत से राजाओं के नेतृत्व वाले स्थान पर निवास नही करना चाहिये । इसी प्रकार जहां स्त्रियों का नेतृत्व हो या बाल नेतृत्व हो वहां भी निवास करना अच्छा नहीं होता । कौमार्य अवस्था में स्त्री की रक्षा पिता करता है । युवावस्था में उसकी रक्षा पति करता है । वृद्धावस्था में उसकी रक्षा का भार पुत्र उठाता है । स्त्री स्वतंत्र रहने योग्य नहीं होती । धन के लिये आतुर व्यक्ति का न कोई मित्र है और न कोई बंधु । कामातुर व्यक्ति के लिये न कोई भय है और न लज्जा । चिंता से ग्रस्त प्राणी के लिये न सुख है और न नींद । गरीब । दूसरे के द्वारा भेजा गया दूत । परायी औरत से प्रेम करने वाला । तथा दूसरों का धन चुराने वाले व्यक्ति को नींद नहीं आती । जो व्यक्ति रोग रहित । कर्ज रहित । और स्त्री सम्भोग से दूर रहने की इच्छा वाला होता है । वह सुख की नींद सोता है । आचार को देखकर कुल का ग्यान होता है । भाषा को सुनकर देश का ग्यान होता है । शरीर को देखकर भोजन का ग्यान ( अनुमान ) होता है । समुद्र में वर्षा का होना व्यर्थ है । भरे पेट से भोजन का आग्रह व्यर्थ है । धनी को दान देना व्यर्थ है । नीच के लिये किया गया अच्छा कार्य व्यर्थ है । मुख का विकृत हो जाना । स्वर का भंग हो जाना । दीन भाव आ जाना ।
पसीने से लथपथ शरीर । तथा अत्यन्त भय के चिह्न ये सब चिह्न प्राणी में मत्यु के समय उपस्थित होते हैं । किन्तु याचक के शरीर पर ये चिह्न जीवित ही दिखाई देते हैं । विध्या कुरूप के लिये भी रूप है । विध्या
गुप्त धन है । विध्या प्राणी को साधुवृति वाला तथा सबका प्रिय बना देती है । विध्या बन्धु बान्धव के भी
कष्ट दूर करने वाली है । विध्या राजाओं के बीच भी पूज्यनीय है । विध्या से विहीन मनुष्य पशु के समान है । अत्यन्त जतन से छुपाकर रखा गया धन चुराया जा सकता है । पर विध्या को कोई नही चुरा सकता ।
न कोई किसी का मित्र है । न कोई किसी का शत्रु । कारण की वजह से ही सब एक दूसरे के शत्रु मित्र होते हैं । यदि मनुष्य को किसी के साथ शाश्वत प्रेम करना है तो उसके साथ जुआ । धन का लेन देन । एवं उसकी
स्त्री की तरफ़ देखना । इन तीन दोषों को त्याग देना चाहिये । माता । बहिन या पुत्री के साथ एकान्त में
नहीं बैठना चाहिये । क्योंकि इन्द्रियों का समूह अधिक बलवान होता है । वह अति विद्वान को भी दुराचार
को प्रेरित कर सकता है । उपयुक्त अवसर न मिलने से । एकान्त स्थान न होने से । तथा इच्छा के अनुकूल
पुरुष न मिलने से ही स्त्रियों में सतीत्व पाया जाता है । जो खाने पीने की चीज से बालक को । विनम्रता से सज्जन को । धन से स्त्री को । तपस्या से देवता को । और सद व्यवहार से समस्त लोक को वश में कर लेता
है । वही ग्यानी है । जो कपट से मित्र बनाना चाहते है । पाप से धर्म कमाना चाहते हैं । दूसरों को दुखी
करके धन संग्रह करना चाहते हैं । बिना परिश्रम के सुख पूर्वक विध्या अर्जन करना चाहते हैं । और कठोर व्यवहार के द्वारा स्त्रियों को वश में करने की इच्छा रखते हैं । वे निश्चय ही मूर्ख हैं । दरिद्र के लिये गोष्ठी
विष के समान है । वृद्ध व्यक्ति के लिये युवती विष के समान है । भली भांति आत्मसात न की गयी विध्या
विष के समान है । अजीर्ण दशा में किया गया भोजन विष के समान है । अधिक मात्रा में जल पीना । गरिष्ठ
भोजन । धातु की क्षीणता । मल मूत्र का वेग रोकना । दिन में सोना । रात में जागना । इनसे मनुष्य शरीर
में रोग वास करने लगते हैं । प्रातकालीन धूप । अधिक मैथुन । शमशान धूम का सेवन । अग्नि में हाथ सेकना
। रजस्वला स्त्री का मुख देखना । ये दीर्घ आयु का भी विनाश कर देते हैं । शुष्क मांस । वृद्धा स्त्री । बाल सूर्य
। रात में दही खाना । सुबह के समय स्त्री से सम्भोग करना । ये प्राण विनाशक होते हैं । तुरन्त पकाया
गया घी । अंगूर का फ़ल । युवती स्त्री । दूध का सेवन । गरम जल । तथा वृक्ष की छाया । ये शीघ शक्ति देने
वाले होते हैं ।

क्योंकि भली प्रकार से न बुझायी आग संसार को भस्म कर सकती है ।



कुएं का जल । वट वृक्ष की छाया । सर्दी में गरम । तथा गरमी में शीतल होते है । तैल मर्दन और सुन्दर भोजन ये शरीर में बल का संचार करते हैं । किन्तु मार्ग गमन । सम्भोग । और ज्वर ये सधः पुरुष का भी
बल हर लेते हैं । गन्दे कपडे पहनने वाला । दांत साफ़ न करने वाला । अधिक भोजन करने वाला । कठोर वचन बोलने वाला । सूर्योदय तथा सूर्यास्त के समय सोने वाला । लक्ष्मी इनका शीघ्र साथ छोड देती हैं ।
नाखून से तिनका छेदने वाला । प्रथ्वी पर लिखने वाला । पैर न धोने वाला । नग्न होकर सोने वाला ।
अधिक परिहास करने वाला । अपने अंग ( शरीर ) पर या आसन पर बाजा बजाने वाला । इनको लक्ष्मी त्याग देती है । लेकिन सिर को धोकर स्वच्छ रखने वाला । अपने चरणों को धोने वाला । अल्प भोजन करने वाला । नग्न शयन न करने वाला । पर्व रहित दिवसों में ही स्त्री सम्भोग करने वाला । वैश्या गमन से दूर रहने वाला । इनकी चिरकाल से नष्ट हुयी लक्ष्मी भी शीघ्र लौट आती है । बाल सूर्य का तेज । चिता का धुंआ । वृद्ध स्त्री । बासी दही । और झाडू की धूल का सेवन लम्बी आयु की इच्छा रखने वाले को नहीं करना चाहिये । सूप फ़टकने से निकली वायु । नाखून का जल । स्नान आदि के बाद वस्त्र से निचोडा गया जल । बालों से गिरता हुआ जल । तथा झाडू की धूल मनुष्य के पूर्व जन्म के अर्जित पुण्य को भी नष्ट कर देते हैं । स्त्री । राजा । अग्नि । सर्प । स्वाध्याय । शत्रु की सेवा । भोग और आस्वाद में कौन ऐसा बुद्धिमान होगा । जो विश्वास करेगा । अविश्वसनीय पर विश्वास । और विश्वस्त प्राणी पर अधिक विश्वास । नहीं करना चाहिये । क्योकि विश्वास से जो भय उत्पन्न होता है । वह मनुष्य को समूल नष्ट कर देता है । प्राणी को अत्यन्त सरल अथवा अत्यन्त कठोर भी नही होना चाहिये । क्योंकि सरल स्वभाव से सरल और कठोर स्वभाव से कठोर शत्रु को नष्ट किया जा सकता है । अत्यन्त सरल तथा कोमल नहीं होना चाहिये । सरल अर्थात सीधे वृक्ष ही काटे जाते हैं । टेडे तो आराम से खडे रहते हैं । फ़ल से परिपूर्ण वृक्ष एवं गुण्वान व्यक्ति विनम्र हो जाते हैं । किन्तु सूखे वृक्ष और मूर्ख मनुष्य टूट तो सकते हैं पर झुक नहीं सकते । जिस प्रकार दुख बिना मांगे जीवन में आते हैं और चले जाते हैं । उसी प्रकार सुख की भी यही स्थिति है । छह कानों तक पहुंची हुयी गुप्त मन्त्रणा भी नष्ट हो जाती है । अतः मन्त्रणा को चार कानों तक ही सीमित करना चाहिये ।
दो कानों तक रहने वाली मन्त्रणा को तो ब्रह्मा भी जानने में समर्थ नही होता । मनुष्य को पांच वर्ष तक पुत्र का पालन प्यार से करना चाहिये । दस वर्ष तक उसे अनुशासित करना चाहिये । तथा सोलह वरस की आयु में उससे मित्रवत व्यवहार करना चाहिये । कुछ बाघ हिरन के समान मुंह वाले होते हैं । कुछ हिरन बाघ के समान मुंह वाले होते हैं । उनके वास्तविक स्वरूप पर अविश्वास ही बना रहता है । इसलिये बाह्य आकृति से व्यक्ति की अन्तः प्रवृति को नहीं जानना चाहिये । क्षमाशील व्यक्ति में एक ही दोष है । उसमें दूसरा दोष नहीं होता । दोष ये है । जो क्षमाशील होते हैं । मनुष्य उनको अशक्त या असमर्थ मानता है ।
कम शक्तिशाली वस्तुओं का संगठन भी अत्यधिक शक्ति सम्पन्न हो जाता है । जिस प्रकार तिनकों से बटकर
बनायी गयी रस्सी से शक्तिशाली हाथी बांध लिया जाता है । मनुष्य को भूलकर भी दुष्ट एवं छोटे शत्रु की
भी अपेक्षा नहीं करनी चाहिये । क्योंकि भली प्रकार से न बुझायी आग संसार को भस्म कर सकती है ।
जो नयी उमर अथवा युवावस्था में शान्त रहता है । वही वास्तव मे शान्त है । क्योकि धातु क्षय और
सब प्रकार की शक्तियां समाप्त हो जाने पर तो सभी स्वत शान्त हो जाते हैं ।

इसी कर्म की वजह से शंकर हाथ मे कपाल लेकर भिक्षाटन करते हैं ।



भीम अर्जुन आदि पांडव राजपुत्र थे । ये सभी चन्दमा के समान कान्तियुक्त । पराक्रमी । सत्य बोलने वाले । सूर्य के समान प्रतापी और स्वयं अवतारी भगवान कृष्ण से रक्षित थे । फ़िर भी इनको कंजूस धृतराष्ट्र की परवशता के कारण भिक्षा तक मांगनी पडी । इसलिये इस संसार में कौन ऐसा है । किसमें इतनी सामर्थ्य है । जिसको भाग्य के वशीभूत होने के कारण कर्मरेखा नहीं घुमाती । अपने पूर्व संचित कर्म के अधीन होकर ही ब्रह्मा कुम्भकार ( कुम्हार ) के समान ब्रह्माण्ड रूपी इस महाभाण्ड के उदर में चराचर प्राणियों की सृष्टि में नियमतः लगे रहते हैं । इसी कर्म से अभिभूत विष्णु दशावतार के समय परिव्याप्त असीमित महासं कट में अपने को डाल देते हैं । इसी कर्म की वजह से शंकर हाथ मे कपाल लेकर भिक्षाटन करते हैं । इसी कर्म की वजह से सूर्य आकाश में चक्कर काटता है । राजा बलि कितना बडा दानी था । मांगने वाले स्वयं विष्णु थे । विशिष्ट लोगों के सामने दान दिया गया । फ़िर भी दान का फ़ल बंधन प्राप्त हुआ । यह सब भाग्य का खेल है । पूर्व जन्म में प्राणी ने जैसा कर्म किया है । उसी कर्म के अनुसार वह दूसरे जन्म में फ़ल भोगता है । अतः प्राणी स्वयं ही अपने भोग्य फ़ल का निर्माण करता है । अर्थात वह अपने कर्मफ़ल का स्वयं ही विधाता है ।
हम अपने सुख दुख का स्वयं ही कारण हैं । माता के गर्भ में आकर और पूर्व देह में किये गये कर्म के फ़ल हमें भोगने ही पडते हैं । आकाश । समुद्र । पर्वतीय गुफ़ा । तथा माता के सिर पर । माता की गोद में स्थित रहते हुये भी मनुष्य अपने पूर्व संचित कर्म फ़ल का त्याग करने में समर्थ नहीं होता । जिसका किला त्रिकूट जैसे पर्वत पर था । जो समुद्र से घिरा हुआ भी था । और राक्षसों के द्वारा रक्षित था । स्वयं जो विशुद्ध आचरण करने वाला था । जिसको नीति की शिक्षा शुक्राचार्य से प्राप्त हुयी थी । वह रावण भी कालवश नष्ट हो ही गया । जिस अवस्था । जिस समय । जिस दिन । जिस रात्रि । जिस महूर्त । जिस क्षण जैसा होना निश्चित है । वह वैसा ही होगा । अन्यथा नहीं हो सकता । सब अन्तरिक्ष में जा सकते हैं । प्रथ्वी के गर्भ में प्रवेश कर सकते हैं । दसों दिशायें अपने ऊपर धारण कर सकते हैं । किन्तु जो वस्तु उनके भाग्य में नहीं है । उसको प्राप्त नहीं कर सकते । पूर्व जन्म में अर्जित की गयी विध्या । दिया गया धन । तथा किये गये कर्म ही दूसरे जन्म में आगे आगे मिलते जाते हैं । इस संसार में कर्म ही प्रधान है । सुन्दर ग्रहों का योग था । स्वयं वशिष्ठ मुनि ने निर्धारित लग्न में विवाह संस्कार कराये । फ़िर भी सीता को पूर्व जन्म के कर्मों के अनुसार दुख भोगना ही पडा ।
राम को राजगद्दी की जगह वनवास जाना पडा । जब राम लक्ष्मण सीता ये तीनों अपने अपने कर्म के अनुसार दुख भोगते हैं । तो साधारण आदमी के विषय में कु्छ कहना ही व्यर्थ है । न पिता के कर्म से पुत्र को सदगति मिल सकती है । न पुत्र के कर्म से पिता को सदगति मिल सकती है ।
सब अपने कर्म अनुसार ही गति को प्राप्त करते हैं । जैसे सांप हाथी चूहा ये ज्यादा से ज्यादा अपने वास स्थान या बिल तक ही भाग सकते हैं । इससे आगे कहां जा सकते हैं ? इसी तरह अपने कर्म के फ़ल से कौन भाग सकता है ? अर्थात सब कर्म के अधीन ही है । जो मनुष्य सम्मान से प्रसन्न नहीं होता । अपमान से क्रुद्ध नहीं होता । और क्रोध आने पर मुंह से कठोर वाक्य नहीं बोलता । वो निश्चय ही साधुपुरुष है । सभी प्राणियों और पदार्थों की उत्पत्ति के पूर्व में स्थिति नहीं थी । और निधन के अन्त में भी उनकी स्थित नहीं रहती । ये सभी मध्य अवस्था में ही विधमान रहते हैं । फ़िर दुख करने की बात क्या है ? समय न आने पर प्राणी सैकडों बाण लगने पर भी नहीं मरता । और समय आ जाने पर छोटा सा कांटा लगने से मर जाता है । प्राणी को जो सुख दुख प्राप्त होना है । वो उसे उसी स्थान पर खींच ले जाता है । प्राणी की मृत्यु वहीं होती है । जहां उसका हन्ता मौजूद होता है । अपने कर्म से प्रेरित किया गया आदमी स्वयं ही उन स्थानों पर पहुंच जाता है । पूर्व जन्म में किया गया कर्म कर्ता के पीछे पीछे वैसे ही चलता है । जैसे गौशाला में हजार गायों के बीच बछडा अपनी माता को पहचान लेता है । इस प्रकार जब पूर्व जन्म में किया गया कर्म कर्ता में स्थित रहता है । तो अपने पुन्य पाप का फ़ल भोगो । फ़िर क्यों दुखी होते हो ? जैसा पूर्व जन्म में शुभ अशुभ कर्म किया गया है । वैसा ही फ़ल जन्म जन्मान्तर में कर्ता का अनुसरण करता है और उसके पीछे पीछे ही चलता है ।

गुरुवार, अगस्त 12, 2010

जिस मृतक का पिन्डदान नहीं होता । वह आकाश में ही भटकता रहता है ।



आत्मा ( शरीर ) ही पुत्र के रूप मे प्रकट होता है । वह पुत्र यमलोक में पिता का रक्षक है । घोर नरक से पिता का वही उद्धार करता है अतः उसको पुत्र कहा जाता है । अतः पुत्र को पिता के लिये आजीवन श्राद्ध
करना चाहिये । तब वह प्रेत रूप हुआ पिता पुत्र द्वारा दिये गये दान से सुख प्राप्त करता है । प्रेत के निमित्त दी जलांजलि से वह प्रसन्न होकर यमलोक जाता है । चौराहे पर रस्सी की तिगोडिया में कच्चे घडे में लटकाया दूध वायु भूत हुआ वह प्रेत मृत्यु के दिन से तीन दिन तक । आकाश में स्थित उस दूध का पान करता है । अस्थि संचय चौथे दिन करके दिन का प्रथम पहर बीत जाने पर जलांजलि दें । पूर्वाह्न मध्याह्न तथा अपराह्न तथा इनके संधिकाल में जलांजलि नहीं दी जाती । जो मनुष्य जिस स्थान । मार्ग । या घर में मृत्यु को प्राप्त करता है । उसको वहां से शमशान भूमि के अतिरिक्त कही नहीं ले जाना चाहिये । मृत प्राणी वायु रूप धारण करके इधर उधर भटकता है । और वायु रूप होने से ही ऊपर की ओर जाता है । तब वह प्राप्त हुये शरीर के द्वारा ही अपने पुन्य और पाप के फ़लों का भोग करता है । दशाह कर्म करने से मृत मनुष्य के शरीर का निर्माण होता है । नवक और षोडश श्राद्ध करने से जीव उस शरीर में प्रवेश करता है । भूमि पर तिल कुश का निक्षेप करने से वह कुटी धातुमयी हो जाती है । मरणासन्न के मुख में पंच रत्न डालने से जीव ऊपर की ओर चल देता है । यदि ऐसा नहीं होता तो जीव को शरीर प्राप्त नहीं होता । जीव जहां कहीं पशु या स्थावर योनि में जन्मता है । श्राद्ध में दी गयी वस्तु वहीं पहुंच जाती है ।
जब तक मृतक के सूक्ष्म शरीर का निर्माण नहीं होता । तब तक किये गये श्राद्ध से उसकी त्रप्ति नहीं होती । भूख प्यास से व्याकुल वह वायुमण्डल में इधर उधर चक्कर काटता हुआ दशाह के श्राद्ध से त्रप्त होता है । जिस मृतक का
पिन्डदान नहीं होता । वह आकाश में ही भटकता रहता है । वह क्रम से लगातार तीन दिन जल तीन दिन अग्नि तीन दिन आकाश और एक दिन पूर्व मोह ममता के कारण अपने घर में निवास करता है । इसलिये अग्नि में भस्म हो जाने पर प्रेतात्मा को जल से ही त्रप्त करना चाहिये । मृत्यु के पहले तीसरे पांचवे सातवें नवें और ग्यारहवें दिन जो श्राद्ध होता है उसे नवक श्राद्ध कहते हैं । एकादशाह के दिन के श्राद्ध को सामान्य श्राद्ध कहते हैं । जिस प्रकार गर्भ में स्थित जीव का पूर्ण विकास दस मास में होता है । उसी प्रकार दस दिन तक दिये गये पिन्डदान से जीव के उस शरीर की सरंचना होती है । जिस शरीर से उसे यमलोक की यात्रा करनी होती है । पहले दिन जो पिन्डदान दिया जाता है । उससे जीव की मूर्द्धा का निर्माण होता है ।
दूसरे दिन के पिन्डदान से आंख कान और नाक की रचना होती है । तीसरे दिन गण्डस्थल मुख तथा गला । चौथ पिन्ड से ह्रदय कुक्षि प्रदेश उदर भाग । पांचवे दिन कटि प्रदेश पीठ और गुदाभाग । छठे दिन दोनों उरु । सातवें दिन गुल्फ़ । आठवें दिन जंघा । नौवें दिन पैर । तथा दसवें दिन प्रबल क्षुधा की उत्पत्ति होती है ।
मानव शरीर में जो अस्थियो का समूह है । उनकी कुल सख्या तीन सौ साठ है । जल से भरे घडे का दान करने से उन अस्थियों की पुष्टि होती है । इसलिये जल युक्त घटदान से प्रेत को बहुत प्रसन्नता होती है । जिस प्रकार सूर्य की किरणें अपने तेज से सभी तारों को ढक देती हैं । उसी प्रकार प्रेतत्व पर इन क्रियाओ का आच्छादन होने से भविष्य में प्रेतत्व नहीं मिलता । अतः सपिन्डन के बाद कहीं प्रेत शब्द का प्रयोग नहीं होता । मृतक के हेतु शय्यादान की बेहद प्रसंशा की गयी है । यह जीवन अनित्य है । उसे मृत्यु के बाद कौन प्रदान करेगा । जब तक यह जीवन है । तभी तक बन्धु बान्धव अपने हैं । और अपने पिता हैं । ऐसा कहा जाता है । मृत्यु हो जाने पर । यह मर गया है । ऐसा जान करके क्षण भर मे ही वे अपने ह्रदय से स्नेह को दूर कर देते हैं । इसलिये अपना आत्मा ही अपना सच्चा हितैषी है । ऐसा बारम्बार विचार करते हुये जीते हुये ही अपने हित के कार्य कर लेने चाहिये । अन्यथा इस संसार में मरे हुये प्राणी का कौन हितैषी होता है । अर्थात कोई नहीं होता । क्या इसमें कोई संशय है ?

स्त्रियों को सम्भोग की प्राप्ति न होने से बुडापा आ जाता है ।




मनुष्य को गुणहीन पत्नी । कपटी मित्र । दुराचारी राजा । कपूत । गुणहीन कन्या । कुत्सित देश का त्याग एकदम ही कर देना चाहिये । कलियुग मे स्वभाव से ही धर्म समाज से निकल जाता है । तप कर्म में स्थिरता नहीं रहती । सत्य प्राणियों के ह्रदय से दूर हो जाता है । प्रथ्वी बांझ के समान होकर फ़लहीन हो जाती है ।
मनुष्यों में कपट व्यवहार जाग जाता है । ब्राह्मण लालची हो जाते हैं । पुरुष स्त्रियों के वश में हो जाते हैं । स्त्रियां चंचल स्वभाव हो जाती हैं । नीच प्रवृति के लोग ऊंचे पदों पर पहुंच जाते हैं । अतः कलियुग में
धर्मपूर्वक रहना बेहद कठिन हो जाता है । कपूत के होने से मनुष्य को सुख शान्ति नहीं मिलती । दुराचारिणी स्त्री से प्रेम की आशा भी कैसे की जा सकती है । कपटी मित्र का कैसे विश्वास किया जाय ? और भ्रष्ट राजा के राज्य में सुख से कैसे रहा जाय ? दूसरे का खाना । दूसरे का धन । दूसरे की स्त्री से ही सम्भोग । और दूसरे के घर में रहना । ये इन्द्र के एश्वर्य को भी नष्ट कर देते हैं । दुलार में बहुत से दोष हैं और ताडना में बहुत से गुण । इसलिये शिष्य और पुत्र आदि को केवल दुलार करना हरगिज उचित नहीं है । अधिक पैदल चलना प्राणियों के लिये बुडापे का कारण है । पर्वतों के लिये उसका जल बुडापे का कारण है । स्त्रियों को सम्भोग की प्राप्ति न होने से बुडापा आ जाता है । अधिक धूप से वस्त्रों का बुडापा होता है । नीच प्रकृति वाले दूसरे से कलह की इच्छा रखते हैं । मध्यम संधि की इच्छा रखते हैं । उत्तम दूसरे से सम्मान की इच्छा रखते हैं । आलसी व्यापारी । अभिमानी भृत्य । विलासी भिक्षुक । निर्धन कामी । तथा कटु वचन बोलने वाली वैश्या ये सदा अपने कार्य में असफ़ल रहते हैं । निरधन होते हुये दाता बनना । धन होते हुये कंजूस होना । पुत्र का आग्याकारी न होना । दुष्ट की सेवा करना । तथा दूसरे का अहित करते हुये मृत्यु को प्राप्त होना । ये मनुष्य के लिये दुश्चरित हैं । पत्नी से वियोग । अपनों के द्वारा अपमान । उधार का कर्ज । दुष्ट की सेवा करने की विवशता । धनहीन होने पर मित्रों का दूर हो जाना ये बातें मनुष्य को बिना अग्नि के ही जलाती हैं । मनुष्य को हजारों चिंतायें होती हैं । किन्तु नीच व्यक्ति द्वारा अपमान होने की चिंता । भूख से पीडित पत्नी की चिंता । प्रेम से हीन पत्नी की चिंता । तथा काम मे रुकावट ये चिंतायें तलवार के धार के समान चोट करती हैं । अनुकूल पुत्र । धन देने वाली विध्या । स्वस्थ शरीर । सत संगति । तथा मन के अनुकूल वश में हुयी पत्नी ये पुरुष के दुख को समूल नष्ट कर देते हैं । आयु । कर्म । धन । विध्या और मृत्यु ये जन्म के समय ही तय हो जाते हैं । बादल की छाया । दुष्ट का प्रेम । पराई औरत का साथ । जवानी और धन ये कब साथ छोड दें । कोई पता नहीं । इसी तरह जीवन का पता नहीं । धन का पता नहीं । यौवन का भी पता नहीं । स्त्री पुत्र का भी पता नही । किन्तु मनुष्य का धर्म कीर्ति और यश स्थायी होता है ।
सौ वर्ष का जीवन भी बहुत कम है । क्योंकि आधा तो रात में ही चला जाता है । बचा हुआ आधा रोग दुख और बुडापे की असमर्थता में चला जाता है । कुछ ठीक होता है । वह बाल अवस्था । स्त्री भोग और राज सेवा
मे व्यतीत हो जाता है । मृत्यु दिन रात वृद्धावस्था के रूप में इस लोक में विचरण करती रहती है । और प्राणियों को खाकर अपना पेट भरती है । आकाश में घिरे बादल की छाया । तिनके की आग । नीच की सेवा । मृग मरीचिका का जल । वैश्या का प्रेम । और दुष्ट के ह्रदय में उत्पन्न हुयी प्रीत ये जल के बुलबुले के समान कुछ देर के होते हैं । निर्बल का बल राजा । बालक का बल रोना । मूर्ख का बल मौन है । औरत का बल हठ । और चोर का बल झूठ होता है । लोभ आलस्य और विश्वास ये तीन व्यक्ति का विनाश कर देते हैं ।
मनुष्य को भय से उसी समय तक भयभीत होना चाहिये । जब तक वह सामने नही आता । सामने आने पर
निर्भीकता से उसका सामना करना चाहिये । कर्ज । आग । और रोग थोडे भी शेष रह जाने पर बार बार
बडते जाते हैं । अतः उनको खत्म कर देना ही उचित है । वह सभा सभा नहीं जिसमें वृद्धजन नहीं । वे वृद्ध
वृद्ध नहीं जो धर्म का उपदेश नही करते । वह धर्म नहीं जिसमें सत्य नहीं होता । वह सत्य नहीं जिसमें कपट हो ।

अनात्मा में आत्मा का और असत में सत का दर्शन होता है ।




जिस तरह गाय के शरीर में घी होता है । पर वह घी गाय को किसी प्रकार का लाभ नहीं देता । परन्तु उसी घी को दूध आदि क्रिया द्वारा निकाल लेने पर विधपूर्वक प्रयोग करने पर वह घी महा बल देने वाला हो जाता है । उसी प्रकार परमात्मा हर घट में है । लेकिन उसको जाने बिना कोई लाभ होने वाला नहीं हैं । हर घट तेरा सांईया सेज न सूनी कोय । बलिहारी उन घटन की जिन घट परगट होय । इसलिये जो योग रूपी फ़ल को प्राप्त करना चाहते हैं । उनके लिये कर्म ग्यान आवश्यक है । किन्तु जो इस मार्ग पर आगे बड चुके हैं । उनके लिये त्याग वैराग्य और ग्यान ही महत्वपूर्ण है । लेकिन जो शब्द रूप रस आदि विषयों को जानने का इच्छुक है । उसमें राग द्वेष आदि विकार उत्पन्न हो जाते है । और फ़िर वह जीव काम क्रोध लोभ मोह के वशीभूत होकर पापाचार करने लगता है । और कालपाश में जकडता जाता है । जिसके हाथ । उपस्थ ( लिंग ) उदर । और वाणी ये चार संयमित हो गये हैं । उसको ब्राह्मण कहा जाता है । जो दूसरों का धन नहीं लेता । हिंसा नहीं करता । जुआ आदि निन्दित कर्म नही करता । उसके हाथ संयत हैं । जो अन्य स्त्रियों के प्रति किसी भी प्रकार की काम भावना नही रखता । उसका लिंग संयम है । जो शरीर पूर्ति हेतु उचित भोजन करते हैं । उनका उदर संयत हैं । जो सत्य और दूसरों के हित के लिये सीमित बोलते हैं । उनकी वाणी संयमित है । मन बुद्धि और इन्द्रियों की एकता होकर सदा ध्येय तत्व में लगे रहना ध्यान कहलाता है ।
यह ध्यान दो प्रकार का होता है । पहला सबीज और दूसरा निर्बीज । चिन्तन की मूल ताकत बुद्धि दोनों भोंहों के बीच में रहती है । यदि जीव बुद्धि को संसार के विषय में लगाये रहता है । तो ये जाग्रत अवस्था या मनुष्य का जागना ( सामान्य ) कहलाता है । लेकिन जब इन्द्रियां निचेष्ट हो जाती हैं । और केवल मन की चंचलता ही शेष रहती है । और जीव बाहरी और आन्तरिक विषयों को केवल स्वप्न में देखता है । इसको स्वप्न अवस्था कहते हैं । तीसरी सुषुप्ति की स्थिति में मन ह्रदय में स्थित होकर तमोगुण से मोहित हुआ कुछ भी याद नहीं कर पाता । उसको ही सोना कहते हैं । यहीं पर और इसी स्थिति में जो जागना जान जाता है । उसको योगी या तुरीयातीत कहते हैं । जिसने अपनी इन्द्रियों मन आदि को वश में कर लिया है । वह शरीर की जाग्रत अवस्था में भी योगी ही है । अर्थात उस पर मोह लोभ आदि का प्रभाव नहीं होता और तब वह रूप रस गन्ध आदि पांच विषयों में आसक्त भी नहीं होता ।
योगी इन्द्रियों और मन को विषयों से खींचकर । बुद्धि के द्वारा अहंकार को । और प्रकृति के द्वारा बुद्धि को संयत कर के । चित्त शक्ति के द्वारा प्रकृति को भी संयत करके । केवल आत्म स्वरूप में स्थित हो जाता है और खुद को आत्मा ही जानता हुआ । आत्मा को ही देखता है । जीव का अतिम लक्ष्य केवल मुक्ति ही है । यह मुक्ति उसे तभी प्राप्त होती है । जब वह पुष्ट देने वाली तीन गुण वाली प्रकृति का भी त्याग कर देता है । कहिय तात सो परम वैरागी । तृण सम सिद्ध तीन गुन त्यागी । यह प्रकृति पुर्यष्टक कमल रूप माना गया है । संसार की अवस्था में जीव इसी कमल की कर्णिका में स्थित रहता है । इस कमल के आठ पत्ते शब्द रूप रस गन्ध स्पर्श सत रज तम हैं । चित्त की अस्थिरता । भ्रान्ति । दौर्मनस्य । प्रमाद ये योगियों के दोष कहे गये हैं । मुक्त होने पर अनात्मा में आत्मा का और असत में सत का दर्शन होता है । क्या इसमें कोई संशय है ? अर्थात इसमे कोई संशय नहीं है ।

आत्मा ही सबका जानने वाला है ।




मैं ही ब्रह्म हूं । इस बात का सही ग्यान होने से मनुष्य को मोक्ष की प्राप्ति होती है । मैं और ब्रह्म इन दोनोंपदों ( स्थित ) का सही अर्थ पता चलने पर सत्य बोध होता है । एक अहम शब्द ( मैं ) से शरीर और दूसरे से आत्मा का बोध करना है । इन दोनो का एक हो जाना ही खुद को जानना है । ग्यान से अग्यान की निवृति होती है । उस निवृति या स्थिति के बाद प्राणी की जो परम लक्ष्य से एकता की स्थिति बनती है । वही मुक्ति है । यह तो निश्चित है कि परमात्मा है । बस उसको जानना ही है । उसी परमात्मा से आकाश । आकाश से वायु । वायु से अग्नि । अग्नि से जल । जल से प्रथ्वी की उत्पत्ति हुयी है । जो इस जगत का हेतु कारक है । इसके बाद सत्रह तत्व उत्पन्न हुये । हाथ पैर वाणी लिंग गुदा ये पांच कर्म इन्द्रियां हैं । आंख कान नाक त्वचा तथा जीभ ये पांच ग्यान इन्द्रियां हैं । प्राण अपान समान उदान व्यान नाम के पांच वायु होते हैं । मन बुद्धि चित्त अहम ये चार मिलकर अंतःकरण होता है । जिसमें मन संदेही होता है । बुद्धि निश्चयात्मक होती है । इसका स्वरूप सूक्ष्म होता है । आत्मा के रूप में भगवान हिरण्यगर्भ अंतकरण में रहते हैं । वही जीवात्मा हैं । इस प्रकार इस समस्त प्रपंच से परे उस परमात्मा के द्वारा पांच महाभूतों से बने शरीर की उत्पत्ति होती है । उन्ही महाभूतों से ब्रह्माण्ड की रचना भी हुयी । जिस शरीर को हम जानते हैं । इसको स्थूल शरीर कहते है ।यह आवरण है पांच तत्वों से बना दूसरा सूक्ष्म शरीर है ।
जिस प्रकार जल मे सूर्य की छाया पडती है । उस तरह से बेर के समान उसकी आकृति होती है । तब जीव स्वरूप होकर वह ब्रह्म प्राण आदि से संयुक्त होकर शरीर तत्वों को धारण करता है । जाग्रति । सुषुप्ति । स्वप्न अवस्था के
कार्यों को जानने वाला तथा साक्षी हुआ जो है । उसको जीव माना गया है । इस तुरीया से हटकर वह ब्रह्म अपने निर्गुण स्वभाव में रहता है । इस क्रियाशील शरीर के साथ रहने अथवा न रहने पर भी वह हमेशा शुद्ध स्वभाव वाला है । उसमें कैसा भी विकार नहीं होता । जागना सोना और स्वप्न इन तीन अवस्थाओं के कारण ही परमात्मा को तीन प्रकार का मान लिया जाता है । वह अंतकरण में स्थित रहता है और तुरीया की इन तीन अवस्थाओं में इन्द्रियों की क्रियाओं को देखता हुआ विकारयुक्त हो जाता है । इन्द्रियों के द्वारा शब्द रूप रस गन्ध स्पर्श इन पांच विषयों का जब मनुष्य को सत्य रूप ग्यान होता है । उसे जागना कहते हैं ।
सोना और स्वप्न की स्थिति में विषय की अपेक्षा में कार्य हेतु साधन की चिंता में बुद्धि एकाग्र हो जाती है । इसके आगे कारण अवस्था में ब्रह्म की स्थिति है । इस प्रकार यह आत्मा काल के वश में होने के कारण जीवात्मा बनकर शरीर स्वरूप होकर रहता है । किसी भी साधक को समाधि आदि ग्यान आरम्भ करने से पूर्व उस परम लक्ष्य की धारणा चित्त में बनानी होगी । इसके बाद मोक्ष के इच्छुक साधु को पंच तत्वों के शरीर में फ़ंसे उस क्षेत्रग्य जीवात्मा को शरीर से अलग ही मानना चाहिये । क्योंकि आत्मतत्व को शरीर से अलग न मानने पर ब्रह्म तत्व से साक्षात्कार करने में अनेक बाधायें होती हैं । अतः उन बाधाओ को दूर करना ही होता है । जो संसार की विषय वासनाओं से उत्पन्न हैं । उस स्थित में समस्त को शून्य कर देना होता है । यह पांच तत्वों का शरीर घडे के समान है । इसको घट कहा गया है । जैसे घट के अन्दर जो आकाश है । उसे घटाकाश कहा जाता है । किन्तु उस भ्रम को हटा दिया जाय । तो वह समग्र दिखाई देता है ।
यही उदाहरण जीवात्मा के मोक्ष मार्ग पर लागू होता है । मोक्ष की साधना में उसे शरीर से ( खुद को ) अलग की धारणा करनी ही होती है । जिससे वह बंधा हुआ है । उसे ग्यान द्वारा भ्रम को खत्म करना होता है । यही सत्य है । अष्टांग योग से समाधि के द्वारा या संत मत के सुरती शब्द योग द्वारा मनुष्य के लिये आत्म कल्याण सम्भव है । स्वयं का आत्म कल्याण कर लेना ही परम कल्याण है । इस ग्यान से बडा और बेहतर फ़िर कुछ भी नहीं है । आत्मा देह रहित रूप रहित इन्द्रियों से परे है । ये आत्मा स्वयं प्रकाशित है । आंख कान आदि इन्द्रियां स्वयं को भी नहीं जान सकती । परन्तु आत्मा ही सबका जानने वाला है । जब आत्मा योग ध्यान के द्वारा विकार रहित होकर ह्रदय पटल पर प्रकाशित होता है । तो जीव के सारे पापकर्म नष्ट हो जाते हैं । और ग्यान उत्पन्न होता है । जैसे दर्पण में निगाह डालने पर अपने को देख पाते हैं ।
वैसे ही आत्मा को देखने पर इन्द्रियों । इन्द्रियों के विषय । पांच महाभूत । आदि समस्त को आराम से देखा जा सकता है । जिस तरह हम दृष्य जगत को देखते हैं । मन बुद्धि चित्त अहंकार और अव्यक्त पुरुष अथवा चेतन । इन सभी का ग्यान करके संसार बंधन से मुक्त हुआ जा सकता है । सभी इन्द्रियो को मन में स्थापित करें । मन को अहम में । अहम को बुद्धि में । बुद्धि को प्रकृति में । प्रकृति को पुरुष में । और पुरुष को पारब्रह्म में विलीन किया जाता है । इस प्रकार ग्यान ज्योति का प्रकाश होता है । और वह मनुष्य मुक्त हो जाता है । इस प्रकार जो अपने को आंतरिक शरीर रूप और आत्मा से जान लेता है । वही श्रेष्ठ है । उसी ने जीवन का वास्तविक लक्ष्य पा लिया ।

वह अपने जीवन काल में ही ब्रह्म स्वरूप हो जाता है ।



मृत्युलोक में जन्म लेने वाले प्राणी की मृत्यु निश्चित है । मरे हुये प्राणी के मुख से जीवात्मा वायु का सूक्ष्म रूप धारण करके निकल जाता है । लोगों के नेत्र कान नाक आदि नौ द्वारों तथा तालु रन्ध्र से भी जीवात्मा
अंतिम गति के अनुसार बाहर जाता है । नरक को प्राप्त होने वालों का जीवात्मा गुदा मार्ग से निकलता है । प्राण्वायु के निकलते ही शरीर कटे पेड के समान निराधार होकर गिर जाता है । और उसके तत्व अपने
अपने तत्व में जाकर मिल जाते हैं । काम क्रोध आदि विकार और पांच इन्द्रियों का समूह शरीर में चोर के समान रहता है । इसी शरीर में अहंकार युक्त मन भी रहता है । वही सबका नायक या नेता है । तब विभिन्न पाप पुन्य से संयुक्त होने पर काल उसको मार डालता है । संसार में भोग के लिये शरीर का निर्माण जीव के कर्म अनुसार होता है । मनुष्य अपने सतकर्म और दुष्कर्म के अनुसार ही दूसरे शरीर को प्राप्त होता है । शरीर में विधमान धातुयें माता पिता से प्राप्त होती हैं । इन्हीं से निर्मित ये शरीर षाटकोशिक यानी छह कोशो। से निर्मित त्वचा रक्त । मांस । मेदा । मज्जा । अस्थि । होता है । शरीर में सभी प्रकार के वायु रहते हैं । मूत्र । पुरीष तथा उन्हीं के योग से उत्पन्न अन्य व्याधियां भी रहती हैं । पुरुष का शरीर छोटी बडी नसों से बंधा हुआ एक स्तम्भ के समान है । जिसके नीचे पैर रूपी दो अन्य स्तम्भ होते हैं । पांच इन्द्रियों सहित इसमें नौ द्वार हैं । सांसारिक विषयों से युक्त काम क्रोध से घिरा हुआ बैचेन जीव इस शरीर में रहता है । राग द्वेष से व्याप्त यह शरीर तृष्णा का दुस्तर किला है । अनेकों लोभ से भरे हुये जीव का यह शरीर पुर है । इसी शरीर में सभी देवता और चौदह लोक स्थित हैं । इसी तरह के सब शरीर हैं । जो लोग अपने को इस तरह से नहीं जान पाते । वे निसंदेह पशु के समान ही हैं । इस संसार में तीन अग्नि । तीन लोक । तीन वेद । तीन देवता । तीन काल । तीन संधिया । तीन वर्ण । तथा तीन शक्तियां मानी गयी हैं । मनुष्य के शरीर में पैर से ऊपर कमर तक ब्रह्मा का निवास है । नाभि से गर्दन तक हरि या विष्णु का वास है ।
मुख से मस्तक तक महादेव का वास है । इस संसार में जो प्राणी आत्मा के अधीन होकर रहता है । वह निश्चित ही सब प्रकार से सुखी है । शब्द स्पर्श रूप रस गन्ध ये पांच विषय हैं । इनके वश में रहने वाला सदैव दुखी रहता है । हिरन शब्द । हाथी स्पर्श । पतंगा रूप । भंवरा गन्ध । मछली रस ।
ये जीव एक ही विषय के सेवन से मारे जाते हैं । तो मनुष्य को तो ये पांचों एक साथ लगे हुये हैं । मनुष्य बाल अवस्था में माता पिता के अधीन । युवावस्था में स्त्री के अधीन । और बुडापा या अन्त समय पुत्र पौत्र के मोह अधीन हो जाता है । और वह मूर्ख किसी भी अवस्था में आत्मा के अधीन नहीं रहता और अन्त में दुर्गति को प्राप्त
होता है । प्राणी मृत्यु के बाद तुरन्त भी दूसरे शरीर में प्रविष्ट हो सकता है और बिलम्ब से भी हो सकता
है । शरीर के अन्दर जो धुंआ रहित ज्योति के समान ( जिसको अक्षर पुरुष कहते हैं यही सभी शरीरों को धारण करता है । सारे शरीर इसी ज्योति पर बनते हैं । ) जीवात्मा विधमान रहता है । वह मृत्यु के तुरन्त बाद वायवीय शरीर धारण कर लेता है । उस एक शरीर में प्रविष्ट होते हुये प्राणी के कालक्रम भोजन या गुण संक्रमण की जो स्थित है । उसे मूर्ख नहीं अपितु ग्यानी व्यक्ति ही देख पाते हैं । विद्वान इसको अतिवाहक वायवीय शरीर कहते हैं । भूत प्रेत पिशाचों का शरीर तथा मनुष्यों का पिन्डज शरीर भी ऐसा ही होता है । पुत्र आदि के द्वारा जो पिन्डदान दिया जाता है । उस पिन्डज शरीर से वायवीय शरीर एकाकार हो जाते हैं । इसके अलावा कोई कोई जीवात्मा बिलम्ब से भी दूसरा शरीर प्राप्त करता है । क्योंकि मृत्यु के बाद वह अपने कर्म अनुसार यमलोक को जाता है । और चित्रगुप्त के आदेश अनुसार नरक भोगता है । वहां की यातनाओं को भोगने के बाद उसे पशु पक्षी आदि की योनि प्राप्त होती है । जीव जिस शरीर को पाता है । उसी शरीर से मोह ममता करने लगता है । लेकिन सतकर्म से जिसने अपने कालुष्य को नष्ट कर दिया है । और जो भक्ति में लगा रहता है । जो शब्द रूप रस आदि विषयों का त्याग कर देता है ।
जो राग द्वेष छोडकर विरक्त सेवाभाव वाला । और जैसा भी भोजन मिले उससे संतुष्ट रहता है । जिसका मन वाणी शरीर संयमित है । जो वैरागी सा नित ध्यान योग में अधिक तत्पर रहता है । जो अहंकार बल दर्प काम क्रोध परिग्रह इन छह विकारों का त्याग करके निर्भय और शान्त हो जाता है । वह अपने जीवन काल में ही ब्रह्म स्वरूप हो जाता है । और इसके बाद उस श्रेष्ठ मनुष्य के लिये कुछ भी करना शेष नहीं रहता । क्या इसमें कोई संशय है ? अर्थात इसमें कोई संशय नहीं है ।

वे जीव वायुरूप होकर भटकते हैं ।



यमलोक का विस्तार छियासी हजार योजन है । एक योजन में बारह किलोमीटर होते हैं । मृत्यु लोक के बीच से ही उसके लिये रास्ता जाता है । वह रास्ता दहकते हुये तांबे के समान जलता हुआ अति कठिन और भयंकर रास्ता है । पापी तथा मूर्खों को उस रास्ते पर जाना होता है । अनेक प्रकार के कांटो से भरा हुआ ऊंची नीची भूमि वाला वह रास्ता वृक्ष आदि किसी भी प्रकार की छाया से रहित ही है । जहां पर दो मिनट कोई विश्राम कर सके ऐसी कोई व्यवस्था वहां नहीं है । मार्ग में खाने पीने की भी कोई व्यवस्था नहीं हैं । अत्यन्त दुर्गम उस मार्ग में जीव कष्ट और पीडा से कांपने लगता है । जिसका जितना और जैसा पाप है । उसका उतना ही और वैसा ही मार्ग है । इस मार्ग से जाते हुये प्राणी करुण चीत्कार करते हैं और कुछ तो वहां की कुव्यवस्था के प्रति विद्रोह भी करने लगते हैं । जो लोग संसार के प्रति कोई तृष्णा नहीं रखते वे उस मार्ग को सुखपूर्वक पार कर जाते हैं । अपने जीवन में मनुष्य जिन जिन वस्तुओं को दान देता है । वे सब वस्तुयें उसे यमलोक के मार्ग में उपयोग के लिये मिल जाती हैं । जिन मृतक पापियों का मरने के बाद जलांजलि और श्राद्ध नहीं होता । वे जीव वायु रूप होकर भटकते हैं । दक्षिण और नैऋत दिशा के मध्य में विवस्वत के पुत्र यमराज की पुरी है । यह सम्पूर्ण नगर वज्र के समान बना है । देवता और असुर शक्तियां भी इसका भेदन नहीं कर सकती हैं । यह चौकोर है । इसमें चार द्वार । सात चहारदीवारी तथा तोरण हैं । इसका विस्तार एक हजार योजन है । सभी प्रकार के रत्नों से सुसज्जित । चमकती बिजली और सूर्य के तेज के समान इस पुरी में यमराज अपने दूतों के साथ निवास करता है । इसका विस्तार पांच सौ योजन ऊंचा है । हजार खम्बों पर स्थित यह भवन वैदूर्य मणि से सजा हुआ है । यहीं पर दस योजन में फ़ैला हुआ । नीले मेघ के समान आसन पर धर्मराज रहते हैं । यहां पर शीतल मन्द वायु बहती है । अनेक प्रकार के उत्सव और व्याख्यान होते रहते हैं । इन्हीं के बीच धर्मराज का समय व्यतीत होता है । उस पुर के मध्य भाग में प्रवेश करने पर चित्रगुप्त का भवन पडता है । इसका विस्तार पचीस योजन का है । इसकी ऊंचाई दस योजन है । इसमें आने जाने के लिये सैकडों गलियां है । सैकडों दीपक इस भवन में जलते हैं । बन्दीजनों के द्वारा गाये बजाये गीतों से यह भवन गूंजता रहता है । इस भवन में मुक्ता मणियों से बना एक आसन है । जिस पर बैठकर चित्रगुप्त मनुष्य तथा अन्य जीवों की आयु गणना करते हैं । किसी के पुन्य या पाप के प्रति उनमें कोई मोह नहीं होता । जीव ने जो भी अर्जित किया होता है । वे उसको जानते हैं । और अठारह दोषों से रहित जीव द्वारा किये गये कर्म को लिखते हैं । चित्रगुप्त के भवन से पहले ज्वर ( बुखार ) का बहुत बडा भवन है । उनके दक्षिण से शूल और लताविस्फ़ोटक के भवन हैं । पश्चिम में कालपाश अजीर्ण और अरुचि के भवन हैं । मध्य पीठ के उत्तर में विषूचिका ईशान में शिरोर्ति । आग्नेय में मूकता । नैऋत्य कोण में अतिसार वायव्य कोण मे दाह संग्यक रोग का घर है । चित्रगुप्त इन सभी से नित्य परिवृत रहते हैं ।

शनिवार, अगस्त 07, 2010

दीप और पाताल लोक का रहस्य..



प्लक्ष दीप के स्वामी मेधातिथि के सात पुत्र हुये । इनके नाम क्रमशः । शान्तभव । शिशिर । सुखोदय । नन्द । शिव । क्षेमक और ध्रुव थे । ये सभी प्लक्ष दीप के राजा बने । इस दीप में । गोमेद । चन्द्र । नारद । दुन्दुभि । सोमक । सुमनस । वैभ्राज । ये सात पर्वत हैं । यहां अनुतप्ता । शिखी । विपाशा । त्रिदिवा । क्रमु । अमृता । सुकृता । ये सात नदी हैं ।
वपुष्मान । शाल्मकदीप के स्वामी हुये । इस दीप में स्थित सात वर्ष ( देश ) के नाम से प्रसिद्ध उनके सात पुत्र थे । जिनके नाम । श्वेत । हरित । जीमूत । रोहित । वैधुत । मानस । सुप्रभ हैं । यहां कुमुद । उन्नत । द्रोण । महिष । बलाहक । क्रौंच्च । कुकुद्मान । ये सात पर्वत हैं । योनि । तोया । वितृष्णा । चन्द्रा । शुक्ला । विमोचनी । विधूति ये सात नदी हैं ।
कुशदीप के स्वामी ज्योतिष्मान थे । इनके सात पुत्र हुये । जिनके नाम । उद्भिद । वेणुमान । द्वैरथ । लम्बन । धृति । प्रभाकर । कपिल थे । इन्हीं के नाम पर सात देश हैं । यहां विद्रुम । हेमशील । धुमानु । पुष्पवान ।
कुशेशय । हरि । मन्दराचल ये सात पर्वत हैं । यहां धूतपापा । शिवा । पवित्रा । सन्मति । विधुदभ्र । मही ।
काशा ये सात नदी हैं ।
क्रौंच्च दीप के स्वामी धुतिमान के भी सात पुत्र थे । इनके नाम । कुशल । मन्दग । उष्ण । पीवर । अन्धकारक । मुनि । दुन्दुभि हुये । यहां । क्रौंच्च । वामन । अन्धकारक । दिवावृत । महाशैल । दुन्दुभि । पुण्डरीकवान
ये सात वर्ष पर्वत हैं । यहां । गौरी । कुमुद्वती । संध्या । रात्रि । मनोजवा । ख्याति । पुण्डरीका ये सात नदी
हैं ।
शाकदीप के राजा भव्य के भी सात पुत्र थे । इनके नाम । जलद । कुमार । सुकुमार । अरुणीबक । कुसुमोद ।
समोदार्कि । महाद्रुम थे । यहां । सुकुमारी । कुमारी । नलिनी । धेनुका । इक्षु । वेणुका । गभस्ति ये सात नदी
हैं ।
पुष्कर दीप के राजा शबल के दो पुत्र । महावीर और धातिक थे । इन्ही के नाम पर दो वर्ष या देश यहां थे ।इन दोनों देशों के मध्य मानसोत्तर नामक वर्षपर्वत है । यह पचास हजार योजन में फ़ैला हुआ तथा इतना ही ऊंचा है । यह मण्डलाकार है इस पुष्कर दीप को स्वादिष्ट जलवाला समुद्र चारों ओर से घेरकर स्थित है । उस समुद्र के सामने उससे दुगना जनजीवन से रहित । स्वर्णमयी जमीन वाली जगत की स्थित दिखाई देती है । यहां पर दस हजार योजन ( एक योजन बराबर बारह किलोमीटर ) में फ़ैला हुआ लोकालोक पर्वत है । जो अन्धकार से भरा हुआ है । यह अन्धकार भी अण्डकटाह से घिरा है ।
इस भूमि की ऊंचाई सत्तर हजार योजन है । इसमें दस दस हजार योजन की दूरी पर एक एक पाताल लोक स्थित है । जिन्हें अतल । वितल । नितल । गभिस्तान । महातल । सुतल । तथा पाताल कहते हैं । इन पाताल लोकों की भूमि । काली । सफ़ेद । लाल । पीला । शक्कर के समान । शैलमयी और स्वर्णमयी है । यहां पर दैत्य तथा नाग निवास करते हैं ।
अब दारुण पुष्कर दीप में जो नरक हैं । उनके नाम । रौरव । सूकर । रोध । ताल । विशसन । महाज्वाल । तप्तकुम्भ । लवण । विमोहित । रुधिर । वैतरणी । कृमिश । कृमिभोजन । असिपत्रवन । कृष्ण । नानाभक्ष
या लालाभक्ष । दारुण । पूयवह । पाप । वह्यिज्वाल । अधःशिरा । संदंश । कृष्णसूत्र । तमस । अवीचि । श्वभोजन । अप्रतिष्ठ । उष्णवीचि हैं । इनके ऊपर क्रमानुसार अन्य लोकों की स्थिति है । इन लोकों को जल । अग्नि । वायु । आकाश । घेरे हुये है । इस प्रकार अवस्थित ब्रह्माण्ड प्रधान तत्व से आवेष्टित है । वह ब्रह्माण्ड अन्य ब्रह्माण्ड की अपेक्षा दस गुना अधिक है ।

रविवार, जुलाई 11, 2010

जैसे को तैसा



शिकोहाबाद से सुनयना का फ़ोन आया  कि किसी ने उसके मकान के ऊपर वाले हिस्से में । यानी छत वाले पोर्शन में । लेट्रीन की दीवाल में ईंटों की संधि में एक काले कपङे में बाँधकर कुछ सामान रख दिया था । इसे देखकर वह चिंतित हो गयी । क्योंकि साफ़ तौर पर यह किसी अन्य द्वारा किया गया टोटका था । बल्कि ये अन्य द्वारा नहीं । उसी की एकमात्र पङोसन सरला द्वारा किया गया । टोटका था । ऐसा इसलिये था । क्योंकि सुनयना की छत मात्र उसी पडोसन से मिलती थी । और किसी का वहाँ
पहुँचना मुमकिन ही नहीं था । सुनयना चिंतित हो उठी । क्योंकि ऐसे ही एक टोटके के फ़लस्वरूप वह अपने ऊपर काफ़ी गम्भीर परिणाम भोग चुकी थी । और वह इस तरह के टोटके का उपाय भी अब जानती थी । वह उपाय ये था । कि किसी बाल्टी आदि से पानी की तेज धारा से इस टोटके को छुये बिना दूर बहा दिया जाय । लेकिन यह टोटका ऊँचे स्थान पर रखा था । अतः ये उपाय काम नहीं कर सकता था । अतः उसने झाङू में फ़ंसाकर उस टोटके को दूर सङक पर फ़ेंक दिया । ये उपाय भी किसी हद तक सही था । लेकिन फ़िर भी वह किसी घटना को लेकर आशंकित थी । दरअसल जिन क्षेत्रों में हमें जानकारी नहीं होती । उनमें हमारा आशंकित होना । भयभीत होना स्वाभाविक ही है । इसी उधेङबुन में उसे मेरा ख्याल आया । और उसने फ़ोन पर मुझे सारी बात बतायी । मैंने कहा जो जैसा करता है  वैसा भरता है ?
उसने कहा । फ़िर पहले दूसरे का किया । मुझे क्यों भरना पङा ?
मैंने कहा । वह छुपकर किया गया वार था । जो अनजाने में तुम्हें लग गया । लेकिन बाद में उसको ही भोगना पङा । यदि कोई पागल तुम्हें ईंट मार रहा है । तो उससे बचाव करना । और उस बचाव का तरीका जानना भी तुम्हारे लिये आवश्यक है । ये संसार का नियम है ।पर सुनयना संतुष्ट न हुयी ।
तीन दिन बाद उसका दूसरा फ़ोन आया । सुनयना द्वारा छत से सङक पर फ़ेंका गया टोटका शीघ्र ही उस गली में चर्चा का विषय बन गया । मध्यम आलू के साइज की वह काले कपङे की छोटी पोटली को गली की सभी औरतें पुरुष उत्सुकता से देख रहे थे । पर न कोई छू रहा था । न कोई खोलकर देखने का साहस कर रहा था । तभी गली की एक लालची औरत ने कहा । कि वह इस टोटके को खोल देगी । परन्तु इसमें जो भी निकलेगा । वह सामान उसी का होगा । किसी को क्या आपत्ति हो सकती थी ।
वास्तव में वह औरत सोच रही थी कि इसमें रुपये या चाँदी सोने की कोई चीज भी हो सकती है ? किसी ने कुछ नहीं कहा । तो उसने वो पोटली खोल दी । पोटली में हल्दी की गांठ । लोंग । बताशे । फ़ूल । बालों का छोटा गुच्छा और एक रुपया था । सिंदूर आदि जैसा भी रंग था । निश्चय ही ये टोटका था । खिसियायी सी लालची औरत एक रुपये का भी लोभ नहीं छोङ पायी । और उसे ले गयी ।
जैसा कि होना था । टोटके को छेङ देने से वो उसी दिन अप्रत्याशित रूप से गम्भीर स्थिति में बीमार पङ गयी । और एक रुपये के चक्कर में तीन सौ रुपये इलाज में उठ गये । और बेहद कमजोर हो गयी । सो अलग । सुनयना ने विजयी भाव से यही बताने के लिये फ़ोन किया था । कि देखो उसकी बात सही निकली । टोटका अपना काम कर गया । किया किसीने । भरना किसी को पङा । अब वह निश्चिंत थी क्योंकि टोटका रूपी कारतूस चल चुका था  और बुझा कारतूस कुछ नहीं बिगाङ सकता था ।
उसने मेरी हँसी बनाते हुये कहा । उसका ( पडोसन ) तो कुछ नहीं हुआ । जिसने टोटका किया था ?
मैंने कहा । धैर्य रखो.. ?
दरअसल ये घटना जिस स्थान की है । उसको और इस घटना से जुङे लोगों से मैं भली प्रकार परिचित था । रमेश दुबे मृतक संस्कार कराने वाला एक निम्न पंडित था । और एक मृतक संस्कार में मृतक की हैसियत के अनुसार उसे काफ़ी सामान और पैसा मिल जाता था । पहले रमेश दुबे एक अत्यन्त सीधे सच्चे स्वभाव का व्यक्ति था । और उसे भली प्रकार अहसास था कि वह किस स्तर का पंडित है ? कालांतर में उसका जीवन कई ऊँच नीच घटनाओं से गुजरा । और रमेश को अहसास हुआ कि पैसा और प्रतिष्ठा के बिना इस निर्दयी समाज में जीवन कीङे मकोङे के समान ही है । रमेश के एक मामा मन्त्रविधा । हस्तरेखा तन्त्रविधा आदि के ग्याता थे । वह अक्सर आते थे । पर टोना टोटका से उनका सम्बन्ध मैंने कभी नहीं सुना था । न ही वह किसी के अहित के लिये इन विध्याओं का प्रयोग करते थे ।
उस बस्ती में कुछ अन्य भगत थे । जो पैसे के बदले ऐसी क्रियाओं को अंजाम देते थे । उन्होंने रमेश को इन विधाओं के बारे में जानकारी देनी चाही । पर उसने अधिक इंट्रेस्ट नहीं लिया । उसे धन कमाने की धुन सवार थी ।
कुछ समय पश्चात रमेश का विवाह कन्नोज के पास से हुआ । और यहीं से उसके जीवन में बदलाव आना शुरु हो गया । रमेश की पत्नी न सिर्फ़ रंगीले स्वभाव की थी । बल्कि इस तरह के टोना टोटका तन्त्र मन्त्र की कई विध्याओं की माहिर थी । कुछ समय तो उसने ससुराल में शान्ति से काटा । और फ़िर अपना रंग दिखाना शुरु कर दिया । रमेश को भांग का सेवन करने की आदत थी । और वह अपनी पत्नी की उफ़नती नदिया के समान उमङती जवानी को उसकी चाहत के अनुसार पूर्ति करने में नाकामयाब रहा । तान्त्रिक परिवार से आयी हुयी लङकी इन मामलो में पहले ही तेज थी । लिहाजा रमेश के काम पर जाते ही उसके पास मनचलों की भीङ इकठ्ठी होने लगती । इसी बीच में क्या हुआ । कि रमेश के मन्त्रविध्या के जानकार मामा का असमय ही अंत समय आ गया । और उन्होंने अपना ग्यान । विध्या । और शक्ति जाते जाते रमेश को दे दी । अब ये दोनों पति पत्नी एक जैसे हो गये । धीरे धीरे
उसकी पत्नी झाङ फ़ूंक और अन्य इलाज करने लगी । और रमेश भी सप्ताह में एक दिन देवी के नाम पर गद्दी लगाने लगा । सहारा देवी का और काम नीचता के । जाहिर है । कि इससे उनकी अतिरिक्त आमदनी होने लगी । और रमेश बाबू महा पंडित के रूप में पुजने लगे ।
अब रमेश के पास काफ़ी दूर दूर से लोग अपनी तरह तरह की भूत आदि की समस्यायें । बीमारी । बिजनेस न चलना । जैसी समस्या ले के आने लगे । मुहल्ले के लोग रमेश की इस बङती ख्याति से काफ़ी प्रसन्न हुये और उसकी इज्जत करने लगे । ऐसे ही किसी समय में मैं एक बार सुनयना के घर पहुँचा था । जब उसने मुझे सारी बात बताई थी । सुनयना भी रमेश से एक दो बार चाँदी की पायल खोने पर पूछ आयी थी । जिसे रमेश ने गोलमाल उत्तर के रूप में कि घर में ही है । कह दिया था ।
मैंने उसे हिदायत दी । कि वैसे तो उसकी मर्जी है । जो चाहे करे । पर अगर मेरी माने तो रमेश की ऐसे मामलों में सहायता न ले ।क्योंकि...? अब आईये । इस घटना के मुख्य किरदार के बारे में बात करते हैं । सुनयना की पडोसन सरला देवी पचास साल की धार्मिक औरत थी । और धन परिवार आदि से संतुष्ट सुखी जीवन जी रही थी । वह भी कभी कभी रमेश की गद्दी में चली जाती थी । और कमर दर्द आदि जैसी बातों के लिये ही झाङ फ़ूंक करवा
लेती थी । एक दो बार उसका बुखार कई दिनों तक न उतरा । जो संयोगवश रमेश के " झारा " देने पर उतर गया । इससे सरला की श्रद्धा रमेश के प्रति और भी बङ गयी । इसी समय में सरला का नवजात नाती जो छह महीने का था । उसे नजर लग गयी । और वो अक्सर रोता रहता था । रमेश ने झारा लगाकर उसको भी ठीक कर दिया । और उसके लिये कई गंडे ताबीज बना डाले । मैं ऐसे ही एक समय सरला के घर गया । तो उसका पूरा परिवार ही मुझे गंडा ताबीज पहने नजर आया ।
पर मैंने उनसे कुछ कहा नहीं । इस परिवार का रमेश की गद्दी में काफ़ी आना जाना हो गया था । इसी बीच सरला की पुत्रवधू काफ़ी बीमार रहने लगी थी । और ...? डेढ साल बाद ..?
सुनयना का फ़ोन आया । तो बातों ही बातों में सरला का जिक्र छिङ गया । सरला का हँसता खेलता परिवार घोर विपत्तियों के मकङजाल में फ़ँस चुका था । उसकी पुत्रवधू दो बार आत्महत्या की कोशिश कर चुकी थी । पर बहुत प्रयास करके सतर्कता से बचा ली गयी ।अब वह अलग मकान लेकर रहने लगी थी । और बेहद जिद्दी स्वभाव की हो गयी थी । सरला और उसका पति अनजानी गम्भीर बीमारियों से ग्रसित हो गये थे । ये सुखी परिवार टूटकर बिखर चुका था । और अनजानी आशंकाओं से सहमा हुआ
दहशत में जीता था । रमेश बाबू के सारे " टोटके " फ़ैल हो गये थे । और खुद की पत्नी के आचरण से रमेश उखङा उखङा रहता था । वह अपनी पत्नी की बदचलनी के बारे में भली भांति जानता था ।
अंत बुरे का बुरा । इसी को कलियुग की मलेच्छ प्रवृति कहा गया है ।
अब मैं वह रहस्य क्लियर करता हूँ । जिनके लिये मैंने इस लेख में ? का प्रयोग किया है । दरअसल टोना टोटका । मन्त्र आदि द्वारा नीच कर्म में प्रवृत्त होना । उसी तरह है । जैसे कि एक निर्बल किस्म के इंसान को कुछ छिछोरे टायप के लोग परेशान करें । और उनसे बदला लेने के लिये वह भले आदमियों की जगह गुन्डो का सहारा ले । तो वे गुन्डे जो ऐसे ही मौकों की ताक में रहते हैं । उस समय तो बङिया सहारा देंगे ।आप भी खुश हो जाओगे । भाई बहुत अच्छे आदमी हैं । लेकिन बाद में वही " बबाल ए जान " बन जायेंगे । और तुम्हारे ही घर में बैठकर माँस मदिरा का सेवन करेंगे । जुआ खेलेंगे । और तुम्हारी ही बहन बेटी से ढीटता से काम भोग करेंगे । और तुम लाचारी से देखने के सिवाय कुछ नहीं कर पाओगे । क्योंकि इस स्थिति को स्वयं तुमने निमन्त्रण दिया था ।
ठीक ऐसे ही ये देवी आदि के नाम पर गद्दी लगाने वाले वास्तव में कुछ नीच शक्तियों के उपासक होते हैं । जो शीघ्र सिद्ध हो जाती हैं । क्योंकि वास्तव में वे तो गुंडो की भांति चाहते ही हैं कि उन्हें खुराक देने वाला कोई मिले । ये भूत प्रेत और छोटी तपस्या के बल पर बनी देवियाँ छोटे मोटे काम और छोटे मोटे रहस्य बताने में सक्षम होते हैं । और भगत लोग आसानी से इनसे कार्य लेने लगते हैं ।
जिसका भारी मुआवजा । अंत में भगत और इनसे सहायता लेने वाले को चुकाना ही पङता है । जरा विचार करें । नव दुर्गा के अन्तर्गत आने वाली देवी । कोई मामूली देवी है । जो तुम्हारी खोई हुयी तोङिया ( पायल ) बतायेगी । तुम्हारी कमर का दर्द ठीक करेगी । तुम्हारे नाती का बुखार उतारेगी । और हर हफ़्ते जाने कितने । ऐरे गेरे नत्थू खेरे । गद्दी लगाते हैं । उन सबके हाजिरी देगी । देवी शक्ति । इच्छा शक्ति है और एक बङी ताकत है । जिसके आवेश के लिये सुन्दर व्यवस्था । एक लम्बी तपस्या । एक लम्बा सदाचारी जीवन । और अन्य बहुत कुछ की आवश्यकता होती है । उदाहरण । रामकृष्ण परमहँस । तो आप विचार करें । कि गली गली में देवी को बुलाने वाले क्या और किस स्तर के लोग हैं ? और आप इनसे जुङकर किन्ही नीच दुष्ट शक्तियो के अदृष्य मकङजाल में तो नहीं फ़ँस रहे ?

बुधवार, जून 30, 2010

द्रोपदी फ़िर तेरी कहानी याद आई





( एक )

कल फ़िर एक बधू दहेज दानवों ने जलाई ।
द्रोपदी फ़िर तेरी कहानी याद आई ।
तेरे युग से ही अनुत्तरित ये प्रश्न है ।
नारी के वजूद पर सवालिया चिह्न है ।
प्रतियोगिता में जीत कर । कैसे ।
पाँच पुरुषों में बाँटा तुझे ।
समझना कठिन है ?
दाव पे लगाया तुझे ।
अपनों के बीच में ।
निर्वस्त्र कर अपनों ने लजाया तुझे ।
नारी की गरिमा का ।ये सबसे बङा हनन है ।
वीरों की सभा में ।
वीरों ने अपमानित कर घुमाया तुझे ।
वे वीर थे या नपुंसक । फ़ैसला कठिन है ।
द्रोपदी इस तरह तू तिल तिल कर मरती रही ।
युग बदला । दुनियाँ बदली ।
पर द्रोपदी जलती रही ।
द्रोपदी तेरा जीवन दुखों में ही बीत गया ।
सतयुग त्रेता द्वापर कलियुग
नारी ने तुझको ही जिया ।

( दो )

आज भी तेरी तरह द्रोपदी ।
नारी बेबस है लाचार है ।
बनती हबस का शिकार ।
पङती दहेज की मार है ।
भाँति भाँति के अनाचार अत्याचार ।
सोचने की बात है ।
तुझसे जगत व्यवहार है ।
आज भी जुए के दाव पर नारी लगाई जाती है ।
बिकती है । बाजारों में बोली लगाई जाती है ।
माँ की ममता में भी पक्षपात ।
भैया जाता है स्कूल ।
बहन घर पर बिठाई जाती है ।
लङकी से करना क्या लगाव ।
लङकी परायी कहाती है ।
और शायद इसीलिये ?
लङका खाता है दूध मलाई ।
लङकी रोटी से भूख मिटाती है ।
कूङा समझ कर । बोझ मान कर ।
घर से हटायी जाती है ।
जो भी मिले । जैसा भी मिले ।
उसको ब्याही जाती है ।
लेकिन ?
फ़िर भी किस्मत नहीं बदलती ।
बिना दहेज के । कम दहेज के ब्याही लङकी ।
निश्चित ही ।
हर बार जलायी जाती है ।

( तीन )

इसलिये ।
उठ खङी हो जा । कर विद्रोह ।
हैवानों से आशा छोङ दे ।
बाँधे तुझको जो बन्धन में ।
वे सारी जंजीरे तोङ दे ।
पङ लिख कर ऊँची उठ । ऐसा मुकाम बना ।
दहेज दानव । बलात्कारी काँपे तुझसे ।
लक्ष्मीबाई सी पहचान बना ।
लाचारी मजबूरी हटा दे ।
क्या तेरे हक है ।
आज दुनियाँ को बता दे ।
उठ खङी हो जा ।
यह पहल तुझे करनी होगी ।
नारी को नारी की भाग्य विधाता बन ।
नारी की किस्मत बदलनी होगी ।

नारी बनाम द्रोपदी




आज से बाईस साल पहले मेरे पङोस की लङकी को उसके ससुराल वालों ने जलाकर मार दिया था । हालांकि मुझे कविता आती नहीं थी पर उस वक्त जाने कैसे स्वतः ही बन गयी । इस लङकी का जीवन वास्तव में ऐसा ही था । आज उसको याद करते हुये श्रद्धांजलि देने की कोशिश कर रहा हूँ उसका नाम रागिनी था ।


तब भी असहाय थी ।अब भी असहाय है ।
द्रोपदी ?
जीत कर लाई गयी ।अस्तित्व के हिस्से कर ।
वस्तु सी बाँटी गयी ।पर उफ़ न कर पाई ।
द्रोपदी ।
यधपि !
पतियों की संख्या पाँच थी । कुल की ऊँची नाक थी ।
लेकिन एक दाव की खातिर । अपनों के बीच में ।
तब लजाई द्रोपदी ।
बहुत रोई । चीखी चिल्लाई ।
पर कुछ न कर पाई ।
द्रोपदी ।
छोङ दें हम और किस्से ।
द्रोपदी के दुखों के भटकने के ।
ये दो उदाहरण काफ़ी हैं ।
आज की द्रोपदी की स्थिति समझने को ।
आज फ़िर पढी खबर ।
एक और दुर्योधन ने ।
हबस का शिकार बनाई द्रोपदी ।
( आज के परिवेश में । जन्म )
औरों की छोङो । खुद माँ ने बेदर्दी से ठुकराई ।
जन्म से पहले ही गर्भ से गिराई । द्रोपदी ।
( घर में )
भाई बहन में फ़र्क बहुत था ।
माँ की ममता में । खाने में पीने में ।
स्कूल में पढाने में । भाई को महत्व था ।
ऐसी उपेक्षा से कुंठाई । हीनता से घिर आई ।
अपनों में हुयी पराई ।पर बोल न पाई द्रोपदी ।
( शादी )
शास्त्रों में । विद्वानों ने । घर की लक्ष्मी बताई द्रोपदी ।
पर धन के बिना सबने । हर बार ठुकराई द्रोपदी ।
तब ?
अरमानों की चिता जला के ।
यहाँ वहाँ । जाने कहाँ । बेमन से व्याही द्रोपदी ।
( शादी के बाद )
जुल्म सहे । ताने सहे ।
यातनाओं से थरथराई द्रोपदी ।
सोना चाँदी । भेंस नकदी । तू क्यों न लाई द्रोपदी ।
ला दहेज । ला दहेज । देता चहुँ ओर सुनाई ।
बहुत आती थी । रुलाई । पर रो ना पाई द्रोपदी ।
( फ़िर क्या हुआ )
हर रोज मारा खूब पिटी ।( पर ) दहेज दानवों की न भूख मिटी ।
बहुत रोई । गिङगिङाई ।
पिता गरीब है उसका । बात उसने सबको बताई ।
हाथ जोङती बार बार देती दुहाई । द्रोपदी ।
( और अंत में -- )
नाउम्मीद हुये आतताई । तब जलाई द्रोपदी ।
हा बापू । हा मैया । हा भैया ।
जलते हुये चिल्लाई द्रोपदी ।
( उपसंहार )
अच्छा हुआ तू मर गयी । इस जीवन से तू तर गयी ।
अब मत आना । कभी तू यहाँ ।
इंसानों के रूप में दरिन्दे बसते जहाँ ।
हाय क्या भाग पाये तूने । आयी बन अभागी । द्रोपदी ।
( ये दमनचक्र ? )
युगों पहले भी थी । यही कहानी तेरी ।
युगों बाद भी है । यही कहानी तेरी ।
कालचक्र में हर नारी । बार बार तेरी दास्तां दोहराये । द्रोपदी ।
( रागिनी को श्रद्धांजलि )

बुधवार, जून 16, 2010

प्रलय का काउंटडाउन शुरू




भारत में तो मैंने इतना नहीं देखा । पर 2012 को लेकर अमेरिका आदि कुछ विकसित देशों मे हल्ला मचा हुआ है । हाल ही में हुये मेरे एक परिचित स्नेहीजन त्रयम्बक उपाध्याय साफ़्टवेयर इंजीनियर ने अमेरिका ( से ) में 2012 को लेकर मची खलबली के बारे में बताया ।
इस तरह की बातों में मेरा नजरिया थोङा अलग रहता है । मेरे द्रष्टिकोण के हिसाब से यह पोस्ट भ्रामक थी । लिहाजा इस ज्वलन्त मुद्दे को लेकर मेरे पास जब अधिक फ़ोन आने लगे ।तो मैंने वह पोस्ट ही हटा दी । पहले तो मेरे अनुसार यह उस तरह सच नहीं है । जैसा कि लोग या विनोद जी कह रहे हैं । दूसरे यदि इसमें कुछ सच्चाई है भी तो " डाक्टर भी मरणासन्न मरीज से ये कभी नहीं कहता कि तुम कुछ ही देर ( या दिनों ) के मेहमान हो " यदि हमारे पास किसी चीज का उपाय नहीं है । तो " कल " की चिन्ता में " आज "को क्यों खराब करें । यदि प्रलय होगी भी । तो होगी ही ।
उसको कौन रोक सकता है । जब हम " लैला " सुनामी " हैती " के आगे हाथ जोङ देते है । तो प्रलय तो बहुत बङी " चीज " है । लेकिन तीन दिन पहले जब मैं इस इंद्रजाल ( अंतर्जाल ) internet पर घूम रहा था तो किसी passions साइट पर मैंने लगभग 40 साइट इसी विषय पर देखी । जिनमें " एलियन " द्वारा तीसरे विश्व युद्ध द्वारा आतंकवाद , प्राकृतिक आपदा ..आदि किसके द्वारा " प्रथ्वी " का अंत होगा । ऐसे प्रश्न सुझाव आदि थे । जो लोग मेरे बारे में जानते हैं और जिन्हें लगता है कि मैं " इस प्रश्न " का कोई संतुष्टि पूर्ण उत्तर दे सकता हूँ । ऐसे विभिन्न स्थानों से लगभग 90
फ़ोन काल मेरे पास आये । और मैंने उनका गोलमाल..टालमटोल..उत्तर दिया । इसकी वजह वे लोग बेहतर ढंग से समझ सकते हैं । जो किसी भी प्रकार की कुन्डलिनी या अलौकिक साधना में लगे हुये हैं । मान लीजिये कि किसी साधक ने इस प्रकार की साधना कर ली हो कि वह भविष्य के बारे में बता सके । और वह पहले से ही सबको सचेत करने लगे । तो ये साधना का दुरुपयोग और ईश्वरीय नियमों का उलंघन होगा । परिणामस्वरूप वह ग्यान साधक से अलौकिक शक्तियों द्वारा छीन लिया जायेगा । क्योंकि ये सीधा सीधा ईश्वरीय विधान और प्रकृति के कार्य में हस्तक्षेप होगा ।
हाँ इस या इन आपदाओं से बचने के उपाय अवश्य है । और वे किसी को भी सहर्ष बताये जा सकते हैं । पर यदि कोई माने तो ? क्योंकि जगत एक अग्यात नशे में चूर है । " झूठे सुख से सुखी हैं , मानत है मन मोद । जगत चबेना काल का कछू मुख में कछु गोद । " जीव वैसे ही काल के गाल में है । उसकी कौन सी उसे परवाह है । तो खबर नहीं पल की और बात करे कल की । वाला रवैया चारों तरफ़ नजर आता है । खैर..जगत व्यवहार और विचार से साधुओं को अधिक मतलब नहीं होता । फ़िर भी एक अति आग्रह रूपी दबाब में जब बार बार ये प्रश्न मुझसे किया गया । तो मुझे संकेत में इसका जबाब देना पङा ।
ये जबाब मैंने " श्री महाराज जी " और कुछ गुप्त संतो से प्राप्त किया था । अलौकिकता के " ग्यान काण्ड " और " बिग्यान काण्ड " में जिन साधुओं या साधकों की पहुँच होती है । वे इस चीज को देख सकते हैं । 2012 में प्रलय की वास्तविकता क्या है । आइये इसको जानें ।
" संवत 2000 के ऊपर ऐसा योग परे । के अति वर्षा के अति सूखा प्रजा बहुत मरे ।
अकाल मृत्यु व्यापे जग माहीं । हाहाकार नित काल करे । अकाल मृत्यु से वही बचेगा ।
जो नित " हँस " का ध्यान धरे । पूरब पश्चिम उत्तर दक्षिण । चहुँ दिस काल फ़िरे ।
ये हरि की लीला टारे नाहिं टरे ।
अब क्योंकि संवत 2000 चल ही रहा है । इसलिये प्रलय ( मगर आंशिक ) का काउंटडाउन शुरू हो चुका है । मैंने किसी पोस्ट में लिखा है कि गंगा यमुना कुछ ही सालों की मेहमान और है । 2010 to 2020 के बाद जो लोग इस प्रथ्वी पर रहने के " अधिकारी " होंगे । वो प्रकृति और प्रथ्वी को एक नये श्रंगार में देखने वाले गिने चुने भाग्यशाली लोग होंगे । और ये घटना डेढ साल बाद यानी 2012 में एकदम नहीं होने जा रही । बल्कि इसका असली प्रभाव 2014 to 2015 में देखने को मिलेगा । इस प्रथ्वी पर रहने का " हक " किसका है । ये रिजल्ट सन 2020 में घोषित किया जायेगा । यानी आपने सलामत 2020 को happy new year किया । तो आप 65 % का विनाश करने वाली इस प्रलय से बचने वालों में से एक होंगे । ऊपर जो " संतवाणी " मैंने लिखी है । उसमें ऐसी कोई कठिन बात नहीं है । जिसका अर्थ करना आवश्यक हो । सिवाय इस एक बात " अकाल मृत्यु से वही बचेगा । जो नित " हँस " का ध्यान धरे । " के । " हँस " ग्यान या ध्यान या भक्ति वही है । जो शंकर जी , हनुमान , राम , कृष्ण , कबीर , नानक रैदास , दादू , पलटू ..आदि ने की । यही एकमात्र " सनातन भक्ति " है । इसके बारे में मेरे सभी " ब्लाग्स " में बेहद विस्तार से लिखा है । अतः नये reader और जिग्यासु उसको आराम से देख सकते हैं । और कोई उलझन होने पर मुझे फ़ोन या ई मेल कर सकते हैं ।
लेकिन अभी भी बहुत से प्रश्न बाकी है । ऊपर का दोहा कोई विशेष संकेत नहीं कर रहा । ये सब तो अक्सर प्रथ्वी पर लगभग होता ही रहा है । तो खास क्या होगा और क्यों होगा ? ये अब भी एक बङा प्रश्न था । तो आप लोगों के अति आग्रह और दबाब पर मैंने " श्री महाराज जी " से विनम्रता पूर्वक निवेदन किया । और उत्तर में जो कुछ मेरी मोटी बुद्धि में फ़िट हुआ । वो आपको बता रहा हूँ । बाढ , सूखा , बीमारी , महामारी और कुछ प्राकृतिक आपदायें रौद्र रूप दिखलायेंगी । और जनमानस का झाङू लगाने के स्टायल में सफ़ाया करेंगी । लेकिन...? इससे भी प्रलय जैसा दृष्य नजर नहीं आयेगा ।
प्रलय लायेगा धुँआ..धुँआ..हाहाकारी...विनाशकारी..धुँआ..चारों दिशाओं से उठता हुआ घनघोर काला गाढा धुँआ..। और ये धुँआ मानवीय अत्याचारों से क्रुद्ध देवी प्रथ्वी के गर्भ से लगभग जहरीली गैस के रूप में बाहर आयेगा । यही नहीं प्रथ्वी के गर्भ में होने वाली ये विनाशकारी हलचल तमाम देशों को लीलकर उनका नामोंनिशान मिटा देगी । प्रथ्वी पर संचित तमाम तेल भंडार इसमें कोढ में खाज का काम करेंगे । और 9 / 11 को जैसा एक छोटा ट्रेलर हमने देखा था । वो जगह जगह नजर आयेगा । प्रथ्वी में आंतरिक विस्फ़ोटों से विकसित देशों की बहुमंजिला इमारते तिनकों की तरह ढह जायेगी । हाहाकार के साथ त्राहि त्राहि का दृष्य होगा । समुद्र में बनने वाले भवन और अन्य महत्वाकांक्षी परियोजनायें इस भयंकर जलजले में मानों " बरमूडा ट्रायएंगल " में जाकर गायब हो जायेगीं । nasa के सभी राकेट बिना लांच किये । विना तेल लिये । बिना बटन दबाये " अंतरिक्ष " में उङ जायेंगे । और वापस नहीं आयेंगे । और बेहद हैरत की बात ये है । कि इस विनाशकारी मंजर को देखने वाले भी होंगे । और इस से बच जाने वाले भी लाखों (हाँलाकि कुछ ही ) की तादाद में होंगे । और प्रथ्वी की आगे की व्यवस्था भी उन्हीं के हाथों होगी । इस भयानक महालीला के बाद प्रथ्वी के वायुमंडल में सुखदायी परिवर्तन होंगे । और आश्चर्य इस बात का कि जिन घटकों से ये तबाही आयेगी । वे ही घटक प्रथ्वी से बाहर आकर तबाही का खेल खेलने के बाद परिवर्तित होकर नये सृजन की रूप रेखा तैयार करेंगे ।
अब अंतिम सवाल । ये सब आखिर क्यों होगा ?
तो इसका उत्तर है । डिसबैलेंस । यानी प्राकृतिक संतुलन का बिगङ जाना । ये बैलेंस बिगङा कैसे ? इसका आध्यात्मिक उत्तर और कारण बेहद अलग है । वो मैं न समझा पाऊँगा । और न आप इतनी आसानी से समझ पायेंगे । सबसे बङा जो मुख्य कारण है । वो है कई पशु पक्षियों की प्रजाति का लुप्त हो जाना । मनुष्य का अधिकाधिक प्राकृतिक स्रोतों का दोहन । और मनुष्य के द्वारा अपनी सीमा छोङकर प्रकृति के कार्यों में हस्तक्षेप करना आदि ..? अब एक आखिरी बात..पशु पक्षियों के लुप्त होने से प्रलय का क्या सम्बन्ध ?
जो लोग अमेरिका आदि देशो के बारे में जानकारी रखते हैं । उन्हें एक बात पता होगी । कि एक बार जहरीले सांपो के काटने से आदमियों की मृत्यु हो जाने पर वहाँ सामूहिक रूप से सांपो की हत्या कर दी गयी । ताकि " आदमी " निर्विघ्न रूप से रात दिन विचरण कर सके । और कुछ स्थान एकदम सर्पहीन हो गये...कुछ ही समय बाद । वहाँ एक अग्यात रहस्यमय बीमारी फ़ैलने लगी । तब बेग्यानिकों को ये बात पता चली कि सर्प हमारे आसपास के वातावरण से जहरीले तत्वों को खींच लेते है । और वातावरणस्वच्छ रहता है । सर्प हीनता की स्थिति में वह विष वातावरण में ही रहा । और जनता उस अदृष्य विष की चपेट में आ गयी । ये सिर्फ़ एक घटित उदाहरण भर था । आज प्रथ्वी के वायुमंडल और वातावरण से जरूरत की तमाम चीजें गायब हो चुकी हैं ? 

शनिवार, मई 15, 2010

आदमी को उङाने वाली अंगूठी




आज इन तीन पंक्तियों के रहस्य की बात करते हैं ये तीन पंक्तियां प्राय हरेक ने ही सुनी होगी..पर ये देखें इनका वही अर्थ है जो आप अभी तक जानते रहे या अन्य ही है .
प्रभु मुद्रिका मेल मुख माहीं जलधि लांघ गयो अचरज नांही .
धारा तो बह रही है राधा नाम की . गोविंद जय जय गोपाल जय जय . राधा रमण हरि गोविंद जय जय
प्रभु मुद्रिका..हनुमान जी जब पहली बार विशाल सागर लांघकर सीता के पास पहुँचे तो सीता ने उन पर संशय किया कि ये रावण की कोई चाल न हो..उन्होने कहा कि माना यदि तुम राम के दूत हो भी..तो एक तो तुम्हारा छोटा सा शरीर है दूसरे तुम वानर हो..इस तरह तुमने लंका आने हेतु यह विशाल सागर किस तरह पार किया क्योंकि सीता की नजर में यह असंभव कार्य था तब हनुमान जी ने कहा कि प्रभु मुद्रिका मेल....अब देखिये आम तौर पर इसका ये अर्थ प्रचलन में है
कि राम के द्वारा सीता के लिये दी हुयी मुद्रिका या अंगूठी का ये कमाल था..जरा गौर करें ??
अगर अंगूठी से ही कोई उङकर आ सकता था तो फ़िर जो घंटो चयन हुआ कि कौन जाय कौन न जाय उसकी क्या आवश्यकता थी..दूसरी बात ये कमाल अगर अंगूठी का था तो अंगूठी तो हनुमान जी ने सीता को दे दी थी फ़िर वे वापस क्या श्रीलंका एयरवेज की फ़्लायट से आये थे ?
और गौर करें हनुमान जी ने कहा.. मेरे मुख में मुद्रिका..यहाँ किसी का भी संभावित तर्क हो सकता है कि वानर होने की वजह से " टेक केयर " उन्होनें मुद्रिका मुँह में रख ली कि खो न जाय जिस तरह आपने देखा होगा कि वानर अपने मुँह में चने आदि रख लेते हैं ..जरा ठहरें जो हनुमान जी कुछ ही देर में विशाल शरीर करके लंका को तहस नहस कर देते हैं उन्हें इस तरह मुद्रिका की हिफ़ाजत की आवश्यकता ही न थी..और सबसे बङी बात ये है कि उनके सागर पार जाने मेंउस अंगूठी का कोई रोल था ही नहीं..मगर मुद्रिका थी.
.दरअसल..हँस (की) ग्यान में पाँच मुद्रिकाएं होती है जिनके नाम चाचरी..खीचरी ..भूचरी..अगोचरी..आदि हैं ये इनमें से एक थी . ये मुद्रिकाएं सिद्ध हो जाने पर हवा में उङना ..शरीर का आकार छोटा ..बङा करना आदि..इस तरह की सिद्धि साधक में समा जाती है..पाँच अन्य मुद्रिकाएं परमहंसो की है
जिनके जिक्र का कोई लाभ नहीं..क्योंकि हंस ग्यान को प्राप्त करना भी बच्चों का खेल नहीं है धारा तो बह रही है राधा...प्राय इसका जो अर्थ प्रचलित है वो भगवान श्रीकृष्ण की प्रेयसी राधा के भक्तिभाव को दरशाता है..राधास्वामी मत के लोग राधा शब्द का अर्थ बखूबी जानते हैं वास्तव में राधा सुरति को कहते हैं ..र अक्षर के बारे में जिन्होनें मेरा लेख पढा होगा उन्हें यहाँ बात जल्दी समझ में आयेगी हाँ नये लोगों को उलझन होगी.. र चेतन है यह सकल ब्रह्माण्डों में गति का हेतुक है और इस तरह र्र्र्र्र्र्र्र्र्र्र्र्र्र्र्र्र्र्र्र्र्र्र्र्र्र्र्र्र्र्र्र्र्र्र्र्र्र्र का है
हम में आप में या कहीं कोई कैसी भी गति है इसी का करेंट है अ जीव भाव का मिथ्या परदा है इस तरह ये रा हो गया अगर आप शब्दों का धातु ग्यान जानते हैं तो धा में जो भी मिश्रण है वो दौङता है..इस तरह ये राधा हो गया...धारा तो बह रही है..का सीधा साधा अर्थ है ही..राधा का अर्थ मैंने बता दिया..अब धारा तो बह रही है राधा..
यहाँ तक की बात क्लियर हो गयी..नाम की..ये "नाम" ही वो परम शक्ति है जिसकी सत्ता सर्वत्र है यानी इससे बङी कोई शक्ति है ही नहीं...शंकर जी क्या कह रहें हैं सुनें
उमा कहउँ में अनुभव अपना सत हरि नाम जगत सब सपना..अब यहाँ ये मत समझ लेना कि वे विष्णु जी (हरि नाम ) की बात कर रहे हैं विष्णु जी तो उनके सगे मंझले भाई हैं सबसे बङे ब्रह्मा फ़िर विष्णु सबसे छोटे शंकर जी .वे उस "नामसत्ता" की बात कर रहे हैं जो इन नाम रूप सबसे परे है और सबका मालिक है..और वही सब है उसके अतिरिक्त और कोई है ही नहीं . ये स्वतः गुंजारित नाम आपके अन्दर भी है...अत सिद्ध हुआ" धारा तो बह रही है राधा नाम की.." इसका वास्तविक अर्थ है कि उस परम नाम की धारा सर्वत्र बह रही है और राधा याने सुरती उसमें रमण कर रही है .
अब गोविंद जय जय गोपाल जय जय . राधा रमण हरि गोविंद जय जय इसका अर्थ देखते हैं ..गोबिंद...गो याने इंद्रियां बिंद यानी बिंधा या बँधा हुआ..इंद्रियों से बिंधा या बँधा हुआ कौन है हमारा शरीर .तो गोबिंद का सही अर्थ शरीर हुआ..जय जय से क्या आशय है...अब जरा ध्यान से समझें.. शरीर तो मृतक अवस्था में भी होता है पर अर्थहीन होता है मिट्टी कहलाता है..तो जो इसमें बैठा है उसकी ही तो जय जय हो रही है...उससे ही शरीर का अर्थ है इसीलिये गोबिंद जय जय हो रही है..अब गोपाल जय जय..गो का अर्थ वही इंद्रियां पाल का अर्थ पालक (सब्जी न
समझ लेना ) या पालने वाला...जाहिर है जो बैठा है वही इंद्रियों को पाल रहा है ...राधा वही ऊपर बता चुका सुरती..रमण...याने रमना या गति करना या किसी भी तरह की स्फ़ुरणा कह सकते हैं स्फ़ुरणा का वास्तविक अर्थ बेहद रहस्यमय है ये केवल उच्च ग्यानियों के समझने का विषय है . अब हरि का अर्थ लें...साधारण अवस्था में हरि शब्द का अर्थ भगवान विष्णु से है और विष्णु की जिम्मेवारी जीवों के पालन पोषण आदि की व्यवस्था संभालना है..पर आत्मा के टेक्नीकल अध्ययन में हरि का अर्थ हरा भरा करने वाला है..बात एक ही है...एक प्रतीक है...दूसरा
क्रियात्मक घटक है..और समझें एक डी. एम. का नाम मान लो रामप्रसाद है..अब आप बात इस तरह कहतें हैं कि रामप्रसाद से काम कराया तो ये व्यक्ति बोधक हुआ..आप कहतें हैं कि डी. एम. से काम कराया तो ये उस पद या क्रिया का बोध कराता है जो उस समय रामप्रसाद के द्वारा हुयी . अब क्योंकि भगवान के डी. एम. या मिनिस्टर कोई हों वे जुदा जुदा नामों के नहीं हो सकते...विष्णु की कुर्सी पर बैठने वाला चाहे वह रामप्रसाद हो या प्यारेलाल उसकी
अपनी एक ही पहचान होगी विष्णु . तो हरि तक का अर्थ स्पष्ट हो गया..फ़िर शेष रहा गोबिंद जय जय..उसका अर्थ में बता ही चुका हूँ .
तो इस तरह आप " गोबिंद जय जय गोपाल जय जय राधा रमण हरि गोबिंद जय जय का वास्तविक अर्थ समझें..एक रूपक है..दूसरा आंतरिक या तकनीकी है..पर बात एक ही है . लेकिन आंतरिक को जानने से भेद भेद नहीं रहते हैं . इतना फ़र्क है .

उत्तरकाण्ड 6




इहाँ न पच्छपात कछु राखउ। बेद पुरान संत मत भाषउ।।
मोह न नारि नारि के रूपा। पन्नगारि यह रीति अनूपा।।
माया भगति सुनहु तुम्ह दोऊ। नारि बर्ग जानइ सब कोऊ।।
पुनि रघुबीरहि भगति पिआरी। माया खलु नर्तकी बिचारी।।
भगतिहि सानुकूल रघुराया। ताते तेहि डरपति अति माया।।
राम भगति निरुपम निरुपाधी। बसइ जासु उर सदा अबाधी।।
तेहि बिलोकि माया सकुचाई। करि न सकइ कछु निज प्रभुताई।।
अस बिचारि जे मुनि बिग्यानी। जाचहीं भगति सकल सुख खानी।।
यह रहस्य रघुनाथ कर बेगि न जानइ कोइ।
जो जानइ रघुपति कृपा सपनेहु मोह न होइ।।
औरउ ग्यान भगति कर भेद सुनहु सुप्रबीन।
जो सुनि होइ राम पद प्रीति सदा अबिछीन।।


सुनहु तात यह अकथ कहानी। समुझत बनइ न जाइ बखानी।।
ईस्वर अंस जीव अबिनासी। चेतन अमल सहज सुख रासी।।
सो मायाबस भयउ गोसाईं। बंध्यो कीर मरकट की नाई।।
जड़ चेतनहि ग्रंथि परि गई। जदपि मृषा छूटत कठिनई।।
तब ते जीव भयउ संसारी। छूट न ग्रंथि न होइ सुखारी।।
श्रुति पुरान बहु कहेउ उपाई। छूट न अधिक अधिक अरुझाई।।
जीव हृदय तम मोह बिसेषी। ग्रंथि छूट किमि परइ न देखी।।
अस संजोग ईस जब करई। तबहु कदाचित सो निरुअरई।।
सात्त्विक श्रद्धा धेनु सुहाई। जो हरि कृपा हृदय बस आई।।
जप तप ब्रत जम नियम अपारा। जे श्रुति कह सुभ धर्म अचारा।।
तेइ तृन हरित चरे जब गाई। भाव बच्छ सिसु पाइ पेन्हाई।।
नोइ निबृत्ति पात्र बिस्वासा। निर्मल मन अहीर निज दासा।।
परम धर्ममय पय दुहि भाई। अवटे अनल अकाम बिहाई।।
तोष मरुत तब छमा जुड़ावे। धृति सम जावनु देइ जमावे।।
मुदिता मथे बिचार मथानी। दम अधार रजु सत्य सुबानी।।
तब मथि काढ़ि लेइ नवनीता। बिमल बिराग सुभग सुपुनीता।।

जोग अगिनि करि प्रगट तब कर्म सुभासुभ लाइ।
बुद्धि सिरावे ग्यान घृत ममता मल जरि जाइ।।
तब बिग्यानरूपिनि बुद्धि बिसद घृत पाइ।
चित्त दिआ भरि धरे दृढ़ समता दिअटि बनाइ।।
तीनि अवस्था तीनि गुन तेहि कपास ते काढ़ि।
तूल तुरीय संवारि पुनि बाती करे सुगाढ़ि।।
एहि बिधि लेसे दीप तेज रासि बिग्यानमय।।
जातहिं जासु समीप जरहिं मदादिक सलभ सब।।
सोहस्मि इति बृत्ति अखंडा। दीप सिखा सोइ परम प्रचंडा।।
आतम अनुभव सुख सुप्रकासा। तब भव मूल भेद भ्रम नासा।।
प्रबल अबिद्या कर परिवारा। मोह आदि तम मिटइ अपारा।।
तब सोइ बुद्धि पाइ उजिआरा। उर गृह बैठि ग्रंथि निरुआरा।।
छोरन ग्रंथि पाव जो सोई। तब यह जीव कृतारथ होई।।
छोरत ग्रंथि जानि खगराया। बिघ्न अनेक करइ तब माया।।
रिद्धि सिद्धि प्रेरइ बहु भाई। बुद्धहि लोभ दिखावहिं आई।।
कल बल छल करि जाहि समीपा। अंचल बात बुझावहि दीपा।।
होइ बुद्धि जो परम सयानी। तिन्ह तन चितव न अनहित जानी।।
जो तेहि बिघ्न बुद्धि नहिं बाधी। तो बहोरि सुर करहिं उपाधी।।
इंद्री द्वार झरोखा नाना। तहं तहं सुर बैठे करि थाना।।
आवत देखहिं बिषय बयारी। ते हठि देही कपाट उघारी।।
जब सो प्रभंजन उर गृह जाई। तबहिं दीप बिग्यान बुझाई।।
ग्रंथि न छूटि मिटा सो प्रकासा। बुद्धि बिकल भइ बिषय बतासा।।
इंद्रिन्ह सुरन्ह न ग्यान सोहाई। बिषय भोग पर प्रीति सदाई।।
बिषय समीर बुद्धि कृत भोरी। तेहि बिधि दीप को बार बहोरी।।

तब फिरि जीव बिबिध बिधि पावइ संसृति क्लेस।
हरि माया अति दुस्तर तरि न जाइ बिहगेस।।
कहत कठिन समुझत कठिन साधन कठिन बिबेक।
होइ घुनाच्छर न्याय जो पुनि प्रत्यूह अनेक।।
ग्यान पंथ कृपान के धारा। परत खगेस होइ नहिं बारा।।
जो निर्बिघ्न पंथ निर्बहई। सो कैवल्य परम पद लहई।।
अति दुर्लभ कैवल्य परम पद। संत पुरान निगम आगम बद।।
राम भजत सोइ मुकुति गोसाई। अनइच्छित आवइ बरिआई।।
जिमि थल बिनु जल रहि न सकाई। कोटि भांति कोउ करे उपाई।।
तथा मोच्छ सुख सुनु खगराई। रहि न सकइ हरि भगति बिहाई।।
अस बिचारि हरि भगत सयाने। मुक्ति निरादर भगति लुभाने।।
भगति करत बिनु जतन प्रयासा। संसृति मूल अबिद्या नासा।।
भोजन करिअ तृपिति हित लागी। जिमि सो असन पचवे जठरागी।।
असि हरिभगति सुगम सुखदाई। को अस मूढ़ न जाहि सोहाई।।
सेवक सेब्य भाव बिनु भव न तरिअ उरगारि।।
भजहु राम पद पंकज अस सिद्धांत बिचारि।।
जो चेतन कह ज़ड़ करइ ज़ड़हि करइ चैतन्य।
अस समर्थ रघुनायकहि भजहि जीव ते धन्य।।

कहेउ ग्यान सिद्धांत बुझाई। सुनहु भगति मनि के प्रभुताई।।
राम भगति चिंतामनि सुंदर। बसइ गरुड़ जाके उर अंतर।।
परम प्रकास रूप दिन राती। नहिं कछु चहिअ दिआ घृत बाती।।
मोह दरिद्र निकट नहिं आवा। लोभ बात नहिं ताहि बुझावा।।
प्रबल अबिद्या तम मिटि जाई। हारहिं सकल सलभ समुदाई।।
खल कामादि निकट नहिं जाहीं। बसइ भगति जाके उर माहीं।।
गरल सुधासम अरि हित होई। तेहि मनि बिनु सुख पाव न कोई।।
ब्यापहि मानस रोग न भारी। जिन्ह के बस सब जीव दुखारी।।
राम भगति मनि उर बस जाके। दुख लवलेस न सपनेहु ताके।।
चतुर सिरोमनि तेइ जग माहीं। जे मनि लागि सुजतन कराहीं।।
सो मनि जदपि प्रगट जग अहई। राम कृपा बिनु नहिं कोउ लहई।।
सुगम उपाय पाइबे केरे। नर हतभाग्य देहिं भटमेरे।।
पावन पर्बत बेद पुराना। राम कथा रुचिराकर नाना।।
मर्मी सज्जन सुमति कुदारी। ग्यान बिराग नयन उरगारी।।
भाव सहित खोजइ जो प्रानी। पाव भगति मनि सब सुख खानी।।
मोरे मन प्रभु अस बिस्वासा। राम ते अधिक राम कर दासा।।
राम सिंधु घन सज्जन धीरा। चंदन तरु हरि संत समीरा।।
सब कर फल हरि भगति सुहाई। सो बिनु संत न काहू पाई।।
अस बिचारि जोइ कर सतसंगा। राम भगति तेहि सुलभ बिहंगा।।
ब्रह्म पयोनिधि मंदर ग्यान संत सुर आहि।
कथा सुधा मथि काढ़हिं भगति मधुरता जाहि
बिरति चर्म असि ग्यान मद लोभ मोह रिपु मारि।
जय पाइअ सो हरि भगति देखु खगेस बिचारि
राजीव कुमार कुलश्रेष्ठ
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पुनि सप्रेम बोलेउ खगराऊ। जो कृपाल मोहि ऊपर भाऊ।।
नाथ मोहि निज सेवक जानी। सप्त प्रस्न कहहु बखानी।।
प्रथमहिं कहहु नाथ मतिधीरा। सब ते दुर्लभ कवन सरीरा।।
बड़ दुख कवन कवन सुख भारी। सोउ संछेपहिं कहहु बिचारी।।
संत असंत मरम तुम्ह जानहु। तिन्ह कर सहज सुभाव बखानहु।।
कवन पुन्य श्रुति बिदित बिसाला। कहहु कवन अघ परम कराला।।
मानस रोग कहहु समुझाई। तुम्ह सर्बग्य कृपा अधिकाई।।
तात सुनहु सादर अति प्रीती। मैं संछेप कहउ यह नीती।।
नर तन सम नहिं कवनिउ देही। जीव चराचर जाचत तेही।।
नरग स्वर्ग अपबर्ग निसेनी। ग्यान बिराग भगति सुभ देनी।।
सो तनु धरि हरि भजहि न जे नर। होहि बिषय रत मंद मंद तर।।
काँच किरिच बदले ते लेही। कर ते डारि परस मनि देही।।
नहिं दरिद्र सम दुख जग माहीं। संत मिलन सम सुख जग नाहीं।।
पर उपकार बचन मन काया। संत सहज सुभाउ खगराया।।
संत सहहिं दुख परहित लागी। परदुख हेतु असंत अभागी।।
भूर्ज तरू सम संत कृपाला। परहित निति सह बिपति बिसाला।।
सन इव खल पर बंधन करई। खाल कढ़ाइ बिपति सहि मरई।।
खल बिनु स्वारथ पर अपकारी। अहि मूषक इव सुनु उरगारी।।
पर संपदा बिनासि नसाहीं। जिमि ससि हति हिम उपल बिलाहीं।।
दुष्ट उदय जग आरति हेतू। जथा प्रसिद्ध अधम ग्रह केतू।।
संत उदय संतत सुखकारी। बिस्व सुखद जिमि इंदु तमारी।।
परम धर्म श्रुति बिदित अहिंसा। पर निंदा सम अघ न गरीसा।।
हर गुर निंदक दादुर होई। जन्म सहस्त्र पाव तन सोई।।
द्विज निंदक बहु नरक भोग करि। जग जनमइ बायस सरीर धरि।।
सुर श्रुति निंदक जे अभिमानी। रौरव नरक परहिं ते प्रानी।।
होहिं उलूक संत निंदा रत। मोह निसा प्रिय ग्यान भानु गत।।
सब के निंदा जे जड़ करहीं। ते चमगादुर होइ अवतरहीं।।
सुनहु तात अब मानस रोगा। जिन्ह ते दुख पावहिं सब लोगा।।
मोह सकल ब्याधिन्ह कर मूला। तिन्ह ते पुनि उपजहिं बहु सूला।।
काम बात कफ लोभ अपारा। क्रोध पित्त नित छाती जारा।।
प्रीति करहिं जो तीनिउ भाई। उपजइ सन्यपात दुखदाई।।
बिषय मनोरथ दुर्गम नाना। ते सब सूल नाम को जाना।।
ममता दादु कंडु इरषाई। हरष बिषाद गरह बहुताई।।
पर सुख देखि जरनि सोइ छई। कुष्ट दुष्टता मन कुटिलई।।
अहंकार अति दुखद डमरुआ। दंभ कपट मद मान नेहरुआ।।
तृष्ना उदरबृद्धि अति भारी। त्रिबिध ईषना तरुन तिजारी।।
जुग बिधि ज्वर मत्सर अबिबेका। कह लागि कहों कुरोग अनेका।।
एक ब्याधि बस नर मरहि ए असाधि बहु ब्याधि।
पीड़हि संतत जीव कहु सो किमि लहे समाधि।।
नेम धर्म आचार तप ग्यान जग्य जप दान।
भेषज पुनि कोटिन्ह नहिं रोग जाहिं हरिजान।।
राजीव कुमार कुलश्रेष्ठ
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एहि बिधि सकल जीव जग रोगी। सोक हरष भय प्रीति बियोगी।।
मानक रोग कछुक मैं गाए। हहिं सब कें लखि बिरलेन्ह पाए।।
जाने ते छीजहिं कछु पापी। नास न पावहिं जन परितापी।।
बिषय कुपथ्य पाइ अंकुरे। मुनिहु हृदय का नर बापुरे।।
राम कृपा नासहि सब रोगा। जो एहि भांति बने संयोगा।।
सदगुर वैद बचन बिस्वासा। संजम यह न बिषय के आसा।।
रघुपति भगति सजीवन मूरी। अनूपान श्रद्धा मति पूरी।।
एहि बिधि भलेहिं सो रोग नसाहीं। नाहिं त जतन कोटि नहिं जाहीं।।
जानिअ तब मन बिरुज गोसाई। जब उर बल बिराग अधिकाई।।
सुमति छुधा बाढ़इ नित नई। बिषय आस दुर्बलता गई।।
बिमल ग्यान जल जब सो नहाई। तब रह राम भगति उर छाई।।
सिव अज सुक सनकादिक नारद। जे मुनि ब्रह्म बिचार बिसारद।।
सब कर मत खगनायक एहा। करिअ राम पद पंकज नेहा।।
श्रुति पुरान सब ग्रंथ कहाहीं। रघुपति भगति बिना सुख नाहीं।।
कमठ पीठ जामहिं बरु बारा। बंध्या सुत बरु काहुहि मारा।।
फूलहिं नभ बरु बहुबिधि फूला। जीव न लह सुख हरि प्रतिकूला।।
तृषा जाइ बरु मृगजल पाना। बरु जामहिं सस सीस बिषाना।।
अंधकारु बरु रबिहि नसावे। राम बिमुख न जीव सुख पावे।।
हिम ते अनल प्रगट बरु होई। बिमुख राम सुख पाव न कोई।।
बारि मथे घृत होइ बरु सिकता ते बरु तेल।
बिनु हरि भजन न भव तरिअ यह सिद्धांत अपेल।।
मसकहि करइ बिरंचि प्रभु अजहि मसक ते हीन।
अस बिचारि तजि संसय रामहि भजहिं प्रबीन।।
विनिच्श्रितं वदामि ते न अन्यथा वचांसि मे।
हरिं नरा भजन्ति येतिदुस्तरं तरन्ति ते।।
राजीव कुमार कुलश्रेष्ठ
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कहेउ नाथ हरि चरित अनूपा। व्यास समास स्वमति अनुरुपा।।
श्रुति सिद्धांत इहइ उरगारी। राम भजिअ सब काज बिसारी।।
प्रभु रघुपति तजि सेइअ काही। मोहि से सठ पर ममता जाही।।
तुम्ह बिग्यानरूप नहिं मोहा। नाथ कीन्हि मो पर अति छोहा।।
पूछिहु राम कथा अति पावनि। सुक सनकादि संभु मन भावनि।।
सत संगति दुर्लभ संसारा। निमिष दंड भरि एकउ बारा।।
देखु गरुड़ निज हृदय बिचारी। मैं रघुबीर भजन अधिकारी।।
सकुनाधम सब भांति अपावन। प्रभु मोहि कीन्ह बिदित जग पावन।।
आजु धन्य मैं धन्य अति जद्यपि सब बिधि हीन।
निज जन जानि राम मोहि संत समागम दीन।।
नाथ जथामति भाषेउ राखेउ नहिं कछु गोइ।
चरित सिंधु रघुनायक थाह कि पावइ कोइ।।
राजीव कुमार कुलश्रेष्ठ
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सुमिरि राम के गुन गन नाना। पुनि पुनि हरष भुसुंडि सुजाना।।
महिमा निगम नेति करि गाई। अतुलित बल प्रताप प्रभुताई।।
सिव अज पूज्य चरन रघुराई। मो पर कृपा परम मृदुलाई।।
अस सुभाउ कहु सुनउ न देखउ। केहि खगेस रघुपति सम लेखउ।।
साधक सिद्ध बिमुक्त उदासी। कबि कोबिद कृतग्य संन्यासी।।
जोगी सूर सुतापस ग्यानी। धर्म निरत पंडित बिग्यानी।।
तरहिं न बिनु सेए मम स्वामी। राम नमामि नमामि नमामी।।
सरन गए मो से अघ रासी। होहिं सुद्ध नमामि अबिनासी।।
जासु नाम भव भेषज हरन घोर त्रय सूल।
सो कृपालु मोहि तो पर सदा रहउ अनुकूल।।
सुनि भुसुंडि के बचन सुभ देखि राम पद नेह।
बोलेउ प्रेम सहित गिरा गरुड़ बिगत संदेह।।
राजीव कुमार कुलश्रेष्ठ
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मै कृत्कृत्य भयउ तव बानी। सुनि रघुबीर भगति रस सानी।।
राम चरन नूतन रति भई। माया जनित बिपति सब गई।।
मोह जलधि बोहित तुम्ह भए। मो कह नाथ बिबिध सुख दए।।
मो पहिं होइ न प्रति उपकारा। बंदउ तव पद बारहिं बारा।।
पूरन काम राम अनुरागी। तुम्ह सम तात न कोउ बड़भागी।।
संत बिटप सरिता गिरि धरनी। पर हित हेतु सबन्ह के करनी।।
संत हृदय नवनीत समाना। कहा कबिन्ह परि कहे न जाना।।
निज परिताप द्रवइ नवनीता। पर दुख द्रवहिं संत सुपुनीता।।
जीवन जन्म सुफल मम भयऊ। तव प्रसाद संसय सब गयऊ।।
जानेहु सदा मोहि निज किंकर। पुनि पुनि उमा कहइ बिहंगबर।।
तासु चरन सिरु नाइ करि प्रेम सहित मतिधीर।
गयउ गरुड़ बैकुंठ तब हृदय राखि रघुबीर।।
गिरिजा संत समागम सम न लाभ कछु आन।
बिनु हरि कृपा न होइ सो गावहिं बेद पुरान।।
राजीव कुमार कुलश्रेष्ठ
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कहेउ परम पुनीत इतिहासा। सुनत श्रवन छूटहिं भव पासा।।
प्रनत कल्पतरु करुना पुंजा। उपजइ प्रीति राम पद कंजा।।
मन क्रम बचन जनित अघ जाई। सुनहि जे कथा श्रवन मन लाई।।
तीर्थाटन साधन समुदाई। जोग बिराग ग्यान निपुनाई।।
नाना कर्म धर्म ब्रत दाना। संजम दम जप तप मख नाना।।
भूत दया द्विज गुर सेवकाई। बिद्या बिनय बिबेक बड़ाई।।
जहं लगि साधन बेद बखानी। सब कर फल हरि भगति भवानी।।
सो रघुनाथ भगति श्रुति गाई। राम कृपा काहू एक पाई।।
मुनि दुर्लभ हरि भगति नर पावहि बिनहि प्रयास।
जे यह कथा निरंतर सुनहि मानि बिस्वास।।
राजीव कुमार कुलश्रेष्ठ
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सोइ सर्बग्य गुनी सोइ ग्याता। सोइ महि मंडित पंडित दाता।।
धर्म परायन सोइ कुल त्राता। राम चरन जा कर मन राता।।
नीति निपुन सोइ परम सयाना। श्रुति सिद्धांत नीक तेहिं जाना।।
सोइ कबि कोबिद सोइ रनधीरा। जो छल छाड़ि भजइ रघुबीरा।।
धन्य देस सो जहं सुरसरी। धन्य नारि पतिब्रत अनुसरी।।
धन्य सो भूपु नीति जो करई। धन्य सो द्विज निज धर्म न टरई।।
सो धन धन्य प्रथम गति जाकी। धन्य पुन्य रत मति सोइ पाकी।।
धन्य घरी सोइ जब सतसंगा। धन्य जन्म द्विज भगति अभंगा।।
सो कुल धन्य उमा सुनु जगत पूज्य सुपुनीत।
श्रीरघुबीर परायन जेहिं नर उपज बिनीत।।
राजीव कुमार कुलश्रेष्ठ
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मति अनुरूप कथा मैं भाषी। जद्यपि प्रथम गुप्त करि राखी।।
तव मन प्रीति देखि अधिकाई। तब मैं रघुपति कथा सुनाई।।
यह न कहिअ सठही हठसीलहि। जो मन लाइ न सुन हरि लीलहि।।
कहिअ न लोभिहि क्रोधहि कामिहि। जो न भजइ सचराचर स्वामिहि।।
द्विज द्रोहिहि न सुनाइअ कबहू। सुरपति सरिस होइ नृप जबहू।।
राम कथा के तेइ अधिकारी। जिन्ह कें सतसंगति अति प्यारी।।
गुर पद प्रीति नीति रत जेई। द्विज सेवक अधिकारी तेई।।
ता कह यह बिसेष सुखदाई। जाहि प्रानप्रिय श्रीरघुराई।।
राम चरन रति जो चह अथवा पद निर्बान।
भाव सहित सो यह कथा करउ श्रवन पुट पान।।
राजीव कुमार कुलश्रेष्ठ
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राम कथा गिरिजा मैं बरनी। कलि मल समनि मनोमल हरनी।।
संसृति रोग सजीवन मूरी। राम कथा गावहिं श्रुति सूरी।।
एहि मह रुचिर सप्त सोपाना। रघुपति भगति केर पंथाना।।
अति हरि कृपा जाहि पर होई। पाउ देइ एहिं मारग सोई।।
मन कामना सिद्धि नर पावा। जे यह कथा कपट तजि गावा।।
कहहिं सुनहिं अनुमोदन करहीं। ते गोपद इव भवनिधि तरहीं।।
सुनि सब कथा हृदय अति भाई। गिरिजा बोली गिरा सुहाई।।
नाथ कृपा मम गत संदेहा। राम चरन उपजेउ नव नेहा।।
मैं कृतकृत्य भइउ अब तव प्रसाद बिस्वेस।
उपजी राम भगति दृढ़ बीते सकल कलेस।।
राजीव कुमार कुलश्रेष्ठ
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यह सुभ संभु उमा संबादा। सुख संपादन समन बिषादा।।
भव भंजन गंजन संदेहा। जन रंजन सज्जन प्रिय एहा।।
राम उपासक जे जग माहीं। एहि सम प्रिय तिन्ह के कछु नाहीं।।
रघुपति कृपा जथामति गावा। मैं यह पावन चरित सुहावा।।
एहिं कलिकाल न साधन दूजा। जोग जग्य जप तप ब्रत पूजा।।
रामहि सुमिरिअ गाइअ रामहि। संतत सुनिअ राम गुन ग्रामहि।।
जासु पतित पावन बड़ बाना। गावहिं कबि श्रुति संत पुराना।।
ताहि भजहि मन तजि कुटिलाई। राम भजें गति केहिं नहिं पाई।।
राजीव कुमार कुलश्रेष्ठ
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पाई न केहिं गति पतित पावन राम भजि सुनु सठ मना।
गनिका अजामिल ब्याध गीध गजादि खल तारे घना।।
आभीर जमन किरात खस स्वपचादि अति अघरूप जे।
कहि नाम बारक तेपि पावन होहिं राम नमामि ते।।1।।
रघुबंस भूषन चरित यह नर कहहिं सुनहिं जे गावहीं।
कलि मल मनोमल धोइ बिनु श्रम राम धाम सिधावहीं।।
सत पंच चौपाईं मनोहर जानि जो नर उर धरे।
दारुन अबिद्या पंच जनित बिकार श्रीरघुबर हरे।।
सुंदर सुजान कृपा निधान अनाथ पर कर प्रीति जो।
सो एक राम अकाम हित निर्बानप्रद सम आन को।।
जाकी कृपा लवलेस ते मतिमंद तुलसीदासहू।
पायो परम बिश्रामु राम समान प्रभु नाहीं कहू।।
मो सम दीन न दीन हित तुम्ह समान रघुबीर।
अस बिचारि रघुबंस मनि हरहु बिषम भव भीर।।
कामिहि नारि पिआरि जिमि लोभहि प्रिय जिमि दाम।
तिमि रघुनाथ निरंतर प्रिय लागहु मोहि राम।।

उत्तरकाण्ड 4



आवत निकट हसहिं प्रभु भाजत रुदन कराहिं।
जाउ समीप गहन पद फिरि फिरि चितइ पराहिं।।
प्राकृत सिसु इव लीला देखि भयउ मोहि मोह।
कवन चरित्र करत प्रभु चिदानंद संदोह।।
एतना मन आनत खगराया। रघुपति प्रेरित ब्यापी माया।।
सो माया न दुखद मोहि काहीं। आन जीव इव संसृत नाहीं।।
नाथ इहाँ कछु कारन आना। सुनहु सो सावधान हरिजाना।।
ग्यान अखंड एक सीताबर। माया बस्य जीव सचराचर।।
जौ सब के रह ग्यान एकरस। ईस्वर जीवहि भेद कहहु कस।।
माया बस्य जीव अभिमानी। ईस बस्य माया गुनखानी।।
परबस जीव स्वबस भगवंता। जीव अनेक एक श्रीकंता।।
मुधा भेद जद्यपि कृत माया। बिनु हरि जाइ न कोटि उपाया।।
रामचंद्र के भजन बिनु जो चह पद निर्बान।
ग्यानवंत अपि सो नर पसु बिनु पूँछ बिषान।।
राकापति षोड़स उअहिं तारागन समुदाइ।।
सकल गिरिन्ह दव लाइअ बिनु रबि राति न जाइ।।

राजीव कुमार कुलश्रेष्ठ
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ऐसेहिं हरि बिनु भजन खगेसा। मिटइ न जीवन्ह केर कलेसा।।
हरि सेवकहि न ब्याप अबिद्या। प्रभु प्रेरित ब्यापइ तेहि बिद्या।।
ताते नास न होइ दास कर। भेद भगति भाढ़इ बिहंगबर।।
भ्रम ते चकित राम मोहि देखा। बिहसे सो सुनु चरित बिसेषा।।
तेहि कौतुक कर मरमु न काहू। जाना अनुज न मातु पिताहू।।
जानु पानि धाए मोहि धरना। स्यामल गात अरुन कर चरना।।
तब मैं भागि चलेउ उरगामी। राम गहन कह भुजा पसारी।।
जिमि जिमि दूरि उड़ाउ अकासा। तहँ भुज हरि देखउ निज पासा।।
ब्रह्मलोक लगि गयउ मैं चितयउ पाछ उड़ात।
जुग अंगुल कर बीच सब राम भुजहि मोहि तात।।
सप्ताबरन भेद करि जहाँ लगें गति मोरि।
गयउ तहाँ प्रभु भुज निरखि ब्याकुल भयउ बहोरि।।
राजीव कुमार कुलश्रेष्ठ
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मूदेउ नयन त्रसित जब भयउ। पुनि चितवत कोसलपुर गयऊ।।
मोहि बिलोकि राम मुसुकाहीं। बिहसत तुरत गयउ मुख माहीं।।
उदर माझ सुनु अंडज राया। देखेउ बहु ब्रह्मांड निकाया।।
अति बिचित्र तह लोक अनेका। रचना अधिक एक ते एका।।
कोटिन्ह चतुरानन गौरीसा। अगनित उडगन रबि रजनीसा।।
अगनित लोकपाल जम काला। अगनित भूधर भूमि बिसाला।।
सागर सरि सर बिपिन अपारा। नाना भांति सृष्टि बिस्तारा।।
सुर मुनि सिद्ध नाग नर किंनर। चारि प्रकार जीव सचराचर।।
जो नहि देखा नहि सुना जो मनहू न समाइ।
सो सब अद्भुत देखेउ बरनि कवनि बिधि जाइ।।
एक एक ब्रह्मांड महु रहउ बरष सत एक।
एहि बिधि देखत फिरउ मैं अंड कटाह अनेक।।
राजीव कुमार कुलश्रेष्ठ
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लोक लोक प्रति भिन्न बिधाता। भिन्न बिष्नु सिव मनु दिसित्राता।।
नर गंधर्ब भूत बेताला। किंनर निसिचर पसु खग ब्याला।।
देव दनुज गन नाना जाती। सकल जीव तहँ आनहि भाँती।।
महि सरि सागर सर गिरि नाना। सब प्रपंच तहँ आनइ आना।।
अंडकोस प्रति प्रति निज रुपा। देखेउ जिनस अनेक अनूपा।।
अवधपुरी प्रति भुवन निनारी। सरजू भिन्न भिन्न नर नारी।।
दसरथ कौसल्या सुनु ताता। बिबिध रूप भरतादिक भ्राता।।
प्रति ब्रह्मांड राम अवतारा। देखउ बालबिनोद अपारा।।
भिन्न भिन्न मै दीख सबु अति बिचित्र हरिजान।
अगनित भुवन फिरेउ प्रभु राम न देखेउ आन।।
सोइ सिसुपन सोइ सोभा सोइ कृपाल रघुबीर।
भुवन भुवन देखत फिरउ प्रेरित मोह समीर।।
राजीव कुमार कुलश्रेष्ठ
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भ्रमत मोहि ब्रह्मांड अनेका। बीते मनहु कल्प सत एका।।
फिरत फिरत निज आश्रम आयउ। तह पुनि रहि कछु काल गवाँयउ।।
निज प्रभु जन्म अवध सुनि पायउ। निर्भर प्रेम हरषि उठि धायउ।।
देखउ जन्म महोत्सव जाई। जेहि बिधि प्रथम कहा मैं गाई।।
राम उदर देखेउ जग नाना। देखत बनइ न जाइ बखाना।।
तहँ पुनि देखेउ राम सुजाना। माया पति कृपाल भगवाना।।
करउ बिचार बहोरि बहोरी। मोह कलिल ब्यापित मति मोरी।।
उभय घरी मह मैं सब देखा। भयउ भ्रमित मन मोह बिसेषा।।
देखि कृपाल बिकल मोहि बिहसे तब रघुबीर।
बिहसतहीं मुख बाहेर आयउ सुनु मतिधीर।।
सोइ लरिकाई मो सन करन लगे पुनि राम।
कोटि भाँति समुझावउ मनु न लहइ बिश्राम।।
राजीव कुमार कुलश्रेष्ठ
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देखि चरित यह सो प्रभुताई। समुझत देह दसा बिसराई।।
धरनि परेउ मुख आव न बाता। त्राहि त्राहि आरत जन त्राता।।
प्रेमाकुल प्रभु मोहि बिलोकी। निज माया प्रभुता तब रोकी।।
कर सरोज प्रभु मम सिर धरेऊ। दीनदयाल सकल दुख हरेऊ।।
कीन्ह राम मोहि बिगत बिमोहा। सेवक सुखद कृपा संदोहा।।
प्रभुता प्रथम बिचारि बिचारी। मन मह होइ हरष अति भारी।।
भगत बछलता प्रभु कै देखी। उपजी मम उर प्रीति बिसेषी।।
सजल नयन पुलकित कर जोरी। कीन्हिउ बहु बिधि बिनय बहोरी।।
सुनि सप्रेम मम बानी देखि दीन निज दास।
बचन सुखद गंभीर मृदु बोले रमानिवास।।
काकभसुंडि मागु बर अति प्रसन्न मोहि जानि।
अनिमादिक सिधि अपर रिधि मोच्छ सकल सुख खानि।।
राजीव कुमार कुलश्रेष्ठ
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ग्यान बिबेक बिरति बिग्याना। मुनि दुर्लभ गुन जे जग नाना।।
आजु देउ सब संसय नाहीं। मागु जो तोहि भाव मन माहीं।।
सुनि प्रभु बचन अधिक अनुरागेउ। मन अनुमान करन तब लागेऊ।।
प्रभु कह देन सकल सुख सही। भगति आपनी देन न कही।।
भगति हीन गुन सब सुख ऐसे। लवन बिना बहु बिंजन जैसे।।
भजन हीन सुख कवने काजा। अस बिचारि बोलेउ खगराजा।।
जो प्रभु होइ प्रसन्न बर देहू। मो पर करहु कृपा अरु नेहू।।
मन भावत बर मांगउ स्वामी। तुम्ह उदार उर अंतरजामी।।
अबिरल भगति बिसुध्द तव श्रुति पुरान जो गाव।
जेहि खोजत जोगीस मुनि प्रभु प्रसाद कोउ पाव।।
भगत कल्पतरु प्रनत हित कृपा सिंधु सुख धाम।
सोइ निज भगति मोहि प्रभु देहु दया करि राम।।
राजीव कुमार कुलश्रेष्ठ
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एवमस्तु कहि रघुकुलनायक। बोले बचन परम सुखदायक।।
सुनु बायस तैं सहज सयाना। काहे न मागसि अस बरदाना।।
सब सुख खानि भगति तैं मागी। नहिं जग कोउ तोहि सम बड़भागी।।
जो मुनि कोटि जतन नहिं लहहीं। जे जप जोग अनल तन दहहीं।।
रीझेउ देखि तोरि चतुराई। मागेहु भगति मोहि अति भाई।।
सुनु बिहंग प्रसाद अब मोरे। सब सुभ गुन बसिहहिं उर तोरे।।
भगति ग्यान बिग्यान बिरागा। जोग चरित्र रहस्य बिभागा।।
जानब तैं सबही कर भेदा। मम प्रसाद नहिं साधन खेदा।।
माया संभव भ्रम सब अब न ब्यापिहहिं तोहि।
जानेसु ब्रह्म अनादि अज अगुन गुनाकर मोहि।।
मोहि भगत प्रिय संतत अस बिचारि सुनु काग।
काय बचन मन मम पद करेसु अचल अनुराग।।
राजीव कुमार कुलश्रेष्ठ
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अब सुनु परम बिमल मम बानी। सत्य सुगम निगमादि बखानी।।
निज सिद्धांत सुनावउ तोही। सुनु मन धरु सब तजि भजु मोही।।
मम माया संभव संसारा। जीव चराचर बिबिधि प्रकारा।।
सब मम प्रिय सब मम उपजाए। सब ते अधिक मनुज मोहि भाए।।
तिन्ह मह द्विज द्विज मह श्रुतिधारी। तिन्ह महु निगम धरम अनुसारी।।
तिन्ह मह प्रिय बिरक्त पुनि ग्यानी। ग्यानिहु ते अति प्रिय बिग्यानी।।
तिन्ह ते पुनि मोहि प्रिय निज दासा। जेहि गति मोरि न दूसरि आसा।।
पुनि पुनि सत्य कहउ तोहि पाहीं। मोहि सेवक सम प्रिय कोउ नाहीं।।
भगति हीन बिरंचि किन होई। सब जीवहु सम प्रिय मोहि सोई।।
भगतिवंत अति नीचउ प्रानी। मोहि प्रानप्रिय असि मम बानी।।
सुचि सुसील सेवक सुमति प्रिय कहु काहि न लाग।
श्रुति पुरान कह नीति असि सावधान सुनु काग।।
राजीव कुमार कुलश्रेष्ठ
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एक पिता के बिपुल कुमारा। होहिं पृथक गुन सील अचारा।।
कोउ पंडिंत कोउ तापस ग्याता। कोउ धनवंत सूर कोउ दाता।।
कोउ सर्बग्य धर्मरत कोई। सब पर पितहि प्रीति सम होई।।
कोउ पितु भगत बचन मन कर्मा। सपनेहु जान न दूसर धर्मा।।
सो सुत प्रिय पितु प्रान समाना। जद्यपि सो सब भाँति अयाना।।
एहि बिधि जीव चराचर जेते। त्रिजग देव नर असुर समेते।।
अखिल बिस्व यह मोर उपाया। सब पर मोहि बराबरि दाया।।
तिन्ह मंह जो परिहरि मद माया। भजे मोहि मन बच अरू काया।।
पुरूष नपुंसक नारि वा जीव चराचर कोइ।
सर्ब भाव भज कपट तजि मोहि परम प्रिय सोइ।।
सत्य कहउ खग तोहि सुचि सेवक मम प्रानप्रिय।
अस बिचारि भजु मोहि परिहरि आस भरोस सब।।
राजीव कुमार कुलश्रेष्ठ
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कबहू काल न ब्यापिहि तोही। सुमिरेसु भजेसु निरंतर मोही।।
प्रभु बचनामृत सुनि न अघाऊ। तनु पुलकित मन अति हरषाऊ।।
सो सुख जानइ मन अरु काना। नहिं रसना पहिं जाइ बखाना।।
प्रभु सोभा सुख जानहिं नयना। कहि किमि सकहिं तिन्हहि नहिं बयना।।
बहु बिधि मोहि प्रबोधि सुख देई। लगे करन सिसु कौतुक तेई।।
सजल नयन कछु मुख करि रूखा। चितइ मातु लागी अति भूखा।।
देखि मातु आतुर उठि धाई। कहि मृदु बचन लिए उर लाई।।
गोद राखि कराव पय पाना। रघुपति चरित ललित कर गाना।।
जेहि सुख लागि पुरारि असुभ बेष कृत सिव सुखद।
अवधपुरी नर नारि तेहि सुख महु संतत मगन।।
सोइ सुख लवलेस जिन्ह बारक सपनेहुँ लहेउ।
ते नहिं गनहिं खगेस ब्रह्मसुखहि सज्जन सुमति।।
राजीव कुमार कुलश्रेष्ठ
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मैं पुनि अवध रहेउ कछु काला। देखेउ बालबिनोद रसाला।।
राम प्रसाद भगति बर पायउ। प्रभु पद बंदि निजाश्रम आयउ।।
तब ते मोहि न ब्यापी माया। जब ते रघुनायक अपनाया।।
यह सब गुप्त चरित मैं गावा। हरि माया जिमि मोहि नचावा।।
निज अनुभव अब कहउ खगेसा। बिनु हरि भजन न जाहि कलेसा।।
राम कृपा बिनु सुनु खगराई। जानि न जाइ राम प्रभुताई।।
जानें बिनु न होइ परतीती। बिनु परतीति होइ नहिं प्रीती।।
प्रीति बिना नहिं भगति दिढ़ाई। जिमि खगपति जल के चिकनाई।।
बिनु गुर होइ कि ग्यान ग्यान कि होइ बिराग बिनु।
गावहिं बेद पुरान सुख कि लहिअ हरि भगति बिनु।।
कोउ बिश्राम कि पाव तात सहज संतोष बिनु।
चलै कि जल बिनु नाव कोटि जतन पचि पचि मरिअ।।
राजीव कुमार कुलश्रेष्ठ
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बिनु संतोष न काम नसाहीं। काम अछत सुख सपनेहु नाहीं।।
राम भजन बिनु मिटहिं कि कामा। थल बिहीन तरु कबहु कि जामा।।
बिनु बिग्यान कि समता आवइ। कोउ अवकास कि नभ बिनु पावइ।।
श्रद्धा बिना धर्म नहिं होई। बिनु महि गंध कि पावइ कोई।।
बिनु तप तेज कि कर बिस्तारा। जल बिनु रस कि होइ संसारा।।
सील कि मिल बिनु बुध सेवकाई। जिमि बिनु तेज न रूप गोसाई।।
निज सुख बिनु मन होइ कि थीरा। परस कि होइ बिहीन समीरा।।
कवनिउ सिद्धि कि बिनु बिस्वासा। बिनु हरि भजन न भव भय नासा।।
बिनु बिस्वास भगति नहिं तेहि बिनु द्रवहिं न रामु।
राम कृपा बिनु सपनेहु जीव न लह बिश्रामु।।
अस बिचारि मतिधीर तजि कुतर्क संसय सकल।
भजहु राम रघुबीर करुनाकर सुंदर सुखद।।
राजीव कुमार कुलश्रेष्ठ
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निज मति सरिस नाथ मैं गाई। प्रभु प्रताप महिमा खगराई।।
कहेउ न कछु करि जुगुति बिसेषी। यह सब मैं निज नयनन्हि देखी।।
महिमा नाम रूप गुन गाथा। सकल अमित अनंत रघुनाथा।।
निज निज मति मुनि हरि गुन गावहिं। निगम सेष सिव पार न पावहिं।।
तुम्हहि आदि खग मसक प्रजंता। नभ उड़ाहिं नहिं पावहिं अंता।।
तिमि रघुपति महिमा अवगाहा। तात कबहु कोउ पाव कि थाहा।।
रामु काम सत कोटि सुभग तन। दुर्गा कोटि अमित अरि मर्दन।।
सक्र कोटि सत सरिस बिलासा। नभ सत कोटि अमित अवकासा।।
मरुत कोटि सत बिपुल बल रबि सत कोटि प्रकास।
ससि सत कोटि सुसीतल समन सकल भव त्रास।।
काल कोटि सत सरिस अति दुस्तर दुर्ग दुरंत।
धूमकेतु सत कोटि सम दुराधरष भगवंत।।
राजीव कुमार कुलश्रेष्ठ
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प्रभु अगाध सत कोटि पताला। समन कोटि सत सरिस कराला।।
तीरथ अमित कोटि सम पावन। नाम अखिल अघ पूग नसावन।।
हिमगिरि कोटि अचल रघुबीरा। सिंधु कोटि सत सम गंभीरा।।
कामधेनु सत कोटि समाना। सकल काम दायक भगवाना।।
सारद कोटि अमित चतुराई। बिधि सत कोटि सृष्टि निपुनाई।।
बिष्नु कोटि सम पालन कर्ता। रुद्र कोटि सत सम संहर्ता।।
धनद कोटि सत सम धनवाना। माया कोटि प्रपंच निधाना।।
भार धरन सत कोटि अहीसा। निरवधि निरुपम प्रभु जगदीसा।।
निरुपम न उपमा आन राम समान रामु निगम कहै।
जिमि कोटि सत खद्योत सम रबि कहत अति लघुता लहै।।
एहि भाँति निज निज मति बिलास मुनिस हरिहि बखानहीं।
प्रभु भाव गाहक अति कृपाल सप्रेम सुनि सुख मानहीं।।
राजीव कुमार कुलश्रेष्ठ
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रामु अमित गुन सागर थाह कि पावइ कोइ।
संतन्ह सन जस किछु सुनेउ तुम्हहि सुनायउ सोइ।।
भाव बस्य भगवान सुख निधान करुना भवन।
तजि ममता मद मान भजिअ सदा सीता रवन।।
सुनि भुसुंडि के बचन सुहाए। हरषित खगपति पंख फुलाए।।
नयन नीर मन अति हरषाना। श्रीरघुपति प्रताप उर आना।।
पाछिल मोह समुझि पछिताना। ब्रह्म अनादि मनुज करि माना।।
पुनि पुनि काग चरन सिरु नावा। जानि राम सम प्रेम बढ़ावा।।
गुर बिनु भव निधि तरइ न कोई। जो बिरंचि संकर सम होई।।
संसय सर्प ग्रसेउ मोहि ताता। दुखद लहरि कुतर्क बहु ब्राता।।
तव सरूप गारुड़ि रघुनायक। मोहि जिआयउ जन सुखदायक।।
तव प्रसाद मम मोह नसाना। राम रहस्य अनूपम जाना।।
राजीव कुमार कुलश्रेष्ठ
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ताहि प्रसंसि बिबिध बिधि सीस नाइ कर जोरि।
बचन बिनीत सप्रेम मृदु बोलेउ गरुड़ बहोरि।।
प्रभु अपने अबिबेक ते बूझउ स्वामी तोहि।
कृपासिंधु सादर कहहु जानि दास निज मोहि।।
तुम्ह सर्बग्य तन्य तम पारा। सुमति सुसील सरल आचारा।।
ग्यान बिरति बिग्यान निवासा। रघुनायक के तुम्ह प्रिय दासा।।
कारन कवन देह यह पाई। तात सकल मोहि कहहु बुझाई।।
राम चरित सर सुंदर स्वामी। पायहु कहाँ कहहु नभगामी।।
नाथ सुना मैं अस सिव पाहीं। महा प्रलयहु नास तव नाहीं।।
मुधा बचन नहिं ईस्वर कहई। सोउ मोरे मन संसय अहई।।
अग जग जीव नाग नर देवा। नाथ सकल जगु काल कलेवा।।
अंड कटाह अमित लय कारी। कालु सदा दुरतिक्रम भारी।।
राजीव कुमार कुलश्रेष्ठ
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तुम्हहि न ब्यापत काल अति कराल कारन कवन।
मोहि सो कहहु कृपाल ग्यान प्रभाव कि जोग बल।।
प्रभु तव आश्रम आए मोर मोह भ्रम भाग।
कारन कवन सो नाथ सब कहहु सहित अनुराग।।
गरुड़ गिरा सुनि हरषेउ कागा। बोलेउ उमा परम अनुरागा।।
धन्य धन्य तव मति उरगारी। प्रस्न तुम्हारि मोहि अति प्यारी।।
सुनि तव प्रस्न सप्रेम सुहाई। बहुत जनम कै सुधि मोहि आई।।
सब निज कथा कहउँ मैं गाई। तात सुनहु सादर मन लाई।।
जप तप मख सम दम ब्रत दाना। बिरति बिबेक जोग बिग्याना।।
सब कर फल रघुपति पद प्रेमा। तेहि बिनु कोउ न पावइ छेमा।।
एहि तन राम भगति मैं पाई। ताते मोहि ममता अधिकाई।।
जेहि तें कछु निज स्वारथ होई। तेहि पर ममता कर सब कोई।।
राजीव कुमार कुलश्रेष्ठ
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पन्नगारि असि नीति श्रुति संमत सज्जन कहहिं।
अति नीचहु सन प्रीति करिअ जानि निज परम हित।।
पाट कीट तें होइ तेहि तें पाटंबर रुचिर।
कृमि पालइ सबु कोइ परम अपावन प्रान सम।।
स्वारथ साँच जीव कहु एहा। मन क्रम बचन राम पद नेहा।।
सोइ पावन सोइ सुभग सरीरा। जो तनु पाइ भजिअ रघुबीरा।।
राम बिमुख लहि बिधि सम देही। कबि कोबिद न प्रसंसहिं तेही।।
राम भगति एहिं तन उर जामी। ताते मोहि परम प्रिय स्वामी।।
तजउ न तन निज इच्छा मरना। तन बिनु बेद भजन नहिं बरना।।
प्रथम मोह मोहि बहुत बिगोवा। राम बिमुख सुख कबहु न सोवा।।
नाना जनम कर्म पुनि नाना। किए जोग जप तप मख दाना।।
कवन जोनि जनमेउ जहँ नाहीं। मैं खगेस भ्रमि भ्रमि जग माहीं।।
देखेउ करि सब करम गोसाई। सुखी न भयउ अबहिं की नाई।।
सुधि मोहि नाथ जन्म बहु केरी। सिव प्रसाद मति मोह न घेरी।।
राजीव कुमार कुलश्रेष्ठ
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प्रथम जन्म के चरित अब कहउ सुनहु बिहगेस।
सुनि प्रभु पद रति उपजइ जातें मिटहिं कलेस।।
पूरुब कल्प एक प्रभु जुग कलिजुग मल मूल।।
नर अरु नारि अधर्म रत सकल निगम प्रतिकूल।।
तेहि कलिजुग कोसलपुर जाई। जन्मत भयउ सूद्र तनु पाई।।
सिव सेवक मन क्रम अरु बानी। आन देव निंदक अभिमानी।।
धन मद मत्त परम बाचाला। उग्रबुद्धि उर दंभ बिसाला।।
जदपि रहेउ रघुपति रजधानी। तदपि न कछु महिमा तब जानी।।
अब जाना मैं अवध प्रभावा। निगमागम पुरान अस गावा।।
कवनेहु जन्म अवध बस जोई। राम परायन सो परि होई।।
अवध प्रभाव जान तब प्रानी। जब उर बसहिं रामु धनुपानी।।
सो कलिकाल कठिन उरगारी। पाप परायन सब नर नारी।।
राजीव कुमार कुलश्रेष्ठ
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कलिमल ग्रसे धर्म सब लुप्त भए सदग्रंथ।
दंभिन्ह निज मति कल्पि करि प्रगट किए बहु पंथ।।
भए लोग सब मोहबस लोभ ग्रसे सुभ कर्म।
सुनु हरिजान ग्यान निधि कहउ कछुक कलिधर्म।।
बरन धर्म नहिं आश्रम चारी। श्रुति बिरोध रत सब नर नारी।।
द्विज श्रुति बेचक भूप प्रजासन। कोउ नहिं मान निगम अनुसासन।।
मारग सोइ जा कहु जोइ भावा। पंडित सोइ जो गाल बजावा।।
मिथ्यारंभ दंभ रत जोई। ता कहु संत कहइ सब कोई।।
सोइ सयान जो परधन हारी। जो कर दंभ सो बड़ आचारी।।
जो कह झूठ मसखरी जाना। कलिजुग सोइ गुनवंत बखाना।।
निराचार जो श्रुति पथ त्यागी। कलिजुग सोइ ग्यानी सो बिरागी।।
जाकें नख अरु जटा बिसाला। सोइ तापस प्रसिद्ध कलिकाला।।
राजीव कुमार कुलश्रेष्ठ
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असुभ बेष भूषन धरे भच्छाभच्छ जे खाहिं।
तेइ जोगी तेइ सिद्ध नर पूज्य ते कलिजुग माहिं।।
जे अपकारी चार तिन्ह कर गौरव मान्य तेइ।
मन क्रम बचन लबार तेइ बकता कलिकाल महु।।
नारि बिबस नर सकल गोसाई। नाचहिं नट मर्कट की नाई।।
सूद्र द्विजन्ह उपदेसहिं ग्याना। मेलि जनेऊ लेहिं कुदाना।।
सब नर काम लोभ रत क्रोधी। देव बिप्र श्रुति संत बिरोधी।।
गुन मंदिर सुंदर पति त्यागी। भजहिं नारि पर पुरुष अभागी।।
सौभागिनीं बिभूषन हीना। बिधवन्ह के सिंगार नबीना।।
गुर सिष बधिर अंध का लेखा। एक न सुनइ एक नहिं देखा।।
हरइ सिष्य धन सोक न हरई। सो गुर घोर नरक महु परई।।
मातु पिता बालकन्हि बोलाबहिं। उदर भरै सोइ धर्म सिखावहिं।।
राजीव कुमार कुलश्रेष्ठ
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ब्रह्म ग्यान बिनु नारि नर कहहिं न दूसरि बात।
कौड़ी लागि लोभ बस करहिं बिप्र गुर घात।।
बादहिं सूद्र द्विजन्ह सन हम तुम्ह ते कछु घाटि।
जानइ ब्रह्म सो बिप्रबर आँखि देखावहिं डाटि।।
पर त्रिय लंपट कपट सयाने। मोह द्रोह ममता लपटाने।।
तेइ अभेदबादी ग्यानी नर। देखा में चरित्र कलिजुग कर।।
आपु गए अरु तिन्हहू घालहिं। जे कहु सत मारग प्रतिपालहिं।।
कल्प कल्प भरि एक एक नरका। परहिं जे दूषहिं श्रुति करि तरका।।
जे बरनाधम तेलि कुम्हारा। स्वपच किरात कोल कलवारा।।
नारि मुई गृह संपति नासी। मूड़ मुड़ाइ होहिं सन्यासी।।
ते बिप्रन्ह सन आपु पुजावहिं। उभय लोक निज हाथ नसावहिं।।
बिप्र निरच्छर लोलुप कामी। निराचार सठ बृषली स्वामी।।
सूद्र करहिं जप तप ब्रत नाना। बैठि बरासन कहहिं पुराना।।
सब नर कल्पित करहिं अचारा। जाइ न बरनि अनीति अपारा।।
राजीव कुमार कुलश्रेष्ठ
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भए बरन संकर कलि भिन्नसेतु सब लोग।
करहिं पाप पावहिं दुख भय रुज सोक बियोग।।
श्रुति संमत हरि भक्ति पथ संजुत बिरति बिबेक।
तेहि न चलहिं नर मोह बस कल्पहिं पंथ अनेक।।

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सहज सरस मधुर मनोहर भावपूर्ण कथा कार्यक्रम हेतु सम्पर्क करें। ------------- बालसाध्वी सुश्री अरुणा देवी (देवीजी) (सरस कथावाचक, भागवताचार्य) आश्रम श्रीधाम, वृन्दावन (उत्तर प्रदेश) भारत सम्पर्क न. - 78953 91377 -------------------- Baalsadhvi Sushri Aruna Devi (Devi ji) (Saras Kathavachak, Bhagvatacharya) Aashram Shridham vrindavan (u. p) India Contact no - 78953 91377